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समलैंगिक विवाह को मान्यता देने का विरोध, सुप्रीम कोर्ट पहुंचा जमीयत उलमा-ए-हिंद

समलैंगिक विवाह यानी same sex marriage को कानूनी मान्यता देने की गुहार वाली 15 याचिकाओं पर अब सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संविधान पीठ 18 अप्रैल को सुनवाई करेगी. बीते दिनों चीज जस्टिस की अगुआई वाली तीन जजों की पीठ ने इस मामले पर सुनवाई 5 जजों की संविधान पीठ के समक्ष किए जाने की सिफारिश की थी. 

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समलैंगिक विवाह को मान्यता देने का विरोध
समलैंगिक विवाह को मान्यता देने का विरोध

समलैंगिक विवाह को मान्यता देने की याचिका पर जमीयत उलमा-ए-हिंद सुप्रीम कोर्ट पहुंचा है. समलैंगिक विवाह को मान्यता देने का विरोध करते हुए मामले में पक्षकार बनाने की मांग की है. अपनी हस्तक्षेप अर्जी में जमीयत उलमा-ए-हिंद ने कहा है कि विपरीत लिंगों का विवाह भारतीय कानूनी शासन के लिए जरूरी है. विवाह की अवधारणा "किसी भी दो व्यक्तियों" के मिलन की सामाजिक-कानूनी मान्यता से कहीं अधिक है. इसकी मान्यता स्थापित सामाजिक मानदंडों के आधार पर है. कई वैधानिक प्रावधान हैं जो विपरीत लिंग के बीच विवाह सुनिश्चित करते हैं. इसमें कानूनी प्रावधानों के साथ विरासत, उत्तराधिकार, और विवाह से उत्पन्न कर देनदारियों से संबंधित विभिन्न अधिकार हैं.

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पांच जजों की संविधान पीठ करेगी सुनवाई
समलैंगिक विवाह यानी same sex marriage को कानूनी मान्यता देने की गुहार वाली 15 याचिकाओं पर अब सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संविधान पीठ 18 अप्रैल को सुनवाई करेगी. बीते दिनों चीज जस्टिस की अगुआई वाली तीन जजों की पीठ ने इस मामले पर सुनवाई 5 जजों की संविधान पीठ के समक्ष किए जाने की सिफारिश की थी. 

सीजेआई जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस जेबी पारदी वाला की पीठ ने कहा था कि यह मौलिक मुद्दा है. हमारे विचार से यह उचित होगा कि संविधान की व्याख्या से जुड़े इस मामले को 5 जजों की पीठ के सामने संविधान के अनुच्छेद 145 (3) के आधार पर फैसले के लिए भेजा जाये.

अतः हम मामले को संविधान पीठ के सामने रखने का निर्देश देते हैं. उससे पहले पिछले महीने 12 मार्च को केंद्र सरकार ने अपना पक्ष रखते हुए समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने की मांग पर आपत्ति जताते हुए 56 पन्नों के जवानी हलफनामे में कहा था कि समलैंगिक विवाह भारतीय परंपरा के मुताबिक कतई अनुकूल और उचित नहीं है. यह जैविक पति-पत्नी और उनसे पैदा हुए बच्चों के कॉन्सेप्ट से मेल ही नहीं खाता. इसलिए इसे कानूनी रूप देना ठीक नहीं होगा. इससे विवाह, परिवार, संस्कार सभी भारतीय सामाजिक, सांस्कृतिक और नैतिक मूल्यों का हनन और पतन होगा. 

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