
दिल्ली की सीमाओं पर किसान आंदोलन के एक साल पूरे हो गए. तीन कृषि कानूनों के खिलाफ ये आंदोलन देश में अब तक चले सबसे लंबे आंदोलनों में से एक है. पिछले साल नवंबर के आखिरी हफ्ते में जब पंजाब के किसानों ने दिल्ली कूच करने का ऐलान किया तो ये आंदोलन सबकी नज़र में आया. तभी से लगातार बतौर पत्रकार इस आंदोलन के अलग-अलग फेज़ को ना सिर्फ़ मैंने कवर किया बल्कि उतार-चढ़ाव से भरे आंदोलन की तस्वीरों का गवाह भी बना. किसानों के दर्द को देखा, किसान नेताओं और सरकारों की बातचीत के अंदर की ख़बर भी रखी और उस दौर का गवाह भी बना जब आंदोलन कमज़ोर पड़ा और दोबारा मजबूती के साथ खड़ा भी हो गया. मौसमी उतार-चढ़ाव की चुनौतियों के साथ-साथ, कोविड जैसी बीमारियों ने भी इस आंदोलन के सामने ऐसी चुनौतियां पेश कीं जिसने किसानों और आंदोलनकारियों की हिम्मत की परीक्षा ली. लेकिन किसान आंदोलन अनवरत चलता रहा, कभी किसान बॉर्डर छोड़कर घर चले गए, तो कभी उतनी ही संख्या में दोबारा आकर ये भी दिखाया कि संख्या कम होने का मतलब आंदोलन की आग ठंडी हो गई, ऐसा ज़रुरी नहीं है.
कैसे खड़ा हुआ आंदोलन, कौन से बने केंद्र
आंदोलन खड़ा तो पंजाब में हुआ. सितंबर 2020 में, जैसे ही संसद में तीन कृषि कानून पास हुए उसके बाद ही पंजाब के किसान संगठनों ने विरोध का झंडा बुलंद कर दिया. पंजाब में ट्रेन रोकी गई, रास्ते बंद किए गए और विरोध जताने का हर वो कदम उठाया गया जिससे किसानों की आवाज़ सरकार के कानों तक पहुंचे. जब सरकार ने बात नहीं सुनी, तब पंजाब के जत्थाबंदियों ने ये घोषणा की कि वो अब राज्य में नहीं बल्कि दिल्ली जाकर, वहां की सरकार को घेरेंगे. तारीख 25 नवंबर, 2020 की तय हुई. पंजाब सरकार ने किसानों को दिल्ली जाने से नहीं रोका. लेकिन जैसे ही किसानों का जत्था शंभु बॉर्डर के जरिए हरियाणा में दाखिल हुआ, हरियाणा में बीजेपी-जेजेपी सरकार ने उन्हें रोकने के लिए पूरी ताकत झोंक दी. संघर्ष खूब हुआ, तस्वीरों में ये दिखा कि किसान भी पूरे दम-खम के साथ सुरक्षाकर्मियों से ना सिर्फ भिड़े, बल्कि अलग-अलग रास्तों से दिल्ली की सीमाओं तक ट्रैक्टर ट्रॉलियों से पहुंच भी गए.
मुख्य केंद्र बना, हरियाणा के सोनीपत जिले से सटा हुआ दिल्ली का सिंघु बॉर्डर. सरकार और पुलिस सकते में थी, दिल्ली पुलिस ने रातोंरात बैरिकेडिंग और सुरक्षा घेरा ऐसा जमा दिया कि किसान दिल्ली की सीमा में नहीं घुस पाएं. किसानों को ये विकल्प दिया गया कि वो दिल्ली के बुराड़ी मैदान में अपना धरना दें, लेकिन किसानों ने सरकार का प्रस्ताव नामंजूर कर दिया और सिंघु बॉर्डर पर ही जम गए. सैकड़ों की तादाद में ट्रैक्टर और ट्रॉलियां ना सिर्फ सिंघु बॉर्डर पर रहीं बल्कि हरियाणा के बहादुरगढ़ बॉर्डर से सटे टीकरी बॉर्डर पर भी किसानों का बड़ा जमावड़ा लग गया. वहां भी सरकार ने आंदोलनकारियों को वहीं रोक दिया. फिर बारी थी पश्चिमी उत्तर प्रदेश से किसानों के दिल्ली कूच की. 27 नवंबर को मुजफ्फरनगर में राकेश टिकैत की अगुआई में भारतीय किसान यूनियन ने दिल्ली का रुख किया और 28 नवंबर को गाज़ीपुर बॉर्डर पर जम गए. वहीं उत्तराखंड और उत्तरप्रदेश की तराई से आने वाले किसानों ने भी जमावड़ा लगाना शुरु किया.
