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शरद पवार में अब कितनी ताकत... आखिर बगावत के बाद भी चाचा से क्यों बार-बार मिल रहे अजित पवार

जुलाई की शुरुआत से महाराष्ट्र में शुरू हुआ सियासी ड्रामा थमा नहीं है. एनसीपी से बगावत के बाद अजित पवार लगातार तीन दिन से चाचा शरद पवार से मुलाकात कर रहे हैं. प्रफुल्ल पटेल ने कहा कि एनसीपी के विधायक शरद पवार साहेब का आशीर्वाद लेने के लिए आए थे. हमने उनसे अपील की है कि पार्टी एकसाथ रहनी चाहिए.

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डीप्टी सीएम अजित पवार, एनसीपी चीफ शरद पवार (फाइल फोटो)
डीप्टी सीएम अजित पवार, एनसीपी चीफ शरद पवार (फाइल फोटो)

हमारी पौराणिक कथाओं में इच्छामृत्यु का जिक्र है. महाभारत में ये वरदान पितामह भीष्म को मिला था. इसी वरदान के सहारे वह बुढ़ापे में भी हस्तिनापुर की सत्ता के वर्तमान और भविष्य के बीच में खड़े थे. लिहाजा जो हुआ वह इतिहास है, लेकिन इस इतिहास की झलक वर्तमान के सत्ता संघर्ष में अक्सर दिख जाती है. महाराष्ट्र की राजनीति में ऐसा ही कुछ चल रहा है. एनसीपी नेता शरद पवार 83 साल के हो चुके हैं. बड़े ही नाटकीय ढंग से वह लगातार अपनी पार्टी के चीफ बने हुए हैं. उम्र ढल चुकी है, सेहत भी साथ नहीं देती है. 

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लेकिन... बीते दिनों जब अजित पवार ने एक मंच से कहा कि आप बुजुर्ग हो चुके हैं, सिर्फ आशीर्वाद दें तो चाचा शरद पवार ने भी दूसरे मंच से पलटवार करते हुए ऐलान कर दिया. Age is Just Number. उम्र महज एक संख्या है और मैं अपने संगठन को फिर से स्थापित करूंगा. कई लोग मेरा कई बार साथ छोड़कर जा चुके हैं, यह स्थिति मेरे लिए नई नहीं है.' 

शरद पवार

शरद पवार की आवाज तेज पर दम नहीं दिखा 

मीडिया के सामने यह बात कहने में शरद पवार का वॉल्यूम तो थोड़ा तेज था, लेकिन इस वॉल्यूम को सपोर्ट करने के लिए जरूरी जोश-ओ-खरोश आवाज में नहीं था. क्या इसके पीछे की वजह वह राजनीतिक सच्चाई हो सकती है, जो किसी से छिपी नहीं है और शरद पवार से तो खासतौर पर नहीं. 

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ये सच्चाई है, महाराष्ट्र की राजनीति में हल्के पड़ रहे एनसीपी के दबदबे की, अजित पवार के जाने से होने वाले नुकसान की और संगठन में कद्दावर नेताओं की जो कमी हो गई है, उसकी भी. इन सारी बातों को जानने के लिए जरूरी है कि एनसीपी और शरद पवार की 25 साल के इतिहास को एक सरसरी निगाह से देख लिया जाए और बीते दिनों घटे हर घटनाक्रम के सियासी मायनों को परखा जाए. 

शरद पवार से मिल रहे हैं अजित गुट के विधायक 

सबसे हाल की और ताजी घटना है, वाईबी चव्हाण सेंटर में अजित गुट के विधायकों की शरद पवार से मुलाकात. दीगर है कि चाचा से बगावत के बाद भतीजे और उनके गुट की शरद पवार से ये तीसरी मुलाकात है. लगातार तीन दिनों में इस तीसरी मुलाकात का आलम ये है कि शरद पवार गुट के साथ जुड़ी कांग्रेस को इस बातचीत वाले सिलसिले पर आपत्ति होने लगी है. कांग्रेस की नेता और पूर्व मंत्री यशोमति ठाकुर ने ऐतराज जताया है. उन्होंने कहा कि यह मुलाकात का सिलसिला गलत है. शरद पवार को इस मुद्दे पर अपनी भूमिका स्पष्ट करनी चाहिए. 

