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'हिन्दू बच्चों ने मिठाई लेने से इनकार कर दिया...', 19 साल के आडवाणी ने 14 अगस्त 1947 को कराची में जो देखा!

14 अगस्त 1947 न सिर्फ आडवाणी बल्कि विभाजन की त्रासदी झेलने वाले लाखों लोगों के लिए भारत के मानचित्र पर खींची गई सबसे गहरी लकीर है. दरअसल कोई भी विस्थापन नहीं चाहता है. आडवाणी भी नहीं चाहते थे. वो कहते हैं कि उनका निर्णय भी कराची को नहीं छोड़ने का था, क्योंकि लाहौर में जहां विभाजन से पहले ही दंगे शुरू हो गए थे सिंध प्रांत में 14 अगस्त के बाद भी हिंसा नहीं हुई थी. पर गरम हवा कितनी देर रुकती? सितंबर में कराची में एक ब्लास्ट हुआ और आडवाणी को फैसला बदलना पड़ा.

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विभाजन के बाद दिल्ली में रिफ्यूजियों की बस्तियां (फोटो-AFP), एल के आडवाणी(फोटो-India today archive)
विभाजन के बाद दिल्ली में रिफ्यूजियों की बस्तियां (फोटो-AFP), एल के आडवाणी(फोटो-India today archive)

"मैंने छूरे से मारे गए आदमी के शव को देखा, थोड़ी दूर पर एक और लाश देखी और फिर तीसरी... मेरे लिए यह बहुत अजीब और तकलीफदेह था, क्योंकि मैंने पहली बार सड़कों पर लाशें पड़ी देखी थीं." मोटरसाइकिल से कराची शहर का चक्कर लगाने निकले 19 साल के नौजवान लाल कृष्ण आडवाणी ने जब पाकिस्तान की राजधानी कराची की सड़कों पर ये दृश्य देखा तो उन्हें काठ मार गया.ये सिंधी नौजवान अपने दिमाग में कतई सिंध की ऐसी तस्वीर नहीं बसाना चाहता था. 

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लेकिन इतिहास को बनते हुए कौन टाल सकता है? जैसा कि इतिहास 14 अगस्त 1947 को बना था. जब जिन्ना की साम्प्रदायिक राजनीति भारत को दो टुकड़ों में बांटने में सफल रही.जिसके बाद इस्लामिक गणराज्य पाकिस्तान बना जिसकी 78वीं जयंती आज ये मुल्क मना रहा है. 

'मेरी नियति कितनी अभिशप्त है'

आडवाणी अपनी जन्मभूमि कराची को पाकिस्तान के हिस्से में जाता हुआ देख अपनी जीवनी 'माई कंट्री, माई लाइफ' में चंद शब्दों में ही अपनी पीड़ा जाहिर करते हुए लिखते हैं 'मेरी नियति कितनी अभिशप्त है, मैं 15 अगस्त की खुशी भी नहीं मना सका, जबकि पिछले पांच साल से, जब से मैं स्वयंसेवक बना मैं इस दिन के आने के सिवा कोई और सपना नहीं देख रहा था.'

उस दिन कराची के अधिकांश हिन्दू मोहल्ले निराश और सूने ही रहे, हां कुछ दूरी पर जरूर आतिशबाजियां हो रही थी.

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ये नियति का ही अजीब विधान था कि प्रखर राष्ट्रवाद के पैरोकोर आडवाणी को लगभग 28 दिनों तक उस पाकिस्तान में रहना पड़ा जिसके बनने की विचारधारा के प्रबल विरोधी रहे. 