सरकार ने की बातचीत की पेशकश, मगर किसानों को हल्के में लेने की हुई भूल
सरकार पर लगातार दवाब बन रहा था. दिल्ली के बॉर्डर पर अलग-अलग राज्यों से आए हज़ारों किसान बैठे थे. पहली बार केंद्र की मोदी सरकार किसी ऐसे आंदोलन को संभाल रही थी. पहला प्रस्ताव केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की तरफ से 28 नवंबर को ही आ गया. प्रस्ताव था कि दिल्ली के बॉर्डर से किसान हट जाएं, बुराड़ी मैदान में सीमित संख्या में विरोध करें तो सरकार बातचीत कर लेगी, लेकिन किसानों ने इसे सरकार की चाल बता दिया और बॉर्डर छोड़ने से साफ मना भी कर दिया. सरकार पर दवाब लगातार बढ़ रहा था, हर मोर्चे पर लंगर शुरु हो गए और किसानों ने कानून वापसी तक टिके रहने का ऐलान कर दिया. आखिरकार सरकार ने किसान संगठनों के साथ 3 दिसंबर को विज्ञान भवन में बातचीत शुरु की, तीन दिनों में दो दौर की बातचीत जब बेनतीजा रही तो किसान मोर्चे ने पहली बार 8 दिसंबर को भारत बंद का ऐलान कर दिया और सीधे-सीधे सरकार को चुनौती दे दी.
अब सरकार अपना रुख थोड़ा नरम कर रही थी, प्रस्ताव कानूनों में संशोधन का आया और तारीख दी 9 दिसंबर, लेकिन संगठन नहीं माने और कहा कि कानून वापसी के अलावा कोई शर्त मंजूर नहीं होगी. इसी बीच दिसंबर के दूसरे हफ्ते में मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया. बातचीत का दौर अपनी जगह चल रहा था, कोर्ट में सुनवाई भी शुरू हो गई लेकिन सरकार और किसानों के बीच तल्खियां बढ़ती जा रही थीं. लगातार किसानों के खिलाफ मंत्रियों से लेकर सत्ता पक्ष के नेताओं के बयान आने लगे और उसने आंदोलन की आग में घी डालने का काम किया. ठंड बढ़ रही थी, लेकिन आंदोलन में जोश भी बढ़ने लगा. किसानों की जान भी जानी शुरू हो गई थी. दिसंबर का महीना खत्म होते-होते 6 दौर की बात हो चुकी थी, लेकिन बात आगे बढ़ी ही नहीं. कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और पीयूष गोयल की हाई लेवल कमेटी के साथ घंटों बैठक चलती, फोटो आती, उम्मीद जगती और फिर सब कुछ दिसंबर जनवरी की ठंड में ठंडा पड़ जाता.
