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ओडिशा में 'मशरूम मां' बनीं आदिवासी महिला, अपने इस कदम से बदली गांव की तस्वीर

कालाहांडी जिलापाल ने नाबार्ड के 40वां स्थापना दिवस पर मशरुम की खेती में योगदान और महिला सशक्तीकरण के सम्मान में बनदेई मांक्षी को सम्मानित किया गया. साथ ही जिलापाल ने कहा कि यह एक आदिवासी महिला की प्रतिबद्धता और समपर्ण की कहानी है. वह महिला सशक्तीकरण की असली मॉडल हैं. 

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ओडिशा की 'मशरूम मां' को मिला सम्मान
ओडिशा की 'मशरूम मां' को मिला सम्मान
स्टोरी हाइलाइट्स
  • मशरूम ने बदली मांक्षी की जिंदगी
  • गांव ने भी पकड़ी मशरूम मां की राह

ओडिशा में 1980 के दशक में भुखमरी और इससे होने वाली मौत के लिए कुख्यात कालाहांडी जिले के कतेनपाडर गांव ने एक नई तस्वीर पेश की है. यह गांव आज मशरूम की खेती कर जिले का 'मॉडल गांव' बन चुका है.  साथ ही महिला सशक्तीकरण का उदाहरण भी साबित हो रहा है. 

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दरअसल, जिले के मॉडल गांव की कहानी उस वक्त शुरू हुई जब कतेनपाडर गांव की 45 वर्षीय महिला बनदेई मांक्षी ने 2007-08 में नाबार्ड शिविर में प्रशिक्षण लेने के बाद अपने परिवार की आर्थिक स्थिति बदलने के लिए धान के पुआल से मशरूम की खेती की शुरुआत की. 

गांव के अधिकर लोग पहले जीवन यापन के लिए वन उत्पाद पर निर्भर थे, लेकिन कुछ ही दिनों के बाद उन्होंने भी मांक्षी के रास्ते पर चलना शुरू कर दिया. गांव वालों को इस कार्य से आर्थिक राहत मिलने के बाद मांक्षी को 'मशरूम मां' के नाम से बुलाना शुरू कर दिया. मशरूम मां की इच्छाशक्ति ने कुछ ही सालों में गांव के गरीबी की तपिश से बाहर निकलने में मदद की.

बनदेई के परिवार में पति और चार बच्चें हैं. वह एक गरीब परिवार से आती हैं. जिन्हें दो एकड़ सरकारी जमीन मिली थी, जो सिर्फ बाजरे के फसल के लिए उपयुक्त थी. दशकों पहले अन्य ग्रामीणों की तरह उनका परिवार भी दो वक्त की रोटी के लिए वन और मजदूरी पर निर्भर था. गांव के लोगों के लिए उदाहरण बन चुकीं 'मशरूम मां' मशरूम की खेती से आज सालाना लाख रुपये कमाती हैं.

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बनदेई मांक्षी ने कहा कि मूलभूत प्रशिक्षण और दो साल तक प्रायोगिक खेती के बाद उन्होंने व्यक्तिगत रुप से मशरूम की खेती शुरु की और जल्द ही रोल मॉडल बन गईं. मांक्षी का कहना है कि मशरूम की खेती से जून से अक्टूबर के दौरान मुझे एक लाख रुपये का शुद्ध लाभ हुआ. इसके अलावा सब्जियों, दाल और तिलहान की खेती से भी 50 से 60 हजार रुपये की आमदनी हुई. उन्होंने कहा कि पिछले कुछ सालों में जो भी बचत की है उससे वह अपने बच्चों के लिए पक्का घर बनवा रही हैं.

बनदेई ने कहा कि मशरूम और सब्जियों की खेती ने उनका ग्रामीणों का जीवन बदल दिया. भवानीपटना के जिला मुख्यालय से 10 किलोमीटर दूर कुतेनपदार गांव आदिवासी बहुल है जहां करीब करीब परिवार हैं और इनमें से 40 परिवार आदिवासी हैं. बनदेई से प्रेरित होकर अब मुख्यत: गांव वाले मशरूम की खेती कर रहे हैं और सालाना करीब 50,000 रुपये कमा रहे हैं. 

बनदेई ने विस्तार से कहा कि वर्ष 2010 में उन्होंने 500 रुपये में एक बकरी खरीदी थी और अब परिवार के पास 45 बकरियां हैं. मेरे पति जगबंधु और बेटी जज्ञेनसेनी दैनिक कामकाज में उनकी मदद करती है. एक बेटी की दो साल पहले शादी हुई थी और दो बेटे कॉलेज में पढ़ते हैं. बनदेई ने अपने पति के लिए बाजार जाने के उद्शेय से मोटरसाइकिल खरीदी है.

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कालाहांडी जिलापाल ने नाबार्ड के 40वां स्थापना दिवस पर मशरुम की खेती में योगदान और महिला सशक्तीकरण के सम्मान में  बनदेई मांक्षी को सम्मानित किया. साथ ही जिलापाल ने कहा कि यह एक आदिवासी महिला की प्रतिबद्धता और समपर्ण की कहानी है. वह महिला सशक्तीकरण की असली मॉडल हैं. 

(मोहम्मद सूफियान की रिपोर्ट)

 

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