पाकिस्तान 14 अगस्त को बना और आडवाणी ने 12 सितंबर 1947 को कराची छोड़ दिया. वे रिफ्यूजी का तमगा और प्रवासन की पीड़ा लेकर सदा-सदा के लिए दिल्ली आ गए. लेखक विनय सीतापति अपनी किताब जुगलबंदी में लिखते हैं, "वे उन कुछ शरणार्थियों में से थे जिन्हें ब्रिटिश ओवरसीज एयरवेज कॉर्पोरेशन के प्रोपेलर विमान से लाया गया था. घर के छूटने और परिवार के बिखरने से आडवाणी को गहरी चोट पहुंची."

बंटवारे के बाद मुसलमानों को लेकर दिल्ली से कराची जाती एक ट्रेन (फोटो-Getty)

लाल कृष्ण आडवाणी तो 1947 में कराची छोड़ दिए लेकिन उनकी होने वाली पत्नी कमला जगतियानी का परिवार 1948 तक कराची में रहा. वो भी तब दंगाइयों ने उस इलाके में हिंसा शुरू कर दी. कमला जगतियानी ने अपनी एक सहेली को बताया है- मुझे याद है कि हमने 1948 में कराची छोड़ा और वह भी तब जब हमने अपने घर के आगे एक गुरुद्वारे को जलते देखा. कमला से आडवाणी का ब्याह 1965 में हुआ. 

हिन्दू बच्चों ने स्कूल में मिठाइयां लेने से इनकार कर दिया

तो 1927 में कराची में जन्मे आडवाणी 14 अगस्त 1947 को क्या कर रहे थे? उन दिनों संघ के सक्रिय सदस्य बन चुके आडवाणी उस दिन को कैसे याद करते हैं. यही सवाल मार्च 1997 में आडवाणी से अमेरिकी पत्रकार एंड्रयू व्हाइटहेड ने पूछा था. इस प्रश्न का जवाब देते आडवाणी विभाजन का दुख दिल खोलकर जाहिर कर देते हैं. उन्होंने कहा था, "हां, मैं उस दिन वहां था, लेकिन मेरे मन में कोई उत्साह नहीं था,भारत स्वतंत्र हुआ है इसकी कोई खुशी नहीं थी. और मुझे याद है कि कई हिन्दू बच्चों ने भी स्कूल में दी गई मिठाइयां लेने से इनकार कर दिया. हम वापस आ गए, यह कोई आजादी नहीं है, यह खुशी का दिन नहीं है."

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आडवाणी माई कंट्री-माई लाइफ में लिखते हैं- 'नहीं हम इन मिठाइयों को नहीं खाएंगे, कराची के स्कूलों में हिन्दू बच्चों ने साफ कह दिया, जब बच्चे इस तरह सामूहिक रूप में मिठाइयां खाने से मना कर दें तो समझिए कुछ बड़ी गड़बड़ है. लोगों के अंदर डर, आशंका अनिश्चितता का माहौल था. मैं उस दिन अपनी मोटरसाइकिल से एक के बाद एक के कई हिन्दू कॉलोनियों में गया, हर जगह ऐसा ही माहौल था. सबके मन में एक ही सवाल था अब क्या होगा?'

बता दें कि 14 अगस्त को जिन्ना कराची में ही थे और कराची की वर्तमान सिंध असेंबली बिल्डिंग में पाकिस्तान की संविधान सभा को संबोधित करते हुए पाकिस्तान के अलग देश बनने का ऐलान करने वाले थे. 

क्या आप जिन्ना को देखने नहीं गए?

एंड्रयू व्हाइटहेड ने इस बाबत अपने इंटरव्यू के दौरान आडवाणी का मन कुरेदने की कोशिश की है. उन्होंने आडवाणी से पूछा कि क्या आप 14 अगस्त को मोहम्मद अली जिन्ना को देखने नहीं गए?  