हुआ कुछ यूं कि शनिवार को अजित पवार, अपनी चाची प्रतिभा पवार (शरद पवार की पत्नी) का हाल जानने सिल्वर ओक गए थे. अजित पवार ने इस मुलाकात के बाद कहा था कि राजनीति अलग है और परिवार अलग है. इसके बाद वाईबी चव्हाण सेंटर में रविवार को अजित पवार और उनके मंत्रियों ने शरद पवार से मुलाकात की और उनसे माफी मांगी, फिर समर्थन और आशीर्वाद भी मांगा. हालांकि, शरद पवार ने अजित पवार और उनके मंत्रियों को कोई जवाब नहीं दिया, लेकिन अगले ही दिन यानी सोमवार को एकबार फिर अजित पवार अपने विधायकों संग शरद पवार से मिलने के लिए पहुंचे थे. 

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प्रफुल्ल पटेल, अजित पवार (फाइल फोटो)
 
मुलाकात पर क्या बोले प्रफुल्ल पटेल? 

इस मुलाकात की प्रेस ब्रीफिंग करते हुए अजित गुट के एनसीपी नेता प्रफुल्ल पटेल ने कहा कि, 'अजित पवार और विधिमंडल में एनसीपी के विधायक शरद पवार साहेब का आशीर्वाद लेने के लिए आए थे. हमने शरद पवार साहेब से अपील की है कि पार्टी एकसाथ रहनी चाहिए. इस आशीर्वाद के साथ हम वापस जा रहे हैं. उन्होंने हमारी बात सुनी लेकिन कुछ जवाब नहीं दिया. फिलहाल उनके मन में क्या है यह कहना मुश्किल है.' 

अब सवाल ये है कि अजित पवार और उनका गुट बगावत करने के बाद बार-बार क्यों शरद पवार के सामने नतमस्तक मोड में आ रहा है. प्रफुल्ल पटेल माफी मांगने, आशीर्वाद लेने और पार्टी एकसाथ रहनी चाहिए, जैसी बातें क्यों कर रहे हैं? इन सवालों का एक तात्कालिक जवाब तो ये है कि बगावत के बाद अजित पवार समेत जिन आठ विधायकों ने मंत्रिपद की शपथ ली है, उनके ऊपर अपात्रता का संकट मंडरा रहा है. इस मसले को हल करने के लिए अजित पवार सभी विधायकों समेत शरद पवार से मुलाकात कर रहे हैं. 

जयंत पाटिल ने की शरद-अजित मुलाकात पर बात


शरद पवार खेमे के नेता जयंत पाटिल ने अजित पवार खेमे की शरद पवार से मुलाकात पर मीडिया से बात की. उन्होंने कहा कि, अजित पवार अपने समर्थक विधायकों और एमएलसी के साथ शरद पवार से मिले. उनमें से अधिकांश ने उनके पैर छुए और आशीर्वाद मांगा है. एनसीपी विपक्ष में है. उन्होंने चल रहे मुद्दों के बीच कोई बीच का रास्ता निकालने की मांग की. उनकी विश्वसनीयता पर संदेह होने का सवाल ही नहीं उठता. यदि कोई उनसे मिलना चाहता है तो वे आने के लिए स्वतंत्र हैं, लेकिन शरद पवार अपने रुख पर कायम हैं. शरद पवार ने कहा कि एनसीपी और कांग्रेस ने पिछला चुनाव साथ मिलकर लड़ा था. इसलिए वैचारिक रुख नहीं बदला जा सकता. उन्होंने उन विधायकों से आग्रह किया कि यदि उनके पास कोई समाधान है तो वे इसका प्रस्ताव दें.

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तो क्या शरद पवार मान जाएंगे? 

तीन मुलाकातों के बाद शरद पवार ने अभी तक चुप्पी साध रखी है. उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया है. इसमें कोई आश्चर्य नहीं है. राजनीतिक पंडित जानते हैं कि इस तरह का व्यवहार उनके व्यक्तित्व और प्रवृत्ति की पहचान रही है. आखिर वह राजनीति के चाणक्य कहे जाते रहे हैं तो तुरंत ही जवाब देना तो उनके स्वभाव में वैसे भी नहीं है. लेकिन... वह जिस बारे में सोच रहे होंगे उन पर अनुमान या कयास लगाना कठिन नहीं है. शरद पवार ने जिस तरह की शांति ओढ़ रखी है, उसमें वह अपनी सारी स्थिति का आकलन कर सकते हैं. 

एकनाथ शिंदे, देवेंद्र फडणवीस (फाइल फोटो)

राज्य में कहां है एनसीपी का दबदबा? 

