scorecardresearch
 

किसान आंदोलन: आखिर क्यों कृषि कानून वापसी की जिद पर अड़े हैं किसान?

कॉर्पोरेट कंपनियां कृषि क्षेत्र में आएं, किसी को तकलीफ नहीं है. लेकिन पिछले कुछ महीनों से सरकार, प्राइवेट कंपनियां और कुछ इकोनॉमिस्ट यह बता रहे हैं कि इन कानूनों से किसानों की आय एकदम से बढ़ जाएगी. इस बात को समझाने के लिए उनके पास कोई तर्क नहीं है. ऐसे में अगर किसानों की आय में इजाफा होना निश्चित है तो उनकी एक ही डिमांड है कि एमएसपी को कानूनी रूप से मान्यता दे दिया जाए.

Advertisement
X
किसान कृषि कानून वापस लेने की मांग की जिद पर अड़े हैं. (फाइल फोटो)
किसान कृषि कानून वापस लेने की मांग की जिद पर अड़े हैं. (फाइल फोटो)
स्टोरी हाइलाइट्स
  • पंजाब में भी किसानों का हाल महाराष्ट्र और एमपी जैसा
  • कॉर्पोरेट कंपनियां कृषि क्षेत्र में आएं किसी को तकलीफ नहीं
  • किसानों के साथ पिछले चार दशकों में काफी नाइंसाफी हुई

देश के किसान लगभग दो महीनों से हाड़ कंपा देने वाली ठंड के बीच दिल्ली बॉर्डर पर बैठे हुए हैं. कई लोगों ने किसान आंदोलन पर सवाल भी उठाए. आंदोलन को लेकर कई नेताओं के विवादित बयान भी सामने आए हैं. पाकिस्तान और खालिस्तान लिंक भी ढूंढा गया, लेकिन किसान अबतक डिगे नहीं हैं. ऐसे में देश को यह जानना बेहद जरूरी है कि किसानों की चिंताएं क्या हैं? क्यूं किसान पीछे हटने को तैयार नहीं हैं.

इसी मुद्दों को लेकर आजतक ने खाद्य और व्यापार नीति विशेषज्ञ देविंदर शर्मा से बात की... 

Advertisement

सवाल: किसानों के साथ ऐसी क्या नाइंसाफी हुई है जिसकी वजह से वह नए कृषि कानून को लेकर भी सशंकित हैं? 

जवाब: किसानों के साथ पिछले चार दशकों में काफी अनदेखी और नाइंसाफी हुई है. UNCTAD के एक अध्ययन से पता चलता है कि 1980 के दशक और 2000 के दशक के दौरान दुनिया भर में उत्पादन मूल्य स्थिर रहे. दूसरे शब्दों में कहें तो 2000 के दशक में किसानों की आय वैसी ही रही, जैसी 1980 के दशक में थी. अमीर देशों ने अपने किसानों को सब्सिडी दी, जिससे उन्हें ज्यादा नुकसान नहीं हुआ. वहीं, विकासशील देशों को इसको लेकर बेहद गंभीर परिणाम भुगतने पड़े. इकोनॉमिक सर्वे 2016 के अनुसार भारत में इस समय 17 राज्यों के किसानों की सालाना आय 20 हजार से भी कम है, यानि महीने में 1700 के आसपास. इतनी कम आय में आज के समय में एक गाय नहीं पाली जा सकती है, तो हम कैसे यह उम्मीद कर सकते हैं किसान अपना भरण पोषण कर पाएगा.

Advertisement

वहीं, 2018 में OECD (ऑर्गनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट) की एक रिपोर्ट के अनुसार 2000 से 2016-17 के बीच, भारतीय किसानों को 45 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ. यानि 16 सालों में हर वर्ष देशभर के किसानों को 2.64 लाख करोड़ रुपये का नुकसान झेलना पड़ा. इन तथ्यों को देखते हुए किसानों को यह डर है कि कॉर्पोरेट की इंट्री बाद जैसे सरकारी अस्पतालों और स्कूलो की व्यवस्था कमजोर हुई है, कुछ वैसा ही हाल कृषि क्षेत्र का भी हो जाएगा. 
 

सवाल- मंडी व्यवस्था का स्वरूप क्या है, किसान इससे कितना फायदा उठा पाते हैं ? 

