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'कब्रिस्तान बन गया था जिन्ना का पाकिस्तान' 1971 में भागकर भारत आए बांग्लादेश के ऑफिसर की कहानी

यह कहानी है इस साल पद्मश्री पाने वाले बांग्लादेश सेना के सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट कर्नल क़ाज़ी सज्जाद अली ज़हीर की. कभी पाकिस्तान सेना का साथ छोड़कर भारत आए सज्जाद को पाकिस्तान के खिलाफ 1971 के युद्ध में भारत की सफलता में उनके योगदान के लिए ये सम्मान मिला है.

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Lt Colonel Qazi Sajjad
Lt Colonel Qazi Sajjad
स्टोरी हाइलाइट्स
  • पाकिस्तान सेना में रहे सैनिक को पद्मश्री
  • 1971 में पाक आर्मी छोड़ भारत में घुसे

सियालकोट सेक्टर में तैनात पाकिस्तानी सेना के एक 20 वर्षीय युवा अधिकारी, दस्तावेज़ और नक्शे से भरे जूते पहने मार्च 1971 में भारत में घुसने में कामयाब रहे. दरअसल, पूर्वी पाकिस्तान में अत्याचार बढ़ रहे थे और एक नरसंहार की योजना बनाई जा रही थी. पाकिस्तानी सेना की आईडी और जेब में 20 रुपये लिए वह सीमा पार कर गए थे. इधर, सीमा पर भारतीय बलों द्वारा उन्हें पाकिस्तानी जासूस होने के संदेह में गिरफ्तार कर लिया गया. यह कहानी है सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट कर्नल क़ाज़ी सज्जाद अली ज़हीर की, जो बांग्लादेश सेना में एक उच्च पदस्थ अधिकारी रहे चुके हैं. वह गर्व से कहते हैं कि पाकिस्तान में उनके नाम पर पिछले 50 वर्षों से मौत की सजा लंबित है. उन्हें बांग्लादेश में भारत के वीर चक्र के बराबर माने जाने वाले बीर प्रोटिक से सम्मानित किया जा चुका है.

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पाकिस्तान से भागे रि. लेफ्टिनेंट कर्नल को पद्म श्री

वहीं अब, उन्हें भारत में सर्वोच्च नागरिक पुरस्कारों में से एक पद्म श्री से सम्मानित किया गया है. ये सम्मान उन्हें पाकिस्तान के खिलाफ 1971 के युद्ध में भारत की सफलता में उनके बलिदान और योगदान के लिए मिला है. इसी युद्ध के कारण बांग्लादेश का निर्माण हुआ था. उन्हें यह पुरस्कार ऐसे समय में दिया गया है जब भारत और बांग्लादेश इस युद्ध के 50 साल पूरे होने का जश्न मना रहे हैं. संयोग से सज्जाद भी 71 साल के हो गए हैं. यह सब तब शुरू हुआ जब तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में  वहीं के लोगों के खिलाफ अत्याचार हो रहा था. अपनी दिलचस्प कहानी बताते हुए सज्जाद कहते हैं, "मेरे पास इस सब की एक फोटोग्राफिक मेमोरी है और हर घटना मुझे स्पष्ट रूप से याद है."

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'कब्रिस्तान बन गया था जिन्ना का पाकिस्तान'

पाकिस्तान से भागने के कारणों को याद करते हुए वे कहते हैं, ''जिन्ना का पाकिस्तान हमारे लिए कब्रिस्तान बन गया था. हमारे साथ दूसरे दर्जे के नागरिकों जैसा व्यवहार किया जाने लगा था, जिनके पास कोई अधिकार नहीं था. हम वंचित आबादी थे.  जैसा वादा किया गया था वैसा लोकतंत्र हमें कभी नहीं मिला, हमें केवल एक मार्शल लॉ मिला था. जिन्ना ने कहा कि हमारे पास समान अधिकार होंगे लेकिन हमारे पास कोई अधिकार नहीं था. हमारे साथ पाकिस्तान के नौकरों जैसा व्यवहार किया गया.

उन्होंने बताया कि “सियालकोट में पाकिस्तान के कुलीन पैरा ब्रिगेड के सदस्य के रूप में, मैं एक अलग-थलग इंसान था.  लेकिन तब मैंने सोचा कि मुझमें तीन व्यक्ति हैं; मी, माइसेल्फ और आई. तो, मैंने योजना बनाना शुरू कर दिया कि किस राह पर चलना है. मैंने शकरगाह मार्ग से जम्मू की ओर जाने का फैसला किया, जिस पर शायद कम से कम सेना की गश्त थी.” 