जहां तक एनसीपी के दबदबे की बात है तो महाराष्ट्र की राजनीति का भौगोलिक नक्शा अगर एनसीपी के अनुसार बनाया जाए तो पश्चिमी महाराष्ट्र में पार्टी का परचम बुलंद नजर आएगा. यही हिस्सा एनसीपी और शरद पवार की मजबूती का आधार रहा है. इसमें कोई शक नहीं है कि,  पार्टी के कैडर और नागरिकों को शरद पवार पर भरोसा है, लेकिन अब पार्टी के पास भरोसे के लिए सिर्फ शरद पवार रह गए हैं. सुप्रिया सुले को अभी हाल ही में संगठन में बड़ी जिम्मेदारी मिली है, लेकिन पार्टी के अंतिम लाइन के कार्यकर्ताओं के बीच अजित जैसी लोकप्रियता व समर्थन पाने में उन्हें अभी लंबा समय लगने वाला था. आने वाले कुछ सालों में इसकी शुरुआत हो सकती थी, लेकिन नियति ने इससे पहले ही बगावत का दंश दे दिया. ऐसे में महाराष्ट्र के पश्चिमी क्षेत्र में जहां अब तक शरद पवार की एनसीपी का दबदबा था, वहां की जमीन अब उनके पांवों तले से खिसक सकती है. शरद पवार इस तथ्य से अच्छी तरह से वाकिफ हैं. 

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पार्टी का गढ़ रहे इलाकों में पड़ा है असर 

जैसे ही अजित पवार और एनसीपी के बड़े नेताओं के एनडीए में शामिल होने की खबर बाहर आई पुणे और पश्चिमी महाराष्ट्र की राजनीति पर इसका असर दिखने लगा था. ये इलाके पार्टी का गढ़ रहे हैं. एनसीपी और बीजेपी के बीच गठबंधन से पश्चिमी महाराष्ट्र में अब बीजेपी को फायदा होने की पूरी उम्मीद है. जब अजित ने एनडीए का हाथ थामा था, पार्टी के एक नेता ने मीडिया बातचीत में इसके राजनीतिक असर पर रोशनी डालते हुए कहा था कि, पुणे जिले में दस विधायक हैं, जिनमें से आठ के अजित खेमे से जुड़ने की स्पष्ट संभावना है. 

वहीं, इंदापुर से एनसीपी विधायक, दत्तात्रय भरणे, जो अजीत पवार के करीबी दोस्त हैं वह उनकी तरफ ही बढ़ेंगे. अभी तक कई जिलों में बीजेपी और एनसीपी के बीच खींचतान थी, लेकिन एनसीपी के मौजूदा शिंदे के नेतृत्व वाली सरकार का हिस्सा बनते ही ये रार भी खत्म हो जाएगी. आने वाले दिनों में पश्चिमी महाराष्ट्र में कई राजनीतिक समीकरण बदल जाएंगे. एनसीपी और बीजेपी के बीच गठबंधन पश्चिमी महाराष्ट्र में बीजेपी के लिए फायदेमंद साबित होगा, लेकिन शरद पवार के लिए सवाल खड़े कर जाएगा. 

एनसीपी की वोट शेयरिंग का क्या है इतिहास? 

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शरद पवार को राजनीति का मराठा छत्रप कहा जाता है. उन्हें चाणक्य भी बताया जाता रहा है. कहते हैं कि वह दाएं हाथ से सियासी दांव इतनी खामोशी से खेलते हैं कि बाएं हाथ को भी खबर नहीं होती है, लेकिन एक तथ्य जो एनसीपी बनने के बाद उनकी 25 साल की राजनीति पर काले बादल की तरह छा जाता है, वह ये है कि 1999 के बाद से शरद पवार की निजी पावर तो खूब बढ़ती रही, लेकिन पार्टी का वोट प्रतिशत हर बार कम ही होता गया है. ये गिरावट लोकसभा और विधानसभा दोनों ही चुनावों में बतौर आंकड़ा दर्ज है. 

लोकसभा चुनावों में गिरता रहा है वोट पर्सेंट 

सोनिया के विदेशी मूल के मुद्दे को उठाकर शरद पवार कांग्रेस से अलग हो गए थे और 1999 में एनसीपी नाम से पार्टी का गठन किया. इसके तुरंत बाद ही सामने तेरहवीं लोकसभा के चुनाव आ खड़े हुए थे. इस चुनाव में शरद पवार की पार्टी ने कुल 132 सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए, लेकिन जीत केवल 8 पर ही हासिल कर सके. तब एनसीपी ने देशभर में कुल 2.27 फीसदी वोट परसेंट हासिल किया था. इसके पांच साल बाद यानी 2004 में गिरकर यह वोट परसेंट 1.80 फीसदी हुआ तो 2009 में 1.19 फीसदी दर्ज किया गया था. इसी तरह 2014 में 1.04 फीसदी और 2019 में एनसीपी का वोट शेयर गिरकर 0.93 फीसदी ही रह गया था. यानी की पार्टी की स्थापना के बाद से राजनीति के 'चाणक्य' को कभी भी दो फीसदी से ज्यादा वोट शेयर नहीं मिल सका हैं. अब जब 2024 के चुनाव सामने खड़े हैं तो पवार की ताकत में सेंध लग चुकी है और दूसरा उनकी उम्र भी हो चली है. 

