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परवेज मुशर्रफ पाकिस्तान के वो जनरल थे, जिन्हें करगिल घुसपैठ का आर्किटेक्ट कहा जाता है, बावजूद इसके एक समय ऐसा आया था जब मुशर्रफ की अगुवाई में ही भारत पाकिस्तान के साथ कश्मीर मसले को सुलझाने के लिए एक अहम समझौता करने वाला था. आज मुशर्रफ के निधन के बाद कूटनीति की किताब के वो पन्ने फिर से मौजूं हो उठे हैं. जहां उस डील की चर्चा है, जब भारत और पाकिस्तान कश्मीर को लेकर एक ऐतिहासिक डील करने वाले थे.
मुशर्रफ ने अपनी जीवनी 'इन द लाइन ऑफ फायर' में लिखा है कि साल 2001 में गुजरात भूकंप के बाद उन्हें लगा कि ये एक ऐसा मौका है, जब दोनों देशों के रिश्तों के बीच जमी बर्फ को पिछलाने के लिए कुछ किया जा सकता है. मुशर्रफ का दावा है कि उन्होंने भारत के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को फोन किया और भूकंप से प्रभावित क्षेत्रों के लिए मदद की पेशकश की. मुशर्रफ लिखते हैं, "इससे बर्फ पिघली और भारत आने के लिए निमंत्रण मिला."
जुलाई 2001 में पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ भारत आए. भारत और पाकिस्तान ने वार्ता के लिए ऐतिहासिक शहर आगरा को चुना था. भारत की ओर से प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजयेपी समझौते की अगुवाई कर रहे थे.
इस समझौते में कथित तौर पर परवेज मुशर्रफ जम्मू-कश्मीर को लेकर चार बिंदुओं को लेकर आए थे.
1. कश्मीर की सीमाएं नहीं बदलेगी लेकिन नियंत्रण रेखा के दोनों ओर के लोगों के लिए पूरे क्षेत्र में मुक्त आवाजाही की अनुमति होनी चाहिए.
बता दें कि अगर भारत इस शर्त को मानता तो भारत को पाक अधिकृत कश्मीर पर पाकिस्तान का दावा मानना होता, हालांकि इस स्थिति में पाकिस्तान को भी जम्मू-कश्मीर के बाकी हिस्सों पर भारत की संप्रभुता स्वीकार करनी पड़ती. इस स्थिति में LoC ही अंतरराष्ट्रीय बॉर्डर माना जाता.
दरअसल, भारत का ये मानना था कि खुले बॉर्डर और शांति भरे माहौल में कश्मीरियों का भारत की ओर सहज झुकाव होता और भारत कश्मीरियों को मुख्यधारा में लाने में कामयाब होता. भारत का विशाल बाजार, करियर के खुले अवसर, नये मौके कश्मीरियों को पाकिस्तान के मुकाबले भारत को तरजीह देने की वजह बन जाती.
2. जम्मू कश्मीर के लोगों को अधिक स्वायत्तता मिलेगी, लेकिन कश्मीर को आजादी नहीं दी जाएगी.
इस प्रावधान के तहत मुशर्रफ कश्मीरियों के आत्म निर्णय के कथित अधिकार को भूल जाने को तैयार थे. ये पाकिस्तान की ओर से एक बड़ा कदम था. जम्मू-कश्मीर को ऑटोनामी तो मिल रही थी लेकिन आजादी नहीं मिल रही थी.
इधर, भारत के संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू-कश्मीर को स्वायत्तता की अनुमति है. इसलिए इस प्रावधान से भी वाजपेयी और केंद्र की सरकार को ज्यादा आपत्ति नहीं थी. लेकिन इस प्रस्ताव को स्वीकार करने पर बीजेपी को अपनी एक वैचारिक प्रतिबद्धता अनुच्छेद 370 की समाप्ति से हटना पड़ता.
3. भारत और पाकिस्तान दोनों को इस क्षेत्र में स्थायी शांति के लिए एलओसी से सैनिकों को वापस करना होगा. सैनिकों की वापसी की प्रक्रिया तय होनी थी.