जवाब: मंडी व्यवस्था को समझने के लिए हमें समय के पहिए को थोड़ा पीछे ले जाना पड़ेगा. दरअसल, साल 1930 में किसान नेता छोटूराम ने व्यापारियों द्वारा किसानों के शोषण को देखते हुए नियंत्रित मंडी सिस्टम के लिए आवाज उठाई थी. छोटूराम की इसी सोच को अपनाते हुए भारत सरकार ने बाद में हरित क्रांति के समय पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश समेत देश के कुछ अन्य राज्यों में एपीएमसी मंडियों के नेटवर्क का गठन किया था.

व्यापार को व्यवस्थित करते हुए किसानों को व्यापारियों के शोषण से मुक्त कराया जा सकने के उद्देश्य के साथ ऐसा किया गया था. यह वह समय था जब पहली बार किसानों को फसल के खरीद पर न्यूनतम समर्थन मूल्य की सुविधा दी गई. इसका प्रावधान था कि किसान अपने फसल को मंडियो तक लाएगा. जिसे प्राइवेट कंपनियां न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदेंगी. कारणवश अगर किसी किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं हासिल होता, तो उसकी फसल सरकार खरीदती थी. ऐसी व्यवस्था होने से किसानों को थोड़ा बहुत लाभ मिल जाता है. 

Advertisement

समय के साथ एपीएमसी मंडियों की व्यवस्था में भी थोड़ी खामियां आई हैं. इन खामियों को अब दूर करने की जरूरत है न कि मंडियो को एकदम से खत्म, या उसे कमजोर कर देने की. इस समय देशभर में कुल 7 हजार मंडियां है. जनसंख्या और क्षेत्रफल के लिहाज से यह संख्या बेहद कम है. हमें क्षेत्रफल के हिसाब से देश में कुल 42 हजार मंडियों की जरूरत है. यानि कि हर पांच किलोमीटर के रेडियस पर किसानों के लिए एक एपीएमसी मंडी होना बेहद जरूरी है.

दरअसल, भारत में ज्यादातर संख्या छोटे किसानों की है. ऐसे में वह इतने संपन्न नहीं हैं कि मंडियों तक आसानी से पहुंच पाएं. यही वजह है कि वह अपने अनाज आढ़तियों को औने–पौने दाम पर बेच आते हैं. ऐसी स्थिति में सरकार को चाहिए कि मंडिया किसानों तक लायी जाए, न कि उन्हे मंडियों के पास जाना पड़े. अगर मंडिया नजदीक होंगी तो किसान को फसल की कीमत सही मिलेगी और एमएसपी के डिलिवरी रेट में भी इजाफा होगा. 

सवाल: क्या पंजाब के किसान संपन्न हैं या पंजाब में भी किसानों की आत्महत्या के मामले महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश जैसे हैं ? 

जवाब: पंजाब के किसानों को संपन्न माना जाता है. हालांकि यहां के किसानों की आय देश के अन्य राज्यों से अधिक है. ऐसा इसलिए है क्योंकि पंजाब सरकार के पास हर साल 56 हजार करोड़ रूपये की रकम एमएसपी के लिए आता है. इसका दूसरा पहलू भी है. पंजाब का किसान आकंठ कर्ज में डूबा हुआ है. इन किसानों के सिर पर इस समय कुल एक लाख करोड़ रूपये का कर्ज है. राज्य में हर तीसरा किसान गरीबी रेखा के नीचे है.

Advertisement

इसके अलावा पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी लुधियाना,पंजाब यूनिवर्सिटी पटियाला, गुरु नानक यूनिवर्सिटी अमृतसर ने मिलकर 2000-2015 के समय अंतराल को लेकर एक हाउस टू हाउस सर्वे किया था. इस सर्वे में यह खुलासा हुआ था कि इन 15 सालों में राज्य के कुल 16 हजार, 600 किसानों और किसान मजदूरों ने आत्महत्या की. इसके पीछे वजह यह है कि पंजाब के किसानों ने खेती में जितना निवेश किया, उन्हें उतना बेहतर परिणाम नहीं मिला. इस कारण किसानों पर कर्ज लगातार बढ़ता गया. ऐसा कहना कि पंजाब के किसानों की स्थिति काफी बेहतर, उनके साथ नाइंसाफी है. आत्महत्या के मामले में पंजाब की भी समस्या महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों की तरह ही है. 

