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वाराणसी में ज्ञानवापी और मथुरा में ईदगाह मस्जिद के बाद अब राजधानी दिल्ली में कुतुब मीनार को लेकर विवाद गहराता जा रहा है. 24 मई को दिल्ली के साकेत कोर्ट में कुव्वत उल इस्लाम मस्जिद मामले में सुनवाई हुई. हिन्दू पक्ष दावा कर रहा है कि यहां देवी-देवताओं की मूर्तियां तोड़कर कुव्वत उल इस्लाम मस्जिद बनाई गई थी. हिन्दू पक्ष ने इससे पहले अदालत में सुनवाई के दौरान कई सारे साक्ष्य भी पेश किए थे.
विवाद को समझने के लिए आज तक की टीम कुतुब मीनार परिसर के अंदर पहुंची और साथ ही हमने ग्राउंड जीरो से ही इतिहासकार दिनेश कपूर से भी बातचीत की.
बता दें कि कुतुब मीनार परिसर में कुल दो मस्जिद हैं. पहली मुगल मस्जिद (जिस पर फिलहाल नमाज पढ़ने को लेकर रोक लगाई गई है) और दूसरी- कुव्वत उल इस्लाम मस्जिद. इस मस्जिद में देवी-देवताओं की मूर्तियां होने का दावा किया गया है. हिन्दू पक्ष यहां पर पूजा का अधिकार चाहता है.
कुव्वत उल इस्लाम मस्जिद का प्रवेश द्वार
कुव्वत उल इस्लाम मस्जिद के प्रवेश द्वार पर ही आपको दाईं और बाईं दीवारों पर हिन्दू देवी देवताओं की मूर्तियों के अवशेष नजर आएंगे. इनके आकार और बनावट ठीक वैसी ही नजर आती है जैसे की एक मंदिर की दीवार पर होती है. इतिहासकार दिनेश कपूर बताते हैं कि कुतुब मीनार का निर्माण 1199 से 1220 के दौरान कराया गया था. कुतुब मीनार को बनाने की शुरुआत कुतुबुद्दीन-ऐबक ने की थी और उसके उत्तराधिकारी इल्तुतमिश ने इसे पूरा कराया था. प्रवेश द्वार पर बने चिह्न यही दर्शाते हैं कि मंदिरों की दीवारों को पूरी तरह से नहीं तोड़ा गया बल्कि उसी में सुधार कार्य करते हुए इस्लामिक इमारतें तैयार की गई. इसके प्रवेश द्वार के सिरे पर ही लिखा गया है कि 27 हिन्दू मंदिरों को तोड़कर इसका निमार्ण किया गया है.
खंभों में हिन्दू संस्कृति के निशान
प्रवेश द्वार के भीतर आते ही आपको कई खंभे ऐसे नज़र आएंगे जिस पर नक्काशी की गई है. इस नक्काशी में कमल का फूल, गौमाता, देवी-देवता, घंटी और स्वस्तिक जैसे निशान दिखाई पडेंगे. इतिहासकार दिनेश कपूर बताते हैं कि कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद में सदियों पुराने मंदिरों का भी एक बड़ा हिस्सा शामिल है. देवी-देवताओं की मूर्तियां और मंदिर की वास्तुकला अभी भी आंगन के चारों ओर के खंभों और दीवारों पर स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहे हैं. इतिहासकार दिनेश कपूर ने बताया कि इनमें हिंदू देवताओं और गणेश, विष्णु और यक्ष समेत देवताओं की स्पष्ट तस्वीरें हैं. ये खंभे बताते हैं कि मुस्लिम शासकों ने मदिरों के अवशेषों को छिपाने के लिए खंभों पर मोटा प्लास्टर चढ़ा दिया था. जब प्लास्टर उतरता गया तो सच्चाई सामने आती गई. इन खंभों के ठीक सामने की तरफ यानी उपर की ओर आपको मंडपम् भी नजर आएगा. इस मंडपम् को उन्होंने इस्लामिक गु्ंबद की तरह बानाने की कोशिश की लेकिन वो पूरी तरह से उसे तब्दील नहीं कर पाए.