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हालांकि उनकी ताकत पर कोई शक नहीं करना चाहिए. यह शरद पवार ही थे, जो उद्धव ठाकरे सरकार के शिल्पी थे. उनकी ही देन थी कि, बेमेल गठबंधन (कांग्रेस, एनसीपी और शिवसेना की महाविकास अघाड़ी) की सरकार उन्होंने बनाई जो ढाई साल तो चलती रही. उद्धव गुट से शिंदे गुट की बगावत नहीं होती तो इस सरकार के टर्म पूरा करने पर तब तक कोई सवाल नहीं था. 

विधानसभा चुनाव में एनसीपी ने दर्ज की है वोट शेयर में गिरावट 

खैर, बात हो रही है एनसीपी के वोट शेयर की तो एक नजर विधानसभा चुनावों की अब तक की स्थिति पर भी डाल लेते हैं. 1999 में शरद पवार की एनसीपी ने अपने दमखम पर महाराष्ट्र की दसवीं विधानसभा के लिए चुनाव लड़ा था. इस चुनाव में पवार ने कुल 223 सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए थे, जिनमें से 58 पर जीत मिली थी. पार्टी को तब कुल 22.60 फीसदी वोट शेयर हासिल हुए थे. चौदहवीं विधानसभा यानी 2019 तक आते-आते पार्टी का वोट शेयर 16.71 फीसदी पर सिमट गया. 

चुनाव आयोग के आंकड़े बताते हैं कि 1999 में एनसीपी ने महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में जहां 22.60 फीसदी वोट शेयर हासिल किए थे, वह 2004 में गिरकर 18.75 फीसदी, 2009 में 16.37 फीसदी, 2014 में 17.24 फीसदी और 2019 में 16.71 फीसदी पर आ गिरा है. यानी महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव में भी शरद पवार का जो हाइएस्ट रहा है वह 22.60 फीसदी ही है. सीटों के लिहाज से देखें तो 1999 में 58 सीटें जीतने वाली एनसीपी ने पांच साल बाद कांग्रेस के गठजोड़ से 71 सीटें जीतीं लेकिन 2009 में वह 62 पर सिमट गई. 2004 में पार्टी 20 सीटों के नुकसान के साथ 42 पर और 2019 में उसे 54 सीटें हासिल हुई.  यह स्थिति तब थी, जब उनके खेमे में कद्दावर नेताओं और महाराष्ट्र की जमीन पर पैठ रखने वाले नेताओं की एक पूरी गिनती थी. अब कई कद्दावर चेहरे अजित गुट के पास हैं तो शरद पवार के पास क्या बचा है? केवल खुद का वरिष्ठ कद... 

सुप्रिया सुले (फाइल फोटो)

...तो क्या शरद पवार सुप्रिया सुले के भविष्य के लिए समझौता करेंगे? 

दो वाक्य पूरी तरह सच हैं. 

1. राजनीति में संतान मोह नहीं करना चाहिए. 

2. राजनीति में संतान के भविष्य को सेट करने का मोह होता ही है. 

शरद पवार भी इन दोनों सत्य वचनों से अछूते नहीं रहे हैं. सुप्रिया सुले वह सीधे उत्तराधिकार नहीं दे सकते थे, लेकिन कार्यकारी अध्यक्ष बनाकर दूर से एक मैसेज तो दे ही दिया था कि भविष्य में पार्टी की कमान उनके ही हाथ में होंगी. यह कुछ वैसा ही है, जो बाल ठाकरे कर चुके थे, पंजाब में बादल कर चुके थे. हरियाणा में चौटाला ने किया था और यूपी में मुलायम से हुआ था. लिहाजा महीने भर के भीतर योग्य भतीजे अजित पवार ने बगावत कर दी. आज अगर अजित पवार पर अपात्रता की संकट है तो इससे कहीं अधिक गहरा और दोहरा संकट शरद पवार और सुप्रिया सुले के लिए भी है. सुप्रिया का करियर शुरू होते ही ग्रहण में पड़ चुका है और शरद पवार के सामने संगठन और परिवार बचाने की जद्दोजहद है. ऐसे में उनकी चुप्पी सवाल कर रही है कि क्या वह अजित पवार के साथ लगातार हो रही मुलाकातों के बाद किसी तरह की डील के बारे में तो नहीं सोच रहे हैं? क्या वह डील सुप्रिया सुले का राजनीतिक भविष्य हो सकता है? दोनों सवालों के जवाब भविष्य ही दे पाएगा. 

