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उत्तर प्रदेश की राजनीति में सपा प्रमुख अखिलेश यादव इन दिनों नई राजनीतिक इबारत लिखने की कवायद में जुटे हैं. डॉ. लोहिया को अपना आदर्श मानने वाली सपा को डॉ. अंबेडकर के बाद बसपा संस्थापक कांशीराम में अपना सियासी भविष्य दिखने लगा है. सपा अपने यादव-मुस्लिम वोटबैंक को साधे रखते हुए बसपा के दलित मतदाताओं को अपने साथ जोड़ने की रणनीति पर काम कर रही है. इसीलिए अंबेडकर की विरासत और बसपा नेताओं को अपनाने के साथ-साथ अखिलेश यादव अब मायावती की सियासत की सबसे बड़ी ताकत रहे कांशीराम पर दांव लगाने जा रहे हैं.
सपा प्रमुख अखिलेश यादव तीन अप्रैल (सोमवार) को रायबरेली के दीन शाह गौरा ब्लॉक में स्थित कांशीराम महाविद्यालय में बसपा के संस्थापक कांशीराम की प्रतिमा का अनावरण करेंगे. सपा के राष्ट्रीय महासचिव स्वामी प्रसाद मौर्य इस कार्यक्रम को आयोजित कर रहे हैं, जहां अखिलेश यादव कांशीराम की मूर्ति अनावरण के साथ-साथ बड़ी जनसभा को भी संबोधित करेंगे. ऐसे में सभी के मन में सवाल यह उठता है कि डॉ. लोहिया के आदर्शों और समाजवादी विचाराधारा को लेकर चलने वाली सपा आखिर बसपा के संस्थापक और मायावती की सियासत के बैकबोन रहे कांशीराम पर क्यों मेहरबान होने जा रही है?
अंबेडकर के बाद कांशीराम पर सपा की दावेदारी
दलित समुदाय के मसीहा डॉ. भीमराव अंबेडकर की सियासी परिकल्पना को लेकर कांशीराम ने बसपा का गठन किया था और दलितों के बीच राजनीतिक चेतना जगाई थी. बसपा के महापुरुषों और आदर्शों में अंबेडकर और कांशीराम का सबसे ऊपर दर्जा है, जबकि सपा लोहिया की समाजवादी विचाराधारा को लेकर चलती रही है. अखिलेश यादव ने लोहिया के साथ-साथ अंबेडकर की सियासत को भी अपना लिया है और कांशीराम पर दांव खेलने जा रहे हैं. सपा ने 'बाबा साहेब वाहिनी' का गठन किया तो पार्टी के कार्यक्रमों और मंचों पर अंबेडकर की तस्वीर साफ दिखाई देती है. ऐसे में अंबेडकरवादी सियासत पर सपा पूरी तरह से अपना दावा मजबूत कर रही है.
कांशीराम की सियासी प्रयोगशाला से निकले अंबेडकरवादी विचारधारा वाले नेताओं को अखिलेश पहले से अपनी पार्टी में राजनीतिक अहमियत दे रहे हैं. स्वामी प्रसाद मौर्य से लेकर इंद्रजीत सरोज रामअचल राजभर, आरके चौधरी, लालजी वर्मा, त्रिभवन दत्त, डॉ. महेश वर्मा जैसे पुराने बसपाई नेता अब अखिलेश के साथ हैं. कांशीराम से सियासत का हुनर सिखने वाले नेताओं के साथ-साथ कांशीराम को भी अखिलेश अपनाने जा रहे हैं, उसके पीछे बसपा के वोटबैंक को अपने पाले में लाने की रणनीति मानी जा रही है.