नए साल में नया जोश और जुनून, आंदोलन तेज करने को लेकर हुआ फैसला
किसान आंदोलन जमने लगा था. महिलाएं, बच्चे और बुजुर्ग भी नए साल में इस आंदोलन का हिस्सा बन रहे थे. महिलाओं के लिए अलग टेंट था तो हर रोज़ के जरूरी काम के लिए गीज़र से लेकर वाशिंग मशीन दिल्ली के बॉर्डर पर दिखने लगे. एक छोटा सा गांव हर बॉर्डर पर नज़र आने लगा. मेडिकल कैंप, हॉस्पीटल से लेकर लाइब्रेरी तक, सभी बॉर्डर पर नज़र आने लगे. बातचीत का दौर अब भी जारी था और साथ ही सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई ने भी रफ्तार पकड़ रखी थी. 11 दौर की बातचीत के बाद सरकार ने साफ कर दिया था कि कानून वापसी का सवाल नहीं उठता और ऐसे में किसानों से बातचीत बढ़ाने का कोई फायदा नहीं. इस बीच 12 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट ने बड़ा कदम उठाया. कोर्ट ने कानूनों के अमल पर डेढ साल की रोक लगा दी और चार सदस्यों की समिति बनाई जिसमें विशेषज्ञों को शामिल किया गया. लेकिन किसान संगठनों ने इस कमेटी का भी बायकॉट करने का फैसला लिया और दलील ये दी कि कमेटी के सदस्य कानून समर्थक हैं. इस बीच 26 जनवरी को दिल्ली की ओर ट्रैक्टर मार्च का ऐलान कर दिया गया और घोषणा की गई कि जब गणतंत्र दिवस की परेड राजपथ पर होगी तब किसान दिल्ली के रिंगरोड पर अपनी परेड निकालेंगे.
26 जनवरी की परेड पर हुए हंगामे ने बदला माहौल, कमजेर पड़ते आंदोलन को टिकैत के आंसुओं ने बचाया
काफी मशक्कत के बाद गणतंत्र दिवस को दिल्ली पुलिस ने किसानों की ट्रैक्टर परेड को अनुमति दी. अलग-अलग बॉर्डरों के लिए रूट तय किए गए. शर्त रखी गई कि गणतंत्र दिवस की परेड खत्म होने के बाद किसान निकलेंगे. लेकिन हुआ कुछ और ही. तय समय से पहले ही सिंघु बॉर्डर से किसानों के एक ग्रुप दिल्ली की तरफ कूच कर गया. गाज़ीपुर बॉर्डर से भी किसान तय समय से पहले निकले और दिल्ली की तरफ चल पड़े. किसान नेताओं के कंट्रोल से बाहर ग्रुप अलग-अलग दिशाओं में भागने लगे. अचानक सैकड़ों की तादाद में किसान लाल किले और आईटीओ की ओर पहुंच गए जो गणतंत्र दिवस के रूट का हिस्सा था. देखते ही देखते किसानों की परेड न सिर्फ बेकाबू हुई बल्कि दिल्ली की सड़कों पर जबरदस्त हिंसा भी हुई. पुलिस ने बल प्रयोग किया तो प्रदर्शनकारियों के एक ग्रुप ने भी जमकर बवाल काटा. दीप सिद्धू और लक्खा सिडाना के नेतृत्व में सैकड़ों प्रदर्शनकारी लालकिले पर चढ़ गए और वहां निशान साहिब लहरा दिया.
तमाशे की ये तस्वीरें देश ही नहीं, दुनिया भर में वायरल हो गईं. निराशा किसानों में भी थी, हज़ारों की तादाद में आए किसान अपने घर वापस लौटने लगे. 27 जनवरी को अचानक बॉर्डर पर निराशा का माहौल बन गया, संदेश ये गया कि किसान आंदोलन अपने लक्ष्य से भटक गया. 28 जनवरी को दिल्ली पुलिस ने किसान नेताओं को 26 जनवरी की हिंसा मामले में नोटिस देना शुरू कर दिया. गाज़ीपुर बॉर्डर पर शाम होते-होते आंदोलन के बड़े नेता राकेश टिकैत की गिरफ्तारी की बात होने लगी. लेकिन अचानक बदले घटनाक्रम में टिकैत ने मंच से ज़ोरदार भाषण दिया और उसके बाद फफक-फफक कर रोने लगे. आंसू की उस धार ने किसान आंदोलन का भी रुख मोड़ दिया. टिकैत की इस इमोशनल अपील पर रातोंरात हज़ारों किसान बॉर्डरों पर वापस लौट आए.