अब अगली कहानी बीजेपी की, आखिर अजित को साथ लाने का राज क्या है? 

बीजेपी ने अजित पवार को साथ लाकर मेगा गेम प्लान किया है. महाराष्ट्र की सियासी जमीन को देखें तो वोटबैंक के हिसाब से यहां सबसे बड़ा वोटबैंक मराठा है. बीजेपी के पास अब तक कोई बड़ा मराठा चेहरा नहीं था. इस मामले में अजित पवार और उनके साथ आई फौज एक बड़ा गेम चेंजर साबित होगी. मराठा समाज में उनकी वैल्यू एकनाथ शिंदे से भी ज्यादा है. भाजपा को शिंदे के बाद पवार का साथ मिलने से मराठाओं के बीच इनकी पकड़ काफी मजबूत हो जाएगी. 

महाराष्ट्र की सियासत में जो दूसरी बड़ी बात है वह है, सहकारिता यानी कोऑपरेटिव सियासत. राज्य में इस समय करीब 2.3 लाख कोऑपरेटिव सोसाइटी और उनके 5 करोड़ से ज्यादा सदस्य हैं. एनसीपी ने अपने 25 सालों में इस सोसायटी पर मजबूत पकड़ बना रखी है. यहां भी शरद पवार के बाद अगली लाइन में नंबर दो अजित पवार ही हैं. शरद पवार की बुजुर्गियत पर पहले ही चर्चा कर चुके हैं और दूसरा वह किसी भी हाल में बीजेपी से तो समझौता नहीं करते. लिहाज अजित पवार को साथ लेकर बीजेपी सहकारिता से जुड़े वोटरों पर भी काबिज होना चाहती है. 

शरद पवार (फाइल फोटो)

एक नाथ शिंदे की कमजोरी, जिसे बीजेपी भांप चुकी है 

बीजेपी ने पहले शिंदे को साथ लेकर सरकार बनाई और इस दौरान वह उनकी कमजोरी भांप चुकी है. एकनाथ शिंदे BJP की उम्मीद से काफी कम शिवसेना के वोटर तोड़ पाए हैं. बीते एक साल के दौरान महाराष्ट्र में जो भी उपचुनाव हुए, बीजेपी को उनमें हार मिली है. विधानपरिषद के दो चुनाव में भी भाजपा की शिकस्त मिली है. इसके साथ ही विधानसभा में भी कसवापेट, पुणे, कोल्हापुर जैसी सीटों पर भी भाजपा को उम्मीद से कम वोट मिले हैं. पार्टी ये मानकर चल रही है कि अकेले शिंदे के बल पर महाराष्ट्र की जमीन पर टिके रहना आसान नहीं है. 

 2019 के लोकसभा चुनाव में BJP और यूनाइटेड शिवसेना ने मिलकर चुनाव लड़ा और उसे 48 में 42 सीट मिली थीं. BJP अभी की स्थिति में महाराष्ट्र में अपने आप को कमजोर पा रही थी. इसकी वजह है कि MVA 60% वोटों को प्रभावित कर सकता था. 

दूसरी ओर महाराष्ट्र में अभी भी उद्धव ठाकरे के साथ सहानुभूति है, लेकिन उद्धव गुट के पास कोई बड़ा चेहरा नहीं है. दूसरी ओर एनसीपी भी इस वक्त शिवसेना वाली स्थिति से जूझ रही है. बाल ठाकरे नहीं रहे हैं, लेकिन उनके नाम और निशान को लेकर लड़ाई है. लेकिन अजित पवार का नाम-निशान को लेकर जिससे टक्कर है वह शरद पवार तो सामने ही खड़े हैं. लिहाजा सबकुछ पक्ष में है लेकिन कुछ बड़ी चीजें हाथ में नहीं भी है. यही वजह है कि अजित पवार बीते तीन दिनों में एक नहीं, दो नहीं बल्कि चाचा के साथ तीन-तीन मीटिंग कर चुके हैं. 
 

 

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