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RSS का चुनाव, ABVP का प्रभाव और राम माधव की परिवार वापसी!

संघ के केंद्रीय नेतृत्व में हुए ताजा परिवर्तन और बीजेपी से राम माधव की वापसी के क्या हैं मायने, संघ की आगे की रूपरेखा का क्या है ताना बाना... एक विश्लेषण

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RSS के गोविंदाचार्य और राम माधव (फाइल फोटो: PTI)
RSS के गोविंदाचार्य और राम माधव (फाइल फोटो: PTI)
स्टोरी हाइलाइट्स
  • राम माधव-रामलाल संघ में लौटे, गोविंदाचार्य-संजय जोशी को नहीं मिला था अवसर
  • संघ और भाजपा में बढ़ता जा रहा है ABVP का प्रभाव
  • नई केंद्रीय टीम के पीछे संघ की क्या है सोच?

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ी तीन बातें फिलहाल चर्चा में हैं. एक है केंद्रीय टीम में हुए परिवर्तन, दूसरा है संघ में एबीवीपी जैसे अनुषांगिक संगठन का मजबूत होते जाना और तीसरा है राम माधव की भाजपा से संघ में वापसी. पहले चर्चा तीसरे बिंदु की.

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संघ में हाल-फिलहाल में दो लोगों की भाजपा से वापसी हुई है. रामलाल और राम माधव. दोनों संघ की ओर से भाजपा में भेजे गए थे. दोनों ने एक ठीकठाक समयावधि तक पार्टी में महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारियां संभालीं. रामलाल संगठनमंत्री रहे तो राम माधव कश्मीर से पूर्वोत्तर तक अपनी अहम भूमिका निभा रहे थे. लेकिन दोनों की पार्टी में पारी समाप्त हुई. लेकिन पार्टी से मुक्त होकर दोनों ही खाली नहीं हैं. संघ के विशाल परिवार ने दोनों को दोबारा अंगीकार कर लिया है. रामलाल के बाद अब राम माधव की भी पार्टी से परिवार में वापसी हो चुकी है.

इससे पहले भी कुछ लोग संघ से पार्टी में भेजे जाते रहे. दो लोगों के नाम तो काफी चर्चा में रहे. दोनों पार्टी से मुक्त हुए लेकिन संघ ने उन्हें रामलाल या राम माधव जैसा वापसी का विकल्प नहीं दिया. ये दोनों नाम हैं गोविंदाचार्य और संजय जोशी के. संघ के लिए इन दोनों को वापस न लेना और अब रामलाल और राम माधव वो वापस बुला लेने में एक बहुत ही स्पष्ट संदेश निहित है.

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रामलाल और राम माधव की वापसी से संघ ने संदेश दिया है कि पार्टी से मुक्त होने के कारण अगर विवाद और विद्रोह नहीं हैं, तो संघ के विशाल तानेबाने में फिर से रचने-बसने की पर्याप्त संभावना है. संघ के कामकाज का दायरा बहुत व्यापक है और यहां सभी की उपयोगिता और अनुभव के अनुरूप काम की गुंजाइश रहती है.

जो लोग अनुशासित हैं, विवाद-विद्रोह से बचे हुए हैं, छवि संभली हुई है, उनके लिए संघ के पास काम है और उन्हें वापस लिया जा सकता है. लेकिन अगर कोई उपयोगी व्यक्ति भी खुलकर संघ या पार्टी के खिलाफ खड़ा हो गया है. बागी बन गया है. मुखर है या उसकी छवि खराब हो चुकी है तो फिर वापसी के रास्ते बंद हो जाते हैं. संघ के लिए संजय जोशी जैसा कमाल का संगठन गढ़ने वाला व्यक्ति और गोविंदाचार्य जैसा मुखर और व्यापक सूझ का व्यक्तित्व भी वापसी योग्य सिर्फ इसलिए नहीं रहे कि वो बाकी पैमानों पर अपनी सुग्राह्यता खो चुके थे.

रामलाल अब संघ की केंद्रीय नेतृत्व में संपर्क प्रमुख का दायित्व देखेंगे और राम माधव को अब सुरेश भय्याजी जोशी, सुरेश सोनी, इंद्रेश कुमार जैसे चेहरों के साथ संघ के केंद्रीय कार्यकारिणी मंडल का सदस्य बनाया गया है. 