किसान और सरकार आए आमने-सामने, बॉर्डर पर कील और बैरिकेड लगाकर कर दी किलेबंदी
26 जनवरी की घटना के बाद किसान आंदोलन दो दिनों के लिए कमज़ोर तो पड़ा, लेकिन सरकार तब उसे खत्म नहीं करवा पाई. जब बॉर्डरों पर दोबारा किसान इकट्ठा होने लगे, तो दिल्ली की तरफ जाने वाले सारे रास्ते कई लेयर की बैरिकेडिंग लगा कर बंद कर दिए गए. सीमेंट और लोहे के बैरिकेड के साथ ही कंटीले तार तो लगाए ही गए, साथ में सड़कों पर कील ठोक दी गई ताकि कोई भी गाड़ी बॉर्डर की दूसरी ओर ना जा पाए. अब किसानों से सरकार ने बातचीत भी पूरी तरह बंद कर दी थी. जनवरी के बाद फरवरी और मार्च में किसानों ने लंबी लड़ाई की तैयारी कर ली. गर्मियों के हिसाब से तंबू अब झोपड़ी में तब्दील होने लगे. इस बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसानों के सामने ये प्रस्ताव भी दिया कि वो बस एक फोन कॉल दूर हैं. इसी बीच पीएम मोदी का आंदोलनजीवी वाला बयान भी आ गया. उधर राकेश टिकैत भी नए अवतार में थे, कभी कील के बदले फूल बोते, तो कभी बंगाल चुनावों के वक्त वहां जाने का ऐलान करते. रेल-रोको से लेकर चक्का जाम तो चल ही रहा था अब अलग-अलग राज्यों में फरवरी के महीने से ही पंचायतों का दौर भी शुरू हो गया. मकसद था दिल्ली के बॉर्डर से आंदोलन दूर-दराज तक पहुंचाने का, साथ ही साथ सरकार पर सियासी चोट करने का भी.
बंगाल का चुनाव और कोविड की दूसरी लहर ने कम किया किसान आंदोलन पर फोकस
इस बीच बंगाल, केरल, असम और पुदुचेरी में चुनावों का ऐलान हो गया. पार्टियों और सरकार का फोकस बदल गया और किसान नेता भी बाहरी राज्यों की पंचायतों में लग गए. फोकस दिल्ली के बॉर्डर से हट गया. इसी बीच कोविड की दूसरी लहर ने भी पूरे देश में लॉकडाउन की वपसी की. लेकिन किसान आंदोलन जारी रहा. किसान संगठनों ने घोषणा कर दी कि कम लोगों के साथ सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए आंदोलन चलता रहेगा. गर्मी भी बढ़ रही थी और सबकी नज़र इसपर थी कि बंगाल में क्या ममता बनर्जी की वापसी होगी? राकेश टिकैत और किसान नेता भी बंगाल पहुंचे और बीजेपी को हराने के लिए रैलियां और पंचायत की. मई में चुनावों के नतीजे आए और साथ ही ममता की जीत ने किसान आंदोलन का मनोबल भी बढ़ा दिया. मई के महीने में ही किसान आंदोलन के 6 महीने पूरे हुए और इसी महीने में हरियाणा के हिसार में किसानों पर हुए लाठीचार्ज के खिलाफ किसान नेता हरियाणा पहुंच गए.
कोरोना खत्म, आंदोलन में लगा सियासी तड़का और किसानों ने कर दिया अपनी संसद का ऐलान
कोरोना की दूसरी लहर खत्म होने के साथ ही एक नया अध्याय किसान आंदोलन में भी शुरू हो गया. राकेश टिकैत समेत बाकी किसान नेताओं ने पहले ही घोषणा कर दी थी कि कोरोना संकट के बीच किसान आंदोलन खत्म नहीं होगा और सरकार यह गलतफहमी निकाल दें कि वह बॉर्डर खाली करवाने में कामयाब होगी. मामला सिर्फ किसानी का नहीं रह गया, मंच से सियासी बयान भी आने लगे. धारा 370 से लेकर और भी कई मुद्दों पर टिकैत अब सीधे-सीधे सरकार पर हमला बोल रहे थे. जून का महीना खत्म होते-होते गाजीपुर बॉर्डर पर बीजेपी कार्यकर्ता और किसान भिड़ भी गए. इस बीच लगातार सरकार से प्रस्ताव आ रहा था कि अगर किसान बिना शर्त बातचीत करने आते हैं तो उनसे बातचीत की जा सकती है. संयुक्त किसान मोर्चा ने यह भी फैसला ले लिया था कि अब संसद मार्च होगा, जो 22 जुलाई को मानसून सत्र के शुरू होते ही किया जाएगा. पुलिस ने जंतर-मंतर पर किसान संसद की मंजूरी तो दी, लेकिन ट्रैक्टर पर नहीं बल्कि बसों में भरकर किसान पहुंचाए गए. अगस्त आते-आते, सीधे-सीधे उत्तर प्रदेश चुनाव का असर दिखने लगा और यह घोषणा कर दी गई कि अब चुनावी राज्यों में जाकर भी सरकार के खिलाफ किसान मोर्चा बात करेगा.
