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क्या 400 सीटों वाली पार्टी बदल सकती है संविधान? जानें नियमों की कसौटी पर कितना खरा है अनंत हेगड़े का बयान

भारतीय संविधान में 42वां संशोधन सबसे ज्यादा विवादों और चर्चा में रहा है. इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने 1976 में इसे पारित किया. इस अधिनियम को 'मिनी-संविधान' के रूप में भी जाना जाता है. क्योंकि इसमें भारतीय संविधान में बड़ी संख्या में संशोधन किए गए थे. इसे '42वां संशोधन अधिनियम' या संविधान अधिनियम, 1976 भी कहा जाता है.

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अनुच्छेद 368 में संविधान में संशोधन का प्रावधान किया गया है.
अनुच्छेद 368 में संविधान में संशोधन का प्रावधान किया गया है.

बीजेपी सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री अनंत हेगड़े ने कहा है कि संविधान में संशोधन के लिए BJP को दो तिहाई बहुमत दिलाएं. उन्होंने कहा, हमारे पास लोकसभा में दो तिहाई बहुमत है. लेकिन राज्यसभा में हमारा बहुमत नहीं है. आगामी लोकसभा चुनाव में एनडीए को 400 पार सीटें मिलने पर राज्यसभा बहुमत हासिल करने में मदद मिलेगी. उनके इस बयान पर राजनीति भी गरमा गई है.

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हालांकि, ऐसा नहीं है कि संविधान में अब तक संशोधन या बदलाव नहीं किया गया है. जून 1951 में संविधान में पहला संशोधन हुआ. उसके बाद यह सिलसिला लगातार चलता आ रहा है. कुल संशोधनों का औसत निकाला जाए तो हर साल करीब दो संशोधन होते हैं. 

इमरजेंसी के वक्त तो संविधान में इस हद तक बदलाव किए गए कि अंग्रेजी में इसे 'कंस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया' की जगह 'कंस्टीट्यूशन ऑफ इंदिरा' कहा जाने लगा था. इंदिरा गांधी ने एक ही संशोधन में 40 अनुच्छेद तक बदल दिए थे. यही वजह है कि 42वें संशोधन को मिनी संविधान भी कहा जाता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 10 साल की सरकार में भी संविधान में 8 बड़े संशोधन किए गए हैं.

जानिए क्या था 42वां संशोधन

इंदिरा गांधी के शासन में इमरजेंसी के दौरान 42वां संशोधन हुआ था. ये संशोधन अब तक का सबसे व्यापक और विवादास्पद रहा है. उस वक्त ऐसा लगा था कि इस संशोधन के द्वारा सरकार कुछ भी बदल सकती है. यही वजह है कि इसे मिनी संविधान भी कहा जाता है. इसमें संविधान की प्रस्तावना में तीन नए शब्द- समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और अखंडता जोड़े गए थे. 42वें संशोधन के सबसे विवादास्पद प्रावधानों में से एक था- मौलिक अधिकारों की तुलना में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों को वरीयता देना. इस प्रावधान के कारण किसी भी व्यक्ति को उसके मौलिक अधिकारों तक से वंचित किया जा सकता था. इस संशोधन ने न्यायपालिका को पूरी तरह से कमजोर कर दिया था. जबकि विधायिका को अपार शक्तियां दे दी गई थीं. केंद्र सरकार को यह भी शक्ति दे दी गई थी कि वो किसी भी राज्य में कानून व्यवस्था बनाए रखने के नाम पर कभी भी सैन्य या पुलिस बल भेज सकती थी. दूसरी तरफ राज्यों के कई अधिकारों को केंद्र के अधिकार क्षेत्र में डाल दिया गया.