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संघ का चुनाव 
आरएसएस में मोहन भागवत के बाद सरकार्यवाह और अन्य पदों पर कुछ बदलाव किए गए हैं.दत्तात्रेय होसबाले को सहसरकार्यवाह से सरकार्यवाह बना दिया गया है. यह संघ में सरसंघचालक के बाद दूसरा सबसे बड़ा पद है. दत्तात्रेय को 2016 में यानी उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से एक वर्ष पहले राज्य का दायित्व भी दिया गया था. एक साल बाद राज्य में भाजपा की सफलता ऐतिहासिक थी.

लेकिन इस चुनाव से पहले ही दत्तात्रेय के भविष्य का निर्धारण लगभग हो चुका है. संघ के लिए 1992 से 2003 तक एबीवीपी के दायित्व निर्वाह कर लौटे दत्तात्रेय को लाना दरअसल भविष्य की नई पीढ़ी को तैयार करने की दृष्टि से लिया गया निर्णय था जो अब पूरी तरह से चरितार्थ हो गया है.

होसबोले के अलावा सुनील आंबेकर को भी संघ ने अपनी केंद्रीय टीम में जोड़ा है और उन्हें प्रचार प्रमुख का दायित्व दिया है. आंबेकर भी एबीवीपी से आए हैं. इससे न केवल केंद्रीय टीम में एबीवीपी की उपस्थिति बढ़ी है बल्कि होसबोले को भी यह मजबूत करता है.

संघ की परंपरा रही है कि अनुषांगिक संगठनों को संघ से लोग मिलते रहे हैं लेकिन अपनी केंद्रीय टीम को संघ ने अपने मातृ-संगठन के चेहरों से ही तैयार किया है. ऐसा पहली बार हो रहा है कि किसी अनुषांगिक संगठन को संघ के केंद्रीय नेतृत्व में इतना स्थान और महत्व मिल रहा है.

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इस श्रृंखला का पहला अपवाद बने थे मदनदास देवी जिन्हें तत्कालीन संघ प्रमुख देवरस ने संघ की केंद्रीय टीम का हिस्सा बनाया था. जब सुदर्शन सरसंघचालक बने तो ऐसा माना जाता था कि सरकार्यवाह के पद पर मदनदास देवी को नियुक्त किया जा सकता है. लेकिन देवी सहसरकार्यवाह के पद तक ही सीमित रह गए और सरकार्यवाह का दायित्व सुदर्शन ने मोहन भागवत को सौंप दिया.

मोहन भागवत ने 2009 में जब सरसंघचालक का दायित्व संभाला तो दत्तात्रेय होसबाले को सहसरकार्यवाह बनाकर एबीवीपी से एक और प्रतिनिधि संघ की केंद्रीय टीम में जोड़ा. लेकिन सरकार्यवाह के पद पर पहुंचने वाले होसबोले पहले व्यक्ति हैं जो एबीवीपी से आते हैं.  

बेंगलुरु की बैठक में संघ प्रमुख मोहन भागवत (फोटो: PTI)

एबीवीपीः बढ़ता प्रभाव
दरअसल हाल के वर्षों में एबीवीपी का प्रभाव बढ़ता गया है. पार्टी में भी और संघ में भी. जेपी नड्डा से लेकर सुनील बंसल तक भाजपा के प्रमुख चेहरे एबीवीपी से ही पार्टी में शीर्ष और प्रभावी पदों तक पहुंचे हैं. मोदी सरकार में लगभग 100 सांसद ऐसे हैं जो बताया जाता है कि एबीवीपी से जुड़े रहे हैं.

सत्ता के साथ-साथ संघ में भी एबीवीपी के बढ़ते प्रतिनिधित्व से संयोजन को और बेहतर करने का प्रयास किया जा रहा है, ऐसा प्रतीत होता है.

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इसके पीछे की वजह भी है. दरअसल, संघ शायद उस लकीर को पतला करना चाहता है जो अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के दौरान अटल और सुदर्शन के बीच काफी मोटी थी. दोनों एक विचार और एक सोच के बावजूद अलग-अलग दिशा में दिखते थे. अटल के करीबी मंत्रियों में ऐसे कई चेहरे थे जो संघ की पृष्ठभूमि से नहीं आते थे. कामकाज और समन्वय में तो गतिरोध थे ही.

लेकिन अपने शताब्दी वर्ष की ओर बढ़ रहे संघ के लिए अभी टकराव नहीं, संयोजन और प्रसार ज़्यादा ज़रूरत हैं. दत्तात्रेय होसबाले का सरकार्यवाह बनना और आंबेकर का शामिल होना एक बेहतर संयोजन में योगदान देगा, ऐसा माना जा रहा है. 