लौह स्तंभ या विष्णु स्तंभ
कुतुब मीनार परिसर में स्थित लौह स्तंभ भी विवादों में है. कहा जा रहा है कि यह लौह स्तंभ ना होकर एक विष्णु स्तंभ है. इतिहासकार दिनेश कपूर बताते हैं कि इसे विष्णु ध्वज के नाम से जाना जाता था. इस स्तंभ की लंबाई 23.8 फीट है, जिनमें से 3.8 फीट स्तंभ जमीन के अंदर है. इसका वजन 600 किलो से ज्यादा है. इतिहास के अनुसार इसका निर्माण चंद्रगुप्त द्वितीय यानि राजा विक्रमादित्य ने करवाया. इस स्तंभ पर संस्कृत में जो लेख खुदा हुआ है उसमें यह लिखा गया है कि इसे ध्वज स्तंभ के रूप में खड़ा किया गया था.
इस स्तंभ पर खुदे अभिलेख में इसे ताकतवर राजा चंद्र, जोकि भगवान विष्णु के भक्त थे, द्वारा 'ध्वज स्तंभ' के रूप में 'विष्णुपद की पहाड़ी' पर बनाए जाने का जिक्र है. इस ताकतवर राजा की पहचान आमतौर पर गुप्त साम्राज्य के चंद्रगुप्त द्वितीय के तौर पर की जाती है. लगभग 1600 सालों बाद भी इस लौह स्तंभ में जंग नहीं लगी है, जो कि प्राचीन भारत की इंजीनियरिंग कौशल का प्रमाण है. राजा विक्रमादित्य भगवान विष्णु के भक्त थे और अनुमान है कि इसे चौथी शताब्दी में बनाया गया था. खास बात यह है कि इसके उपर गरूड़ की मूर्ति भी हुआ करती थी जो विष्णु के ध्वज के रूप में विष्णु मंदिर का संकेत देने के लिए उस पर लगाई गई थी. माना जाता है कि मथुरा में विष्णु पहाड़ी पर निर्मित भगवान विष्णु के मंदिर के सामने इसे खड़ा किया गया था, जिसे 1050 ईस्वी में तोमर वंश के राजा और दिल्ली के संस्थापक अनंगपाल ने दिल्ली लाया.
गुंबद जैसे तीन बनावट
परिसर के भीतर की आपको मस्जिद के गुंबद जैसे आकार की बनावट नजर आएगी. उपरी सतह में देखने पर यह गुंबद जैसे लगते हैं लेकिन वास्तविकता में यह मदिर के मंडपम हैं. देखने पर लगता है कि मंडपम को तोडकर उसे इस्लामिक डोम में बदलने की नाकामयाब कोशिश की हई और इसे शंकुआकार दे दिया गया. कोने के गुंबद पर भी हिंदू संस्कृति की झलक साफ दिख रही है.
इतिहासकार दिनेश कपूर बताते हैं कि 11वीं शताब्दी में कुतुब मीनार की पहली मंजिल पृथ्वीराज चौहान ने बनाई थी ताकि रानियां सूर्य को जल चढा सके. इसके बाद 1102 कुतुबद्दीन ऐबक ने पहली मंजिल को दोबारा बनाया. इसके बाद जब इल्तुतमिश दिल्ली सल्तनत का बादशाह बना तो उसने इस मीनार की तीन और मंज़िलों का निर्माण कराया. बाद में जब फिरोजशाह तुगलक दिल्ली का बादशाह बना तो उसने भी 15वीं शताब्दी में इसकी पांचवीं और आखिरी मंजिल का निर्माण कराया. 1814 में इसके प्रभावित हिस्सों को ब्रिटिश-इंडियन आर्मी के मेजर रॉबर्ट स्मिथ ने इसका सौंदर्यीकरण का काम करवाया था.
इतिहासकारों की अलग-अलग राय
कुतुब मीनार को लेकर पूर्व एएसआई डायरेक्टर धमर्वीर शर्मा ने कहा जा रहा है कि यह एक सूर्य स्तंभ है जिसे 5वीं शताब्दी में बनाया गया था. कुछ इतिहासकार मानते हैं कि इसे सूर्य और नक्षत्रों का अध्ययन करने के लिए बनाया गया था, इसी वजह से कुतुब मीनार में 25 इंच का झुकाव है और ये मीनार 73 मीटर ऊंची है. दरअसल जब 21 जून को जब सूर्य आकाश में जगह बदलता है तो भी कुतुब मीनार की उस जगह पर आधे घंटे तक छाया नहीं पड़ती. यह एक वैज्ञानिक तथ्य है.