'LOC पार करते ही बड़ी खाई में कूद गया'

अपने परिवार की दूसरी पीढ़ी के सैन्य अधिकारी सज्जाद को उन सभी पर गर्व है जो अपने देश की सेवा करते हैं. उनके पिता ब्रिटिश सेना में एक अधिकारी थे और दूसरे विश्व युद्ध में बर्मा (म्यांमार) की कार्रवाई का हिस्सा थे. उनका छोटा भाई मुक्ति वाहिनी का हिस्सा था जिसने बांग्लादेश की स्वतंत्रता के लिए लड़ाई लड़ी थी. पाकिस्तान से अपने भागने की घटना को याद करते हुए, वह कहते हैं कि जैसे ही उन्होंने सीमा पार की तो पाकिस्तान की ओर से गोलीबारी होने लगी. बदले में भारत की ओर से सीमा सुरक्षा बलों ने भी जवाबी फायरिंग की. मैं एक बड़ी खाई में कूद गया और सुरक्षित था क्योंकि दोनों तरफ से गोलीबारी जारी थी. मैं  पूरा रास्ता पार करने में कामयाब रहा और जानबूझकर पकड़े जाने के लिए भारत चला गया. 

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'पता तक नहीं लगा कि भारतीय सेना की हिरासत में हूं'

बाद में, सज्जाद को दिल्ली ले जाया गया जहां उन्होंने विभिन्न एजेंसियों के वरिष्ठ अधिकारियों से बात करते हुए महीनों बिताए. सज्जाद ने बताया कि “तब उन अधिकारियों ने मुझे कभी नहीं बताया कि मैं हिरासत में था. मुझे अच्छा खाना दिया गया, मेरे साथ अच्छा व्यवहार किया लेकिन मुझसे सफदरजंग एन्क्लेव में अलॉट घर को नहीं छोड़ने का अनुरोध किया गया. वहां बहुत बड़े अफसर आए और दिन-रात मुझसे बात की.” खुद को मैप रीडिंग और नाइट नेविगेशन का मास्टर बताते हुए, लेफ्टिनेंट कर्नल सज्जाद कहते हैं कि वह अपने कॉर्डिनेट्स से पूरी तरह वाकिफ थे और उन्होंने भारतीय अधिकारियों को पाकिस्तानी तैनाती के बारे में सटीक जानकारी दी थी. उन सेक्टरों में भारत की सफलता के लिए कोई श्रेय लेने से इनकार करते हुए, लेफ्टिनेंट कर्नल सज्जाद ने कहा कि भारतीय सेना ने शकरगढ़ की लड़ाई में पाकिस्तानी क्षेत्र में 56 मील की दूरी तक प्रवेश किया था.

पाक सेना ने इसलिए किया सरेंडर

दिल्ली से, उन्हें पूर्वी पाकिस्तान भेजा गया, जहां उन्होंने एक पहाड़ी इलाके में त्रिपुरा/असम सीमा से सटे एक शिविर में सेवा की. यहां 850 मुक्ति वाहिनी पुरुष थे और उन्होंने उन्हें छापामार युद्ध में प्रशिक्षित किया. सज्जाद ने बताया कि “जब सैनिक लड़ते हैं, तो वे न्याय के लिए लड़ते हैं; पाकिस्तानी एक अन्यायपूर्ण कारण के लिए लड़ रहा था, रेप, मर्डर, लूटपाट और जनसंहार में लिप्त सेना के पास लड़ने का मनोबल नहीं था, इसलिए उन्होंने सरेंडर कर दिया.”

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'भारत का एहसान तक नहीं मानती पाक सेना'

भारतीय सेना की प्रशंसा करते हुए, वे कहते हैं कि पाक के आत्मसमर्पण के बाद भारतीय सेना ने ही पाकिस्तानी सेना की रक्षा की, वरना वे बच नहीं पाते और मुक्ति वाहिनी द्वारा मारे जाते.  पाक सेना में कृतज्ञता का भाव नहीं था कि भारतीय बलों ने उनकी जान बचाई. अंत में,  सज्जाद बांग्लादेश और भारत की युवा पीढ़ी से अपील करते हुए बोले “हम एक साथ लड़े और 1971 में एक बड़ी जीत हासिल की; यह भारत और बांग्लादेश के लिए सबसे अच्छा समय था.  लेकिन नई पीढ़ियां अपने गौरवशाली अतीत यानी 1971 को भूल रही हैं; हमें अपने बच्चों को पढ़ाना चाहिए, यह दुखद था लेकिन मानवता के लिए सीखने के लिए बहुत कुछ है." 

 

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