इस प्रावधान के तहत भारत जम्मू-कश्मीर में स्थायी शांति के लिए भारत-पाकिस्तान दोनों ही इस क्षेत्र से अपने लाखों सैनिकों को वापस करने वाले थे.
4. कश्मीर में संयुक्त निगरानी की एक व्यवस्था विकसित हो. इसमें स्थानीय कश्मीरियों को भी शामिल किया जाए.
कश्मीर का समाधान दोनों सरकारों की मुट्ठी में था
माना जाता है कि ये समझौता तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को सिद्धांत रूप में स्वीकार भी था. लेकिन सवाल ये है कि फिर ये वार्ता फेल क्यों हो गई. इसके लिए पाकिस्तान और भारत दोनों के ही अपने अपने तर्क हैं.
पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री खुर्शीद महमूद कसूरी ने अपनी किताब 'नाइदर ए हॉक, नॉर ए डव' में किताब में लिखा है कि "कश्मीर का समाधान दोनों सरकारों की मुट्ठी में था".
आगरा में दोनों राष्ट्राध्यक्षों के बीच कई दौर की वार्ता हुई थी. दोनों नेताओं और उनके विदेश मंत्रियों के बीच लंबी बैठकें हुईं.
इंडिया टुडे कॉन्क्लेव में पाकिस्तान के राष्ट्रपति मुशर्रफ ने कहा था, "आगरा घोषणापत्र को मैंने, प्रधानमंत्री वाजपेयी, विदेश मंत्री जसवंत सिंह और मेरे विदेश मंत्री ने मिलकर तैयार किया था. हमने इस घोषणापत्र का एक-एक शब्द लिखा था. जब मैं इस घोषणापत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए जाने वाला था, हॉल तैयार था. कुछ ही घंटे पहले मेरे विदेश मंत्री ने कहा कि हम लोग हस्ताक्षर सेरेमनी में नहीं जा रहे हैं, क्योंकि उन्होंने इसे रिजेक्ट कर दिया है."
मुशर्रफ ने कहा था कि हमने इस घोषणापत्र को फिर से तैयार किया था. इसमें कुछ घंटे लगे, मेरा शेड्यूल बदल गया. लेकिन इसे भी खारिज कर दिया गया. मुझे बताया गया कि भारत की कैबिनेट ने इसे खारिज कर दिया है.
मुशर्रफ को फेस वैल्यू पर लेने का रिस्क नहीं उठा सकते थे वाजपेयी
सबसे पहले, वाजपेयी सरकार राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ को फेस वैल्यू पर लेने का रिस्क नहीं उठा सकती थी. क्योंकि ये मुशर्रफ ही थे जिन्होंने कुछ समय पहले ही करगिल को अंजाम दिया था. इसके अलावा भारत को उस मुशर्रफ की उस 'सरकार' पर भरोसा नहीं था जिसका वे दिल्ली में प्रतिनिधित्व कर रहे थे.
आगरा समिट के फेल होने की एक और वजह अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी का रवैया था. पाकिस्तान के विदेश मंत्री महमूद कसूरी ने अपनी किताब में लिखा है कि गिलानी पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के फोर प्वाइंट एजेंडा को बेकार बता रहे थे और इसकी आलोचना कर रहे थे. दरअसल मुशर्रफ के एजेंडे में कश्मीरियों के आत्म निर्णय के अधिकार की चर्चा नहीं थी इसलिए गिलानी इसकी आलोचना कर रहे थे.
दाऊद का नाम मीटिंग में आया और...
आगरा समिट फेल होने की एक वजह भारत का मोस्ट वांटेड आतंकी दाऊद इब्राहिम भी था. भारत इस ऐतिहासिक समझौते के साथ पाकिस्तान से दाऊद पर भी कुछ गारंटी लेना चाहता था.
तत्कालीन डिप्टी पीएम लाल कृष्ण आडवाणी अपनी जीवनी माई कंट्री माई लाइफ में लिखते हैं कि उन्होंने मुशर्रफ से कहा कि भारत ने अभी अभी तुर्की से प्रत्यर्पण संधि पर हस्ताक्षर किया है, भारत और पाकिस्तान को भी ऐसे समझौते पर साइन करना चाहिए. ताकि एक दूसरे देशों के गुनहगारों को कानून के मुताबिक सजा दी जा सके.
