साल 2016 में भारत और फ्रांस के बीच हुई राफेल डील (Rafale Deal) देश में फिर सियासी पारा बढ़ा रही है. कांग्रेस मोदी सरकार की चुप्पी पर निशाना साध रही है, वहीं माकपा ने तो प्रधानमंत्री की भूमिका की जेपीसी जांच की मांग उठा दी है. भारत में राफेल को लेकर ताजा सियासी बवाल शनिवार को शुरू हुआ.
दरअसल, राफेल सौदे में कथित भ्रष्टाचार और लाभ पहुंचाने के मामले में फ्रांस में जांच (Rafale Deal Investigation) शुरू की गई है. इतना ही नहीं अब मामले में फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद और मौजूदा राष्ट्रपति इमैनुअल मैंक्रों से भी पूछताछ हो सकती है. जब राफेल डील साइन हुई थी तब फ्रांस्वा ओलांद फ्रांस के राष्ट्रपति थे और मैंक्रों वित्त मंत्री हुआ करते थे.
फ्रांस में क्यों दिया गया राफेल सौदे की जांच का आदेश
दरअसल, फ्रांसीसी पत्रकार यान फिलीपीन की एक रिपोर्ट (mediapart rafale report) में राफेल सौदे में कथित अनियमितताओं का दावा किया गया था. रिपोर्ट के बाद शेरपा (Sherpa NGO) ने शिकायत दर्ज करवाई थी. यह NGO वित्त फ्रॉड का शिकार हुए लोगों की मदद करता है.
रिपोर्ट में दावा किया गया था कि डसॉल्ट-रिलायंस के इस जाइंट वेंचर के लिए डसॉल्ट एविएशन 94 फीसदी हिस्सेदारी लगा रहा था, वहीं रिलायंस सिर्फ 51 फीसदी. आगे दावा किया गया था कि भारत सरकार द्वारा फाइटर जेट खरीदने की बात सार्वजनिक करने से पहले ही डसॉल्ट एविएशन को पहले से पता था कि भारत को किस तरह के फाइटर जेट चाहिए. इसके अलावा रिपोर्ट में सुशेन गुप्ता (Sushen Gupta) का भी नाम है. जो कि अगस्ता वेस्टलैंड VVIP चॉपर डील घोटाले में पकड़ा गया था. दावा किया गया है कि उसकी कंपनी से भी कुछ 'संदिग्ध लेनदेन' हुआ था, कहा गया था कि यह पैसा उसे राफेल संबंधित कागजात मंत्रालय से निकालने के लिए डसॉल्ट ने दिया था.
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इसके बाद फ्रांस के राष्ट्रीय अभियोजक कार्यालय (पीएनएफ) ने एक जज को इस डील की जांच के लिए नियुक्त किया है. ऐसे न्यायिक जांच का आदेश फ्रांस में आमतौर पर नहीं दिया जाता है, इसलिए यह मुद्दा बड़ा भी बना. ऐसे जांच के आदेश मिलने पर जज के पास कुछ विशेष अधिकार होते हैं, जिसमें उसे एक्शन लेने, निर्देश देने से पहले दूसरी अथॉरिटीज से रजामंदी आदि नहीं लेनी होती. अब अगर न्यायिक जांच में भी सबूत सही पाए जाते हैं तो फिर आगे ट्रायल होगा.
क्या है राफेल सौदा, क्या था विवाद
साल 2016 में हुई राफेल डील में 36 राफेल विमानों का सौदा हुआ था. यह डील फ्रांसीसी एयरोस्पेस प्रमुख डसॉल्ट एविएशन के साथ 59 हजार करोड़ रुपये में की गई थी. बता दें कि इससे पहले यूपीए सरकार पिछले सात सालों से इस डील को करने की कोशिश में थी. इसमें 126 मध्यम बहु-भूमिका लड़ाकू विमान (MMRCA) खरीदे जाने थे, लेकिन डील हो नहीं पाई थी.
राफेल सौदे पर सवाल कांग्रेस पार्टी ने उठाए थे. पहला आरोप था कि सरकार ने राफेल विमानों को बहुत महंगा खरीदा है. दूसरा आरोप ऑफसेट कॉन्ट्रैक्ट को लेकर था. इसमें इस बात पर सवाल उठाए गए थे कि यह कॉन्ट्रैक्ट पब्लिक सेक्टर के हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड को ना देकर निजी कंपनी रिलायंस डिफेंस को क्यों दिया गया.
कांग्रेस, उसके नेताओं की तरफ से कई मौकों पर यह आरोप लगाया गया कि एनडीए सरकार ने 526 करोड़ रुपये का विमान 1670 करोड़ रुपये में खरीदा है. दूसरी तरफ एनडीए सरकार सफाई देती रही कि कांग्रेस जिस राफेल विमान का सौदा कर रही थी, यह उससे अडवांस है, इसलिए कीमत बढ़ी है.
सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दी थीं राफेल डील पर सवाल उठाती याचिकाएं
राफेल डील में कथित भ्रष्टाचार का मामला सुप्रीम कोर्ट भी पहुंचा था. कोर्ट से गुजारिश की गई थी कि वह राफेल डील की जांच के आदेश दे. इसपर कोर्ट ने कहा था कि FIR दर्ज करने को कहने, या जांच के आदेश देने का कोई ठोस सबूत नहीं है.