दरअसल, कांशीराम ने ही बसपा का गठन किया था और दलित राजनीति खड़ी की थी, जिसके सहारे मायावती यूपी में चार बार मुख्यमंत्री रहीं. यूपी में बसपा के दलित मतदाताओं को अखिलेश अपने साथ लेने की रणनीति पर काम कर रहे हैं. सपा महासचिव स्वामी प्रसाद मौर्य कहते हैं कि मायावती डॉ. अंबेडकर और कांशीराम की विचारधारा से पूरी तरह से भटक चुकी हैं. ऐसे में अखिलेश यादव अब लोहिया के साथ अंबेडकर-कांशीराम की विचारधारा को लेकर चलना चाहते हैं, क्योंकि वक्त की जरूरत भी यही है. अंबेडकर-कांशीराम की राह पर चलकर बीजेपी से मुकाबला किया जा सकता है, क्योंकि दलित और पिछड़ों का हक मारा जा रहा है.
दलित समाज के विश्वास जीतने की कोशिश
कांशीराम के बहाने अखिलेश यादव की कोशिश दलित समाज के साथ भावनात्मक रिश्ता कायम रखने की है. वह दलित समाज को यह संदेश देने की कोशिश में हैं कि सपा भी कांशीराम का सम्मान और सियासी अहमियत देने में किसी तरह से पीछे नहीं है. इस तरह वह मायावती को अलग रखकर बसपा के महापुरुषों और नेताओं के जरिए दलित समाज से अपना रिश्ता बनाए रखना चाहते हैं. मायावती की सियासत के बैकबोन कांशीराम ही रहे हैं, जिन्होंने गांव-गांव घूम-घूमकर दलित राजनीति खड़ी की है. ऐसे में कांशीराम को लेकर दलितों के बीच आज भी उसी तरह का सम्मान है, जिसके जरिए अखिलेश दलितों के विश्वास जीतने की कोशिश में हैं.
बसपा के वोटबैंक को अपनाने की कोशिश
2012 के बाद से बसपा का सियासी ग्राफ लगातार गिरा है. ऐसे में सपा की कोशिश बसपा के दलित और अति पिछड़ों को अपने पाले में लाने की है. अखिलेश लगातार मायावती और बसपा को बीजेपी की बी-टीम के होने का आरोप लगाते हैं. इस नेरेटिव के चलते 2022 के विधानसभा चुनाव में बसपा को तगड़ा झटका लगा था. मुस्लिम वोटबैंक का पूरा-पूरा वोट सपा में चला गया. बसपा का कोर वोटबैंक दलित समुदाय का वोट भी सपा को पहले से ज्यादा मिला. मैनपुरी और खतौली के उपचुनाव में जिस तरह से दलित मतदाताओं का झुकाव सपा की तरफ हुआ है, उससे अखिलेश यादव के हौसले बुलंद हो गए हैं. अखिलेश यादव कांशीराम और डॉ. अंबेडकर के सहारे बसपा के सियासी आधार को पूरी तरह से अपने साथ जोड़ने की रणनीति कर रहे हैं.
बीजेपी के सामने मजबूत वोटबैंक
यूपी की राजनीति में अखिलेश अपना सियासी वोटों का आधार 32 फीसदी से बढ़ाकर 40 फीसदी के करीब ले जाने के लिए हरसंभव कोशिश में जुटी है. अखिलेश यादव की नजर बसपा के वोटबैंक पर है, जिसे साधने की कवायद 2019 चुनाव के बाद से कर रहे हैं. इसी कड़ी में 2022 के चुनावों में कुछ हद तक सफलता भी मिली थी. सपा के विधायकों की संख्या 47 से बढ़कर 111 पर तो पहुंची, लेकिन बीजेपी को हराने के लिए इतना ही काफी नहीं है. ऐसे में बसपा के बचे हुए दलित वोटबैंक और बीजेपी के साथ गए अति पिछड़े समुदाय के वोटों को सपा अपने साथ जोड़ने की रणनीति में जुटी है. दलितों के साथ सामाजिक समीकरण बनाने की सपा ने कोशिश की है. साथ ही दलित+पिछड़ा वर्ग+मुस्लिम को गोलबंद करने की कोशिश है. इस तरह सपा बीजेपी के मुकाबले 50 फीसदी से मजबूत आधार वोटबैंक तैयार करना चाहती है, जिसके दम पर वह बीजेपी के साथ दो-दो हाथ कर सके.