जवाब में आडवाणी कहते हैं, "नहीं, नहीं मैं कहीं नहीं गया, मैं किसी कार्यक्रम को देखने नहीं गया, कहीं नहीं. और मुझे लगता है कि ज्यादातर हिन्दुओं की ऐसी ही प्रतिक्रिया थी." आगे एंड्रयू व्हाइटहेड ने उनसे पूछा कि क्या आपने जिन्ना को कभी देखा ही नहीं. इसका उत्तर देते हुए आडवाणी कहते हैं कि उन्होंने आमने-सामने जिन्ना को कभी नहीं देखा है. जो कुछ भी देखा है तस्वीरों और पोस्टरों में.

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14 अगस्त से मात्र 9 दिन पहले कराची में RSS का पथ संचलन

गौरतलब है कि मात्र 9 दिन पहले यानी कि 5 अगस्त को कराची महानगर के संघ कार्यवाह लाल कृष्ण आडवाणी ने इस नगर में संघ की शक्ति का प्रदर्शन किया था. हुआ यूं कि नए बन रहे पाकिस्तान में माहौल का जायजा लेने के लिए आरएसएस के सर संघचालक गोलवलकर कराची आए. 

शरणार्थियों की सेवा (फोटो-Getty image)

दरअसल संघ प्रमुख की ये कराची यात्रा विभाजन की आशंका से घबराये हुए हिन्दुओं को ढाढ़स दिलाने के लिए हुई थी. इस यात्रा का वर्णन करते हुए विनय सीतापति जुगलबंदी में लिखते हैं, "रेलवे स्टेशन पर गोलवलकर को लेने के लिए आडवाणी पहुंचे, वे उन एक लाख घबराये हुए हिन्दुओं में से थे जो आरएसएस प्रमुख को सुनने के लिए जमा हुए थे, आडवाणी के अंतर्गत दस हजार वर्दीधारी आरएसएस सदस्य थे."

पाकिस्तान के बनने से मात्र 9 दिन पहले 5 अगस्त 1947 को उसकी भावी राजधानी कराची में शाम पांच बजे संघ का भव्य पथ संचलन हुआ और उस विषाक्त माहौल में शांतिपूर्वक हुआ.  

आडवाणी यहां पंजाब और सिंध की फिजा में अंतर को रेखांकित करते हैं. पंजाब तो विभाजन से पहले से ही जल रहा था लेकिन 15 अगस्त तक तो सिंध में नफरत और वैमनस्य ढका-छिपा ही था. 

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आडवाणी के अनुसार 1947 के शुरुआत में ही लगने लगा था. चीजें उस दिशा में बढ़ रही थीं, और अप्रैल, मई के महीने में यह स्पष्ट हो गया कि विभाजन तय है. हमें इसके बारे में बहुत बुरा लगा, बहुत दुख हुआ, खासकर यह कि सिंध पाकिस्तान का हिस्सा होना चाहिए. इससे भी ज्यादा कि भारत का विभाजन होना चाहिए. क्योंकि हम में से अधिकांश के लिए ये एक ऐसी अवधारणा थी जिसे हम आसानी से स्वीकार ही नहीं कर पा रहे थे.

हम कराची नहीं छोड़ना चाहते थे 

उन्होंने एंड्रयू व्हाइटफील्ड को बताया है, "पीछे मुड़कर देखता हूं तो मैं कहूंगा कि एक अनिश्चितता की भावना थी.  हमारा निर्णय था कि हम कराची में ही रहेंगे, क्योंकि पंजाब के विपरीत जहां विभाजन से पहले ही दंगे भड़क उठे, सिंध में विभाजन के बाद भी कोई दंगे नहीं हुए. दंगे जनवरी 1948 में हुए. यहां पंजाब,या उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांतों या कहें पूर्वी बंगाल या बंगाल में जैसा कुछ देखा गया, वैसा कुछ हमने नहीं देखा. इसलिए जब विभाजन होने वाला था, तो एक अनिश्चितता की भावना थी कि क्या होने वाला है? लेकिन मूल रूप से हम सोचते थे हम क्यों जाएं? हम रहेंगे, हम यही रहेंगे. यही हमारी भावना थी."

