सरकार भारतीय दण्ड संहिता यानी आईपीसी और आपराधिक प्रक्रिया संहिता यानी सीआरपीसी में बदलाव पर विचार कर रही है. इस बाबत केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में जवाबी हलफनामा दायर किया है. सरकार ने कोर्ट को बताया है कि इस बदलाव के संबंध में विधि और न्यायशास्त्र के विशेषज्ञों से सलाह मशविरा भी किया है. हलफनामे के बारे में अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी ने चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की खंडपीठ के समक्ष कहा कि मैंने भी व्यक्तिगत रूप से सरकार से इसके लिए सक्रिय भूमिका निभाने को कहा है. इस कवायद में देशद्रोह कानून भी शामिल है.
क्या है कानून की धारा 64?
चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ और जस्टिस जेबी पारदीवाला की पीठ के सामने जब सीआरपीसी की धारा 64 को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई शुरू हुई तो अटॉर्नी जनरल ने ये दलील दी. धारा 64 किसी समन की तामील के सिलसिले में किसी महिला को समन स्वीकार करने से निषिद्ध करती है यानी रोकती है. उसका सीधा अर्थ है कि कानून महिला के साथ भेद भाव करता है. यानी जिसके नाम समन आया हो उसके परिवार की कोई भी महिला उसे स्वीकार नहीं कर सकती. कानून की धारा 64 महिला को समन स्वीकार करने में अक्षम बताती है.
चीफ जस्टिस ने पूछा भी कि इस मामले में देशद्रोह के प्रावधानों का क्या संबंध है?
जुलाई के अंतिम सप्ताह में होगी अगली सुनवाई
तब अटॉर्नी जनरल ने कहा कि सरकार सीआरपीसी और आईपीसी के ही कई गैर जरूरी प्रावधानों में संशोधन पर सक्रियता से विचार कर रही है. लिहाजा उन्होंने कोर्ट से गुजारिश की कि इस मामले की सुनवाई संसद के मानसून सत्र के बाद सूचीबद्ध की जाए. इसके बाद पीठ ने कहा कि हमें सूचित किया गया है कि सीआरपीसी और आईपीसी में संशोधन पर सक्रिय रूप से विचार किया जा रहा है. अदालत ने कुश कालरा की ओर से दायर जनहित याचिका पर अगली सुनवाई जुलाई के अंतिम सप्ताह में करने का फैसला किया. वैसे कुश कालरा बनाम भारत सरकार मामले में चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ की अगुआई वाली पीठ ने केंद्रीय विधि और न्याय मंत्रालय को नोटिस जारी कर सीआरपीसी के इस भेदभावकारी प्रावधान के मुद्दे पर नोटिस जारी जवाब मांगा था. ये प्रावधान महिलाओं को समानता के अधिकार से वंचित करता है.