मुशर्रफ पहले तो आडवाणी की हां में हां मिला रहे थे. तभी आडवाणी ने कहा कि इस समझौते को साइन करने से पहले पाकिस्तान को दाऊद इब्राहिम को भारत को सौंप देना चाहिए. ये सुनते ही मुशर्रफ के चेहरे का रंग उड़ गया. बस यहीं से आगरा शिखर सम्मेलन दरकना शुरू हो गया.
भारत के रॉ चीफ एएस दुलत ने भी 2015 में एक इंटरव्यू में इस तथ्य की पुष्टि की है. उन्होंने कहा कि आडवाणी ने आगरा शिखर सम्मेलन की पूर्व संध्या पर पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के लिए आयोजित रात्रिभोज में दाऊद इब्राहिम के मुद्दे को उठाया. मुशर्रफ चौक गए और उन्होंने आडवाणी से कहा, 'हमें कम से कम आगरा तो जाने दें'. लेकिन आगरा में इस पर बात आगे बढ़े नहीं.
करगिल का असर नहीं समझ पा रहा था पाकिस्तान
भारत के पूर्व विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने भी आगरा शिखर सम्मेलन का जिक्र अपनी किताब में किया है. जसवंत सिंह का मानना है कि पाकिस्तानी नेतृत्व किसी भी तरह अपनी बात मनवाना चाहता था. जसवंत सिंह ने लिखा है, "पाकिस्तानी नेता इस बात को नहीं समझ पा रहे थे कि करगिल एपिसोड का पूरे माहौल पर क्या असर पड़ा था. वे इस तथ्य को नहीं समझ पा रहे थे कि वाजपेयी "नई शुरुआत" की पेशकश कर रहे थे.
जसवंत सिंह ने लिखा है कि बैठक में मुशर्रफ ये बताना चाहते थे कि पाकिस्तान से भारत में कोई आतंकवाद प्रायोजित नहीं हो रहा है. जसवंत सिंह के अनुसार ऐसा लगता है कि पाकिस्तानी नेता ''किसी भी तरह'' किसी समझौते पर पहुंचने की जल्दी में थे.
जब आगरा घोषणा पत्र का मसौदा वाजपेयी और उनके मंत्रिमंडल के चुनिंदा सदस्यों को दिखाया गया था, तो उनका सामूहिक दृष्टिकोण यह था कि इसमें "आतंकवाद पर पर्याप्त और स्पष्ट जोर देने की कमी है और पाकिस्तान की ओर से यह भी जोर देकर नहीं कहा जा रहा है कि यह बंद होना चाहिए. सवाल यह था कि सिर्फ उन्हीं चीजों पर आगे कैसे बढ़ा जा सकता था जो सिर्फ पाकिस्तान के मुद्दे थे.
मुशर्रफ ने भी अपनी किताब में उस समय को याद किया है जब वो आगरा छोड़ने से पहले वाजपेयी से मिलने पहुंचे थे. मुशर्रफ के अनुसार 'मैंने उनसे स्पष्ट रूप से कहा कि ऐसा लगता है कि हम दोनों के ऊपर कोई है जो हमें ओवररुल करना चाहता है. मैंने यह भी कहा कि आज हम दोनों को अपमानित किया गया है."
मुशर्रफ ने अपनी किताब में लिखा है कि मैंने उन्हें थैंक्स कहा और वहां से निकल गया.
इस के बाद मुशर्रफ की अजमेर जियारत यात्रा रद्द कर दी गई. इस तरह नौ घंटे की देरी हुई, जिसमें कई ड्राफ्ट का आदान-प्रदान हुआ. भारत और पाकिस्तान एक ऐसा दस्तावेज पेश करने में विफल रहे, जिस पर दोनों पक्ष हस्ताक्षर कर सकें.
आखिरकार बताया गया कि आगरा घोषणापत्र पर हस्ताक्षर नहीं हो रहा है और परवेज मुशर्रफ इस्लामाबाद निकल गए.