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कराची में रिफ्यूजियों की एक बस्तियां (फोटो- getty image)

लेकिन कराची में एक धमाका हुआ इसके बाद पाकिस्तान में बने रहने की उनकी सोच बदल गई. आडवाणी व्हाइटफील्ड को बताते हैं- 'शायद सिंध की पूरी हिंदू आबादी के विचार में तब बदलाव हुआ जब सितंबर में कराची में एक विस्फोट हुआ और उस विस्फोट के लिए आरएसएस को गलत तरीके से जिम्मेदार ठहराया गया. बता दें कि आडवाणी तब संघ के सदस्य बन चुके थे. इस घटना पर पाकिस्तान के अखबार डॉन ने हेडिंग लगाई थी-  ‘RSS Plot to Blow Up Pakistan Unearthed’ यानी कि 'आरएसएस का पाकिस्तान को उड़ाने की साजिश उजागर'. इस घटना ने तय कर दिया था कि आडवाणी अब अपनी जन्मभूमि छोड़ने वाले हैं. इस घटना के कुछ ही दिन बाद 12 सितंबर 1947 को आडवाणी ने कराची से दिल्ली की फ्लाइट पकड़ ली. उस समय आडवाणी 20 बरस के भी नहीं हुए थे. 

जिन्ना की साम्प्रदायिकता की परिणति

जिन्ना 7 अगस्त 1947 को ही दिल्ली से कराची आ गए थे. एयरपोर्ट पर नायकों की तरह उनका स्वागत हुआ. इतिहासकार बिपिन चंद्र अपनी किताब 'भारत का स्वतंत्रता संघर्ष' में साम्प्रदायिकता की राजनीति की पोल खोलते हुए लिखते हैं कि जिन्ना के उदाहरण से यह साफ हो जाता है कि साम्प्रदायिकता का रास्ता एक ढलानवाला रास्ता होता है. अगर इस राह पर अवरोध के विशेष प्रयत्न न किए जाएं तो आदमी उस पर नीचे फिसलता ही जाता है. 

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बिपिन चंद्र के अनुसार 'साम्प्रदायिक विचारधारा की मूल बातों को एक बार स्वीकार कर लिया जाए तो फिर व्यक्ति की अपनी इच्छाएं चाहे जो वो उस विचारधारा द्वारा संचालित होने लगता है. अन्यथा कोई वजह नहीं थी कि 1906 में भारत लौटने वाला बैरिस्टर जिन्ना, जिसे सरोजनी नायडू ने हिन्दू-मुस्लिम एकता का राजदूत कहा था वो पाकिस्तान की मांग करने लगा और ऐसी भाषा बोलने लगा जो फासीवादी साम्प्रदायिकता के लिए ही संभव थी.'

विभाजन की त्रासदी

बंटवारे की इस विभीषिका ने भारत-पाकिस्तान में मानवीय पीड़ा का अंतहीन सिलसिला शुरू कर दिया. इसी दर्द को याद करते हुए भारत आज विभाजन विभीषिका दिवस मनाता है. बंटवारे की इस प्रक्रिया में लगभग 1.5 करोड़ हिन्दुओं, सिखों और मुसलमानों को अपना घर छोड़ पलायन करना पड़ा. एक करोड़ जनता बेघर हुई. पश्चिमी पंजाब में हिंदुओं और सिखों को 27 लाख हेक्टेयर जमीन छोड़कर आना पड़ा. पूर्वी पंजाब में मुसलमानों को 19 लाख हेक्टेयर भूमि से हाथ धोना पड़ा. यौन हिंसा और अपहरण की तादाद दोनों ओर से ही हजारों में थी. जबकि मरने वालों की संख्या 10 लाख से ज्यादा थी.

 आज 77 साल बाद भी जब बंटवारे में बिछड़े लोगों के मिलन की कहानियां सामने आती है तो उस रोमांच को महसूस कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं.

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