मुजफ्फरनगर में टिकैत ने महापंचायत बुलाकर दिखाई अपनी ताकत, मोदी-योगी को बताया बाहरी
बात यहीं तक नहीं थी, 5 सितंबर को मुजफ्फरनगर में राकेश टिकैत ने संयुक्त किसान मोर्चा की महापंचायत बुलाई और वहां लाखों लोगों को जमा कर लिया. पंजाब, हरियाणा और बाकी राज्यों से भी किसान नेता एक साथ मंच पर आए. मंच से अल्लाह-हू-अकबर और हर-हर महादेव के नारे लगे और साथ ही साथ गन्ने की कीमत पर भी खूब बवाल मचाया गया. इसी बीच सितंबर महीने में ही उत्तर प्रदेश सरकार ने गन्ने की कीमतों को बढ़ाने का ऐलान कर दिया. केंद्र सरकार से एक बार फिर बातचीत का प्रस्ताव आया लेकिन बात वही थी कि बिना शर्त किसान बात करें.
लखीमपुर खीरी हिंसा पर आंदोलन के सामने पहली बार झुकी सरकार
सितंबर का महीना खत्म हुआ तो अक्टूबर आते-आते उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में, किसानों को रौंदकर हत्या करने के मामले ने तूल पकड़ लिया. आरोप लगा कि केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्र टेनी के बेटे ने अपनी गाड़ी से कुचल कर, 4 किसान और एक पत्रकार की हत्या कर दी. मामले ने सियासी रंग ले लिया, लेकिन किसान आंदोलन को एक नया रूप भी दे दिया. सरकार ने तुरंत मुआवजे की बात मान ली और कुछ दिनों के भीतर गृह राज्य मंत्री के बेटे आशीष मिश्रा को भी गिरफ्तार कर लिया गया. लखीमपुर खीरी मामले ने पूरे किसान आंदोलन में एक बार फिर से नई जान फूंक दी और 18 अक्टूबर को रेल रोको आंदोलन का ऐलान कर दिया गया.
SC के आदेश पर भी नहीं खुली सड़कें, लेकिन प्रधानमंत्री ने बिल वापसी की घोषणा कर चौंका दिया
सुप्रीम कोर्ट ने बंद पड़ी हुई सड़कों को खोलने को लेकर सुनवाई शुरू की और साफ किया कि लोगों को कोई भी असुविधा नहीं होनी चाहिए. किसान संगठनों और पुलिस ने अपने-अपने तरफ के बैरिकेड हटा दिए और यह दावा किया कि उनकी तरफ से सड़कें खाली कर दी गई हैं, लेकिन फिर भी यातायात के लिए सड़कें नहीं खुली. अक्टूबर के आखिर में, सिंघु बॉर्डर पर एक और बवाल हुआ, एक किसान लखबीर सिंह की हत्या निहंग सिखों ने कर दी. इस बात पर न सिर्फ़ सियासी बवाल मचा, बल्कि कई संगठनों ने सिंघु बॉर्डर पहुंचकर किसानों के विरोध में धरना देने की कोशिश भी की. नवंबर महीने में जब ऐसा लग रहा था कि अब किसान आंदोलन कहीं ना कहीं सरकार को उत्तर प्रदेश और पंजाब में सियासी झटका देने की कोशिश में है, तभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 19 नवंबर को सबको चौंका दिया. गुरुपूरब के मौके पर उन्होंने तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा तो कर दी, लेकिन किसान इतने पर भी नहीं माने. उन्होंने कहा कि हमें न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी वाला कानून भी चाहिए.