ABVP का बढ़ता वर्चस्व (फोटो: PTI)

नेतृत्व की नई पीढ़ी
दूसरी बड़ी वजह है संयोजन के लिए सोच और पीढ़ी का समानांतर होना. भाजपा अटल वाली पीढ़ी को मार्गदर्शक मंडल तक ला चुकी और अब एक नई पीढ़ी सत्ता के शीर्ष पर है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और सरसंघचालक मोहन भागवत, दोनों ही सितंबर 1950 में पैदा हुए. दोनों एक पीढ़ी के हैं. आज़ादी के अमृत महोत्सव और संघ के शताब्दी वर्ष तक दोनों इस संयोजन को बनाए रखते हुए आगे बढ़ रहे हैं.

लेकिन भाजपा मोदी के आगे की पीढ़ी को तैयार कर चुकी है. जेपी नड्डा, सुनील बंसल से लेकर अमित शाह और योगी आदित्यनाथ तक ऐसे लोग पार्टी और सत्ता में प्रभावी हैं जो नई पीढ़ी के हैं. संघ में भी यह कायान्तरण ज़रूरी था ताकि वैचारिक साम्य बना रहे. इसीलिए संघ भी अपनी नई पीढ़ी को गढ़ने में लगा हुआ है.

संघ के पास नए सरकार्यवाह के लिए जो विकल्प थे उनमें डॉ कृष्णगोपाल, डॉ मनमोहन वैद्य, सीआर मुकुंदा जैसे नाम भी थे. 2014 में मोदी सरकार बनने के बाद डॉ कृष्णगोपाल का नाम काफी तेज़ी से चढ़ा था. लेकिन बीच-बीच में कुछेक गतिरोध की खबरें भी आती रहीं. मदनदास देवी की तरह ही कृष्णगोपाल भी पार्टी और संघ के बीच संयोजन बनाने में खुद पिसते चले गए.

मनमोहन वैद्य की आयु उन्हें अपने समकक्षों की नई पीढ़ी से ऊपर रखती है. सीआर मुकुंदा एक बेहतरीन विकल्प हैं लेकिन उनकी आयु अभी 60 से कम है और संघ शायद उन्हें अभी और समय देना चाहता है. इसलिए सरकार्यवाह तो नहीं लेकिन संघ की केंद्रीय टीम के सप्तऋषियों में उन्हें सहसरकार्यवाह के रूप से रखा गया है. हालांकि जानकार मानते हैं कि जो दायित्व आज दत्तात्रेय होसबाले संभाल रहे हैं, भविष्य में वो चेहरा सीआर मुकुंदा हो सकते हैं.

होसबोले इसके लिए इसलिए भी सबसे उपयुक्त थे क्योंकि उनका व्यक्तित्व संघ की वर्तमान ज़रूरतों के लिहाज से सबसे सटीक है. होसबोले के लिए यह कहा जाता है कि उनका वर्चस्व, विवाद और गतिरोध से दूर तक वास्ता नहीं रहता.

अपनी साफ छवि, नई सोच और सरल सामन्जस्य के कारण होसबोले संघ के लिए भी सबसे अनुकूल चेहरा हैं और भाजपा को या सरकार को भी उनसे चिंतित होने की वजह नहीं दिखाई देती.

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दक्षिण का द्वार
संघ और भाजपा के लिए भारत के नक्शे में दक्षिण का हिस्सा अभी भी हर्ष नहीं पैदा करता. कर्नाटक तक पहुंचकर भाजपा का रथ रुक जाता है. कर्नाटक में जब भाजपा ने पहली बार जीत हासिल की थी तो उसे दक्षिण का द्वार बताया था.

लेकिन दक्षिण का यह द्वार भाजपा के लिए खुलता-बंद होता रहता है. और रथ दक्षिण के इस द्वार से आगे नहीं बढ़ पा रहा है. आंध्र, तेलंगाना, तमिलनाडु, केरल में अभी भी भाजपा और संघ दोनों को एक करिश्मे का इंतज़ार है.

इसकी रचना के लिए ज़रूरी है कि संघ की अपनी केंद्रीय टीम में भी एक संतुलन बनाया जाए और दक्षिण के लिए संकेत स्थापित किए जाएं. महाराष्ट्र के वर्चस्व के समानांतर दक्षिण को महत्व से बेहतर संकेत और क्या हो सकता है. शायद इसीलिए भी दत्तात्रेय होसबाले और मुकुंदा को मिला महत्व भविष्य में संघ के लिए मिशन दक्षिण की एक मजबूत शुरुआत के तौर पर भी देखा जा रहा है. 

 

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