क्या देश की सड़कें धर्मनिरपेक्ष या सेक्युलर हैं? क्या किसी इलाके में धर्म विशेष के धार्मिक उत्सव या जुलूस पर इसलिए प्रतिबंध लगाया जा सकता है कि उस इलाके में अधिकतर आबादी दूसरे धार्मिक समुदाय से है और उन्हें ऐसे उत्सव या जुलूस निकाले जाने पर आपत्ति है?
ऐसे सवालों पर मद्रास हाईकोर्ट ने बड़ा अहम फैसला दिया है. ये फैसला 2015 के एक मामले पर दिया गया. दरअसल, केंद्रीय तमिलनाडु के पेराम्बलुर जिले के वी कालाथुर गांव के मुस्लिम समुदाय ने मुस्लिम बहुल इलाके से अक्टूबर 2015 में हिन्दू मंदिर के तीन दिन के उत्सव और जुलूस निकालने पर आपत्ति जताई थी. इस मुद्दे पर शांति कमेटियों से कोई समाधान नहीं निकल सका तो ये मामला हाईकोर्ट पहुंचा. तब हाईकोर्ट के एक सिंगल जज ने कई तरह की बंदिशों के साथ जुलूस निकालने की अनुमति दी. जो बंदिशें लगाई गईं उनमें हल्दी वाले पानी के छिड़काव पर रोक लगाना भी शामिल था.
इस से दोनों पक्ष ही संतुष्ट नहीं हुए और उन्होंने हाईकोर्ट में मौजूदा अपीलें कीं. अब मद्रास हाईकोर्ट में जस्टिस एन किरुबाकरन और जस्टिस पी वेलमुरुगन की बेंच ने इस मामले में अहम फैसला सुनाया है. बेंच ने कहा है कि सड़कें धर्मनिरपेक्ष होती हैं, और किसी मंदिर के जुलूस को प्रतिबंधित या सीमित सिर्फ इस आधार पर नहीं किया जा सकता कि क्षेत्र के किसी और धार्मिक ग्रुप को इससे आपत्ति है.
कोर्ट ने आगे स्पष्ट करते हुए कहा, डिस्ट्रिक्ट म्युनिसिपल्टीज एक्ट की धारा 180-ए के मुताबिक सड़कें और गलियां, जो सेक्युलर होती हैं, उनका इस्तेमाल धर्म, जाति, पंथ के भेद के बिना सभी लोगों की ओर से इस्तेमाल किया जाना चाहिए. भारत धर्मनिरपेक्ष देश है. किसी खास क्षेत्र में अगर कोई धार्मिक ग्रुप बहुलता में रहता है, तो ये एक कारण नहीं हो सकता कि किसी और धार्मिक उत्सव इजाजत न दी जाए.
कोर्ट की ओर से ये भी कहा गया कि सड़कों पर धार्मिक उत्सव या जुलूस निकालने का सभी धर्म के लोगों को अधिकार है लेकिन ये ध्यान रखते हुए कि दूसरों की धार्मिक भावनाओं की अवमानना न हो और न ही अन्य धार्मिक ग्रुप के खिलाफ नारे लगाए जाएं, जिससे भावनाएं आहत हों और कानून- व्यवस्था प्रभावित हो.
कोर्ट ने कहा कि अगर निजी प्रतिवादी के इस तर्क को मान लिया जाए तो ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाएगी जिसमें भारत के अधिकतर इलाकों में अल्पसंख्यक समुदाय कोई धार्मिक उत्सव या जुलूस नहीं निकाल सकेंगे.
बेंच ने इंगित किया कि वर्ष 2011 तक मंदिर का ऐसा ही जुलूस बिना किसी बंदिश के निकलता रहा था. इस पर 2012 से ही आपत्ति जताई जाने लगीं.
बेंच ने कहा, “अगर धार्मिक असहिष्णुता को इजाजत दी गई तो ये एक सेक्युलर देश के लिए उचित नहीं होगा. किसी भी धार्मिक ग्रुप की ओर से किसी भी तरह की असहिष्णुता दिखाई जाती है तो उसे सीमित और प्रतिबंधित किया जाना चाहिए. इस मामले में एक खास धार्मिक ग्रुप की ओर से दशकों से चलते आ रहे उत्सव पर आपत्ति जताकर असहिष्णुता दिखाई गई है. वर्षों से जुलूस गांव की गली सड़कों से निकलता रहा था जिस पर यह कर कर प्रतिबंध लगाने की मांग की गई कि इलाके की अधिकतर आबादी मुस्लिम है, इसलिए वहां किसी हिन्दू उत्सव या उससे जुड़े जुलूस को क्षेत्र से निकलने की इजाजत नही दी जानी चाहिए. अगर यही प्रतिरोध अन्य धार्मिक ग्रुपों की तरफ से भी जवाब मे दिखाया गया तो इससे अराजकता, दंगे, धार्मिक झगड़े, जानमाल के नुकसान जैसी स्थिति उत्पन्न होगी. नतीजे में देश का धर्मनिरपेक्ष चरित्र को नुकसान पहुंचेगा और वो नष्ट होगा.
कोर्ट ने कहा, मुस्लिम भी देश के उतने ही प्रथम दर्जे के नागरिक हैं जितने कि हिन्दू, ईसाई, पारसी, सिख, बौद्ध, जैन और अन्य. जजों ने कहा कि उन्हें (मुस्लिमों) संविधान के अनुच्छेद 25(1) के तहत अपने धर्म को मानने की पूर्ण स्वतंत्रता है. इसमें धार्मिक रीति रिवाज, समारोह का आयोजन और मृतकों का अंतिम संस्कार अपनी पारंपरिक मान्यताओं के साथ करने का अधिकार शामिल है.
कोर्ट ने कानून और व्यवस्था संबंधी इन आशंकाओं को भी खारिज किया कि गड़बड़ी या साम्प्रदायिक झगड़े होने की संभावना होगी. कोर्ट ने कहा कि अगर कानून और व्यवस्था को लेकर कोई समस्या आती है तो पुलिस को दखल देना चाहिए और समुचित सुरक्षा देकर अप्रिय घटनाओं को रोकना चाहिए.
कोर्ट ने कहा, “जब इस तरह की वैधानिक स्थिति है, ऐसा कोई आदेश नहीं हो सकता जो धार्मिक उत्सवों या मंदिर जुलूसों को गांव की सड़कों- गलियों से निकलने से प्रतिबंधित करे जबकि वर्षों से ऐसा होता आ रहा है. अगर बहुत जरूरी हो तो प्रशासन या पुलिस की ओर से कुछ नियमन हो सकते हैं लेकिन इन्हें प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता..