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दिल्ली का सिंघु बॉर्डर इन दिनों अपने में एक पूरी दुनिया समेटे है. यह जगह एक ऐसे रिश्तों की दुनिया बन चुका है जो अनजान होते हुए भी अब एक डोर में बंध चुके हैं. वो इंसान जो हाल तक सिर्फ अपनी और परिवार की फिक्र तक ही सिमटे थे, उनके लिए अब दूसरों का दुख-तकलीफ कम करना ही सबसे ज्यादा मायने रखता है.
ऐसी ही कहानी इशविंदर कौर की है. 29 साल की इशविंदर यूनिवर्सिटी टॉपर रही हैं. बाइक्स और यात्रा करना इन्हें बहुत पसंद है. यात्राओं के दौरान होने वाले अनुभवों को ये अपने खुद के विकास के लिए बहुत अहम मानती हैं. इशविंदर का इन दिनों सिंघु बॉर्डर पर ही डेरा है. यहीं वो अपनी मां के साथ लंगर के लिए दिन-रात रोटियां बेलती हैं. इशविंदर को उनके दोस्त और करीबी लोग ‘फ्रेंच कौर’ के नाम से बुलाते हैं. इस नाम के पीछे वजह भी है. इशविंदर ने पटियाला यूनिवर्सिटी से फ्रैंच भाषा में टॉप किया है. इसके अलावा वो ‘ऑल अबाउट लाइफ एंड फ्रैंच कौर’ के नाम से यू ट्यूब चैनल भी चलाती हैं.
सिंघु बॉर्डर आने के बाद से इशविंदर किसान आंदोलन से जुड़े अपडेट अपने यू ट्यूब चैनल पर अपलोड करती रहती हैं. अगर उनके सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म को और खंगाला जाए तो पंजाबी महिला का एक नया चेहरा ही सामने आता है. ऐसी महिला जो दिलेर है, मजबूत है, आत्मनिर्भर है और अपने फैसले खुद लेने में सक्षम है.
इशविंदर कहती हैं, “मेरे पिता का एक दशक पहले निधन हो गया. तब से हमने सब कुछ अपने आप करना सीखा है. मैंने फ्रेंच में यूनिवर्सिटी टॉप किया. मैं इस यू ट्यूब प्लेटफार्म का इस्तेमाल फ्रेंच सिखाने के लिए करती हूं. यहां (सिंघु बॉर्डर) पर इंटरनेट कनेक्शन ज्यादा अच्छा नहीं है, फिर भी मैं आंदोलन से जुड़े अपडेट लगातार पोस्ट करने की कोशिश करती हूं.”
इशविंदर देश के ऐसे युवा वर्ग की नुमाइंदगी करती हैं जो परिवार की जिम्मेदारी अपने कंधे पर उठाए हुए हैं. इशविंदर की मां किरनदीप पंजाबी यूनिवर्सिटी में टीचर रही हैं और हाल में रिटायर हुई हैं. इशविंदर की दो बहनें और हैं. बड़ी बहन कनाडा में रहती है लेकिन किसान आंदोलन से जुड़ी हर छोटी-बड़ी जानकारी लेती रहती है. इशविंदर की छोटी बहन भी जल्दी ही सिंघु बॉर्डर आकर प्रदर्शन से जुड़ने वाली है. ये परिवार महिला सशक्तिकरण की मिसाल है, साथ ही उस सवाल का जवाब भी है कि तमाम दिक्कतें झेलने के बावजूद प्रदर्शनकारी क्यों मजबूती से डटे हुए हैं.
इशविंदर कहती हैं, “हम यहां फतेहगढ़ साहब से 28 दिसंबर को आए थे. हमारे पास सिर्फ एक जोड़ी ही कपड़े थे. हमने यहां रहने के लिए कपड़े उधार लिए और लोगों ने हमारी मदद की. मैंने अपनी मां से कहा है कि जब तक हम जीत नहीं जाते हम यहां से कहीं नहीं जाएंगे.”
इशविंदर की बातें सुनकर उनकी मां किरनदीप के चेहरे की चमक खुद ही बता देती है कि उन्हें अपनी बेटी पर कितना नाज है. किरनदीप कहती हैं, “जब से हम यहां आए हैं, हमने पूरे समर्पण के साथ सेवा की है, लंगर में काम किया है. हम सुबह जल्दी उठकर अरदास करते हैं. मेरी बेटी हर दिन एक्सरसाइज करती है. अब ये टेंट ही हमारा घर है. हम इसे बहुत साफ रखते हैं. हर कोई हमसे खुश हैं. ये हमारा कर्तव्य है, सरकार नाइंसाफी कर रही है लेकिन हम नहीं झुकेंगे.”
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सिंघु बार्डर पर दोनों मां-बेटी को दिन भर मेहनत करते देखा जा सकता है. उन्हें अन्य महिलाओं के साथ बर्फीले पानी में बर्तन साफ करते, सर्द रात में देर तक रोटियां बेलते देखा जा सकता है. एक दूसरे से पहले से पहचान न होने के बावजूद समान मकसद ने इन्हें एक कर दिया है.
इशविंदर घर पर रहने के दौरान बच्चों के लिए फ्रेंच क्लासेज चलाती थीं लेकिन सिंघु बॉर्डर आने के बाद से उस पर ब्रेक लग गया है. इशविंदर कहती हैं, “मेरे स्टूडेंट्स के पेरेंट्स स्थिति को समझते हैं और पूरा सहयोग दे रहे हैं. इंटरनेट की समस्या है. मैं क्लास नहीं ले पा रही हूं लेकिन वो तब भी मेरी फीस दे रहे हैं. अन्य सहयोग दे रहे हैं. मेरे पास उनका शुक्रिया कहने के लिए शब्द नहीं हैं लेकिन मैं जब लौटूंगी तो उनकी फीस वापस कर दूंगी.”
हमेशा चलते रहने वाले लंगर के लिए रोटियां बेलते हुए मां-बेटी के लिए यही सबसे बड़ा काम है. बाकी सब कुछ इंतजार पर रखा जा सकता है. इशविंदर और किरनदीप अकेली नहीं हैं, यहां उनके जैसी सैकड़ों महिलाओं के लिए दिन का यही रूटीन है. सुप्रीम कोर्ट भी प्रदर्शन स्थलों पर मौजूद महिलाओं और बच्चों के लिए फिक्र जता चुका है. लेकिन तमाम दिक्कतों के बावजूद इशविंदर और किरनदीप जैसी महिलाओं के माथे पर कोई शिकन नहीं है. उनके लिए हक की मांग कर रहे किसानों का समर्थन और लंगर में निस्वार्थ भाव से सेवा करना ही सब कुछ है.