वजू खाने के पास भगवान गणेश की मूर्ति
मस्जिद परिसर के अन्दर भगवान गणेश की मूर्ति रखी हैं. यह मूर्ति ऐसी जगह रखी गई है, जहां वजू का पानी बहता था. यह मूर्ति जाली में बंद है. कुछ संगठनों द्वारा मांग की जा रही है कि इस मूर्ति को यहां से हटाकर नेशनल म्यूजियम ले जाया जाए.
अलाई मीनार
कुतुबमीनार के उत्तर में अधूरी बनी इस मीनार का निर्माण अलाउद्दीन खिलजी ने 1312 में शुरू करवाया था. इस मीनार की ऊंचाई 24.5 मीटर है. अलाउद्दीन ने कुव्वतुल-उल-इस्लाम मस्जिद के आकार को दोगुना करवाया. वह मस्जिद के अनुपात में कुतुबमीनार से दो गुनी ऊंची मीनार का निर्माण कराना चाहता था. लेकिन मुश्किल से मीनार की पहली मंजिल ही बन सकी. खास बात यह है कि हर मुगल इमारत एक सतह पर होती है. और पश्चिम की तरफ इसका सामने का हिस्सा था और कुतुब मीनार दक्षिण की तरफ की दिशा में है. यह इस बात को स्पष्ट करती है कि कुतुब मीनार की पहली मंजिल का निर्माण ऐबक द्वारा नहीं किया गया था.
कुतुब मीनार परिसर में खुदाई करने वाले डी एन डिमरी की राय
इस मुद्दे पर आज तक ने आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के पूर्व संयुक्त महानिदेशक डी एन डिमरी से बात की. बता दें कि डीएन डिमरी ASI की उस टीम का हिस्सा थे जिस टीम ने कुतुब मीनार परिसर में खुदाई की थी.
डी एन डिमरी ने बताया कि कुव्वत उल इस्लाम मस्जिद का इतिहास उसके बनने से पहले का है. यहां पर पहले कई हिंदू मंदिरों के निर्माण हुए थे. 11वीं शताब्दी के तोमर राजा सूरज कुंड के इलाके से कुतुब के क्षेत्र में आ गए थे. ये इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि कुतुब का क्षेत्र और मस्जिद पहले से ही आबादी वाला इलाका था.
उन्होंने कहा कि कुव्वत उल इस्लाम मस्जिद के दीवारों पर जो कारीगरी की गई है वो दर्शाती है कि यह सनातन हिंदू धर्म से संबंधित है. यहां पर पहले विष्णु की प्रतिमा थी. जो 9 वीं या 10वीं सदी की प्रतीत होती है. इसे अब कुतुब परिसर से हटा दिया है.
पुरातत्वविद डी एन डिमरी ने मस्जिद को बनाने में मंदिर के अवशेषों का इस्तमाल हुआ है. लौह स्तम्भ को कहीं बाहर से लाया गया है. यह हिंदू आस्था से जुड़ा है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि यह एक गरुड़ स्तंभ कहा जाता है. विष्णु स्तंभ हिंदू स्तम्भ है. इस पर गरुड़ की मूर्ति थी इस बात में भी पूरी सच्चाई है. इस स्तंभ की कल्पना ही तभी की जा सकती है जब इस पर गरुड़ की मूर्ति रही होगी. बिना गरुड़ के इसकी कहानी पूरी नहीं हो सकती है. उन्होंने कहा कि इसके पास एक परनाला है. परनाला हर हिंदू मंदिर में जलाभिषेक के पानी के लिए बनाया जाता है. निश्चित रूप से वह छोटी नाला या परनाला है. उन्होंने कहा कि उनके हिसाब से कुतुब मीनार के तथ्य यही कहते हैं कि कुतुब मीनार का निर्माण ऐबक से पहले नहीं किया गया था.