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अहम बात ये थी कि किसी भी आधार पर संसद के फैसले को कोर्ट में चुनौती नहीं दी जा सकती थी. किसी विवाद की स्थिति में सांसद-विधायकों की सदस्यता पर फैसला लेने का अधिकार सिर्फ राष्ट्रपति को दे दिया गया था और संसद का कार्यकाल भी पांच साल से बढ़ाकर छह साल कर दिया गया था. इस संशोधन के खिलाफ सड़क से लेकर संसद तक जमकर बवाल हुआ. सियासत गरमाई. हालांकि, 1977 में जनता पार्टी की सरकार आई और उसने इस संशोधन के कई प्रावधानों को 44वें संविधान संशोधन के जरिए रद्द कर दिया. संविधान की प्रस्तावना में हुए बदलाव से छेड़छाड़ नहीं की गई.

इंदिरा गांधी ने क्यों किया था संविधान में व्यापक बदलाव?

देश के इतिहास में 19 मार्च 1975 को ऐसा पहली बार हुआ है, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री (इंदिरा गांधी) को कोर्ट में गवाही देने के लिए आना पड़ा था. दरअसल, 1971 के लोकसभा चुनाव में रायबरेली सीट पर इंदिरा गांधी ने राजनारायण को एक लाख से भी ज्यादा वोटों से हरा दिया था. राजनारायण ने गलत तरीकों से चुनाव जीतने का आरोप लगाकर इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दायर की. 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने चुनाव में भ्रष्टाचार के आरोप में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के रायबरेली चुनाव को अवैध करार दिया. कोर्ट ने इंदिरा गांधी को 6 साल के लिए चुनाव लड़ने से अयोग्य करार दिया. विपक्षी दलों ने इंदिरा से इस्तीफा देने की मांग तेज कर दी. सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के निर्णय पर स्टे दे दिया. लेकिन पार्टी में भी एक खेमा इंदिरा से नैतिकता के आधार पर इस्तीफे की आवाज उठाने लगा. दूसरी ओर जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में विपक्ष दिल्ली की सड़कों पर उतर आया.

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आजादी के बाद यह पहला मौका था जब किसी प्रधानमंत्री के खिलाफ इतनी बड़ी रैली निकाली गई और 'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है' जैसे नारे गूंजने लगे. इस्तीफा का दबाव बढ़ा तो इंदिरा ने देश में इमरजेंसी लागू करने की तैयारी कर ली. राष्ट्रपति ने 25 जून 1975 की रात 11 बजकर 45 मिनट पर संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत देश में आंतरिक आपातकाल की घोषणा पर हस्ताक्षर किए. अगले दिन 26 जून 1975 को सुबह 6 बजे इंदिरा गांधी ने मंत्रिमंडल की बैठक बुलाई और उसमें आंतरिक खतरों से निपटने के लिए ऐसा करना बेहद जरूरी बताया.

'इमजेंसी के समय संविधान में किया था व्यापक बदलाव'

इमरजेंसी में सबसे पहले भारतीय संविधान का 38वां संशोधन 22 जुलाई 1975 को पास हुआ. इस संशोधन के मुताबिक न्यायपालिका से आपातकाल की न्यायिक समीक्षा का अधिकार छीन लिया गया. करीब दो महीने बाद इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनाए रखने के लिए संविधान का 39वां संशोधन लाया गया. चूंकि, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा का चुनाव रद्द कर दिया था. लेकिन इस संशोधन ने कोर्ट से प्रधानमंत्री पद पर नियुक्त व्यक्ति के चुनाव की जांच करने का अधिकार ही छीन लिया. इस संशोधन के अनुसार, प्रधानमंत्री के चुनाव की जांच सिर्फ संसद की तरफ से गठित कमेटी ही कर सकती थी.

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तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी को समय की जरूरत बताया और उस दौर में लगातार कई संविधान संशोधन किए. 40वें और 41वें संशोधन के जरिए संविधान के कई प्रावधानों को बदलने के बाद 42वां संशोधन पास किया गया. देश के संविधान में तीन तरह के संशोधन होते हैं. इनमें से दूसरे और तीसरे तरह के संशोधन अनुच्छेद 368 के तहत आते हैं. 

