मैं आस्था हूं. समय के न जाने कितने दौर पहले जन्मी, शायद आग से भी पहले और पहिए के अस्तित्व में आ जाने के भी पूर्व. सभ्यताओं के पनपने-बनने और मिटने से भी बहुत पहले मैंने आदमी के मन में अपनी जगह बना ली थी. फिर चाहे वो आदमी बेबिलोनिया का रहा हो, मैसोपोटामिया का हो, हड़प्पा का हो, सिंधु के किनारे की बसावट वाला रहा हो, या नील नदी-अमेजन घाटी, सागरों-महासागरों के तटवर्ती इलाकों वाला रहा हो. आदमी जहां भी रहा हो, मैं यानी आस्था उसकी कदम दर कदम, समय दर समय, पल दर पल साथी रही. मैं वह आस्था ही थी जो जम्बूद्वीपे, भरत खंडे, आर्यावर्ते, भारत देशे में युगों-युगों से व्याप्त रही और समय का चक्का जैसे-जैसे घूमता रहा, मैं साथ-साथ चलती रही है.
हर देखने वाले की आंख में आस्था
आज मैं अयोध्या में हूं. आज ही नहीं, कहना तो ये चाहिए कि मैं बीते कई दिनों से वहीं हूं, लेकिन आज खुले मन से स्वीकार कर रही हूं कि मैं मौजूद हूं. ये स्वीकार करते हुए मुझे साक्षात श्रीकृष्ण नजर आ रहे हैं. वही श्रीकृष्ण जो कुरुक्षेत्र के मैदान में खड़े हैं. युद्ध शुरू ही होने वाला है और अर्जुन मारे शोक के रथ के पीछे सिर पर हाथ धरे बैठ गया है. उस अर्जुन का मोह नाश करते हुए भगवान उससे कह रहे हैं कि तू हर जगह मुझे ही देख. वृक्षों में पीपल मैं हूं, नदियों में गंगा मैं हूं, वेदों में सामवेद मैं हूं, धनुषों में सारंग मैं हूं, चक्र हूं तो सुदर्शन और शंख हूं तो पांचजन्य मैं हूं. मैं ऋतुओं में वसंत हूं, नक्षत्रों में सूर्य हूं, माताओं में धरती हूं और पिता हूं तो आकाश मैं हूं.
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प्रतीक्षा से प्रतिष्ठा तक आस्था
श्रीकृष्ण की कही ये बातें मेरे मन में बार-बार गूंज रही हैं. क्योंकि मैं अयोध्या में हूं और आज जब शताब्दियों के संघर्ष के बाद रामलला फिर से इस गर्भगृह में स्थापित हो चुके हैं तो उस श्रीविग्रह के दर्शन करने से जो भावना उमड़ आई है, वो भावना मैं हूं. मैं कौन... वही आस्था... जो इस राममंदिर के प्रांगण में है. इस राम मंदिर की दिव्यता-भव्यता को निहार रही आंखों में है. शताब्दियों के इंतजार में है. उस दौर से चली इस दौर में अंजाम तक पहुंची क्रांति और इसके संघर्ष में है. कोठारी बंधुओं की शहादत में है. रामलला के टेंट से लेकर अस्थायी निवास तक और अब नव निर्मित मंदिर के गर्भगृह में है.
पूजा में आस्था-प्रसाद में आस्था
मैं सिर्फ इतने तक ही सीमित नहीं हूं. मैं देश से लेकर विदेशों के कोने-कोने से यहां पहुंचे श्रद्धालुओं में हूं. मैं नेपाल के जनकपुर में हूं. बिहार के मिथिला में हूं. वहां से सीताजी के लिए आए भार में हूं. छत्तीसगढ़ से आए चावलों में हूं. केरल-कर्नाटक, तमिलनाडु से आई भेंटों में हूं. गंगासागर से आए गंगाजल में हूं. कैलाश से आए आचमन के नीर में हूं. सरयू तीर में हूं. प्रसाद की खीर में हूं. पैदल चली आ रही भीड़ में हूं. जो पहुंच पाए उनके धीर में हूं और जो घरों में रहे उनके मन अधीर में हूं.
हर ओर मन रहे उत्सव में आस्था
मैं रामलला पर चढ़ने वाले पुष्पों में हूं. तीर्थों के जल से होने वाले अभिषेक में हूं. आरती की थाल भी मैं हूं और उसकी लौ भी हूं. मैं ही दीपक हूं और उसकी बाती भी मैं हूं. बंट रहा प्रसाद भी मैं हूं और उन्हें ग्रहण करने वाले हाथ भी मैं हूं. गगन तक गूंज रही जय-जयकार भी मैं हूं और कानों तक पहुंच रही आवाज भी मैं हूं. मंदिर में भी मैं हूं, मंदिर के बाहर भी मैं ही हूं. मैं अयोध्या में भी हूं और अयोध्या के बाहर भी हूं.
प्राण प्रतिष्ठा की आयोजक भी मैं हूं और इसके निमित्त हुए आयोजन भी मैं हूं. हाइराइज सोसायटी में मन रहा उत्सव भी मैं हूं और इस उत्सव का आनंद भी मैं हूं. मेरे रामजी आए हैं, कहने वाली किलकारी भी मैं हूं और पिताओं के कंधों पर उचक कर नाच रहा बचपन भी मैं हूं. कहीं राम, कहीं हनुमान, कहीं सीता कहीं, लक्ष्मण में सजा हुआ रूप भी मैं हूं. पल-पल बदल रहा स्वरूप भी मैं हूं. स्तुति मैं हूं, भजन मैं हूं, हवन में होम और आरती का गीत मैं हूं.
मेरे राम आए हैं, और उनके आने से विभोर मैं हूं. मैं आस्था हूं और भक्तों के भाव में जिंदा मैं हूं.