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संविधान संशोधन विधेयक तीन तरह के होते हैं....

1. ऐसे विधेयक जो संसद (लोकसभा और राज्यसभा) से साधारण बहुमत से पारित किए जाते हैं.
2. ऐसे विधेयक जो संसद द्वारा संविधान के अनुच्छेद 368 (2) के मुताबिक विशेष (दो तिहाई) बहुमत से पास किए जाते हैं.
3. ऐसे विधेयक जो संसद से विशेष बहुमत से पारित हैं और जिनके लिए कम से कम आधे राज्य विधान मंडलों का समर्थन जरूरी है.

क्या संविधान में बदलाव संभव है?

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 368 में संविधान और इसकी प्रक्रिया में संशोधन का जिक्र किया गया है. इसमें संसद की शक्तियों के बारे में बताया गया है. अनुच्छेद 368 के मुताबिक, संसद को संविधान के किसी भी प्रावधान में बदलाव करने का अधिकार है. इसके लिए संसद में विशेष बहुमत के वोट की जरूरत होती है. संविधान में संशोधन के लिए संसद के दोनों सदनों में 2/3 बहुमत होना जरूरी है. दोनों सदनों द्वारा पारित विधेयक को राष्ट्रपति के सामने अनुमति के लिए रखा जाता है. राष्ट्रपति को संविधान संशोधन पर अनुमति देनी होती है. संविधान संशोधन विधेयकों के लिए संयुक्त अधिवेशन की प्रक्रिया लागू नहीं होती है. अगस्त 2023 तक देश के संविधान में 127 संशोधन हो चुके हैं. 

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संशोधन के लिए क्या जरूरी?

संविधान में बदलाव के लिए लोकसभा और राज्यसभा में दो-तिहाई बहुमत के साथ-साथ दो-तिहाई राज्यों में भी जीत हासिल करना जरूरी है. संसद के दो तिहाई बहुमत और आधे राज्यों के विधान मंडल का साधारण बहुमत द्वारा उस विधेयक को पारित कर राष्ट्रपति की सहमति के लिए भेजा जाता है, जो इसे पुनर्विचार के लिए वापस नहीं भेज सकते हैं. अनुच्छेद 368 के तहत संविधान संशोधन विधेयक को सिर्फ राज्य विधानमंडलों में साधारण बहुमत की जरूरत होती है.

मोदी सरकार के 10 साल में संविधान में 8 बड़े बदलाव...

99वां संशोधन: राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम (2015)
100वां संशोधन: भारत-बांग्लादेश के बीच भू-सीमा संधि (2015)
101वां संशोधन: वस्तु एवं सेवाकर यानी जीएसटी अधिनियम (2016)
102वां संशोधन: राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा (2018)
103वां संशोधन:  EWS को शिक्षण संस्थाओं, नौकरियों में 10 फीसदी आरक्षण (2019)
104वां संशोधन: लोकसभा, विधानसभाओं में एससी-एसटी आरक्षण 10 साल बढ़ाया गया (2019)
105वां संशोधन: सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों की पहचान (2021)
128वां संशोधन: महिलाओं को विधानसभा और संसद में 33 प्रतिशत आरक्षण (2023)

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क्या कहा है अनंत हेगड़े ने?

बीजेपी सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री अनंत हेगड़े ने कहा है कि संविधान संशोधन के लिए बीजेपी को दो तिहाई बहुमत देना होगा. उन्होंने आगे कहा, अबकी बार 400 पार... 400 पार क्यों? राज्यसभा में हमारा दो तिहाई बहुमत नहीं है. राज्य सरकारों में पर्याप्त बहुमत नहीं है. संविधान संशोधन करने और कांग्रेस द्वारा इसमें की गई विकृतियां हटाने के लिए दो तिहाई बहुमत चाहिए. साथ ही 20 से ज्यादा राज्यों में सत्ता में आना होगा. 

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