सवाल: कॉर्पोरेट कंपनियों के कृषि क्षेत्र में आने से क्या नुकसान है ? 

जवाब: कॉर्पोरेट कंपनियां कृषि क्षेत्र में आएं, किसी को तकलीफ नहीं है. लेकिन पिछले कुछ महीनों से सरकार, प्राइवेट कंपनियां और कुछ इकोनॉमिस्ट यह बता रहे हैं कि इन कानूनों से किसानों की आय एकदम से बढ़ जाएगी. इस बात को समझाने के लिए उनके पास कोई तर्क नहीं है. ऐसे में अगर किसानों की आय में इजाफा होना निश्चित है तो उनकी एक ही डिमांड है कि एमएसपी को कानूनी रूप से मान्य कर दिया जाए. शांता कुमार कमेटी के अनुसार देश में केवल 6 प्रतिशत किसान ही एमएसपी का फायदा उठा पाते हैं.

एमएसपी को लीगलाइज करने पर इसे सौ प्रतिशत तक लाया जा सकता है. इसके अलावा हर साल सरकार की तरफ से 23 फसलों पर एमएसपी की सुविधा दी जाती है, लेकिन उस रेट पर खरीद केवल दो पर ही होती है. सरकार को यह कानून लाना चाहिए कि 23 के 23 फसलों पर आगे से न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे खरीद न हो. वहीं, जब कॉर्पोरेट किसानों को एमएसपी से ज्यादा रेट देना चाह रहा है, तो उन्हें भी साथ आकर सिंघु बॉर्डर पर बैठना चाहिए. साथ में एमएसपी को कानूनी रूप से मान्यता देने की भी सरकार से मांग करनी चाहिए. लेकिन वह यह करने को तैयार नहीं हैं, बल्कि उनके लॉबिस्ट अखबारों में आर्टिकल लिख रहे हैं कि अगर एमएसपी को कानूनी मान्यता मिल गई तो सारे कृषि सुधार बर्बाद हो जाएंगे. ऐसे में कॉर्पोरेट की नियत में खोट दिखती है कि वह किसानों को उनके फसलों पर एमएसपी के बराबर मूल्य भी नहीं देना चाहते.

Advertisement

सवाल: क्या किसान आंदोलन को बदनाम करने की साजिश रची गई ? कब तक किसान अपनी मांगों पर अड़े रहेंगे? 

जवाब: इस आंदोलन के कई सकारात्मक पहलू रहे. पहले जो किसान एक दूसरे से मतभेद रखते थे, वो भी एक मंच पर साथ आ गए हैं. ये एक बड़ी सफलता है.हालांकि, खालिस्तानी फंडिंग और पाकिस्तानी फंडिंग के नाम पर आंदोलन को बदनाम करने की कोशिश की गई है. लेकिन किसान डिगे नहीं. वह ऐसा इसलिए कर पाए क्योंकि यह पूरा मुवमेंट किसानों के लिए है, किसानों का ही बनाया हुआ है. जो किसान आंदोलन में हैं वह अपना सब कुछ दांव पर लगा कर आए हैं. ऐसे में मुझे नहीं लगता कानून के सस्पेंशन से कम पर वह मानेंगे. किसानों ने इस दौरान आंदोलन के नाम पर किसी भी राजनैतिक और धार्मिक संस्थाओं को भी लाभ नहीं लेने दिया. आंदोलनों के इतिहास में यह बेहद कम ही देखा जाता है. 

भारत के किसान विश्व भर के किसानों के लिए बन रहे रोल मॉडल 

किसानों की यह बदहाल स्थिति केवल भारत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में है. अमेरिका, कनाडा और यूरोप जैसे अमीर देशों में भी किसानों की स्थिति इतनी बेहतर नहीं है. उनको भी अपने यहां फसलों पर वह खरीद मूल्य नहीं मिल पाता है, जितने के हकदार हैं. वहीं यहां आंदोलन कर रहे किसानों को यह पता ही नहीं है कि पूरी दुनिया के किसानों की नजरें उनपर है. अगर भारत में ये आंदोलन सफल हो जाता है, तो यह दुनिया भर के किसानों के लिए एक मॉडल हो जाएगा. उनको भी अपने यहां भी उत्पन्न समस्याओं से निपटने का एक रास्ता मिल जाएगा. उम्मीद है भारतीय किसान के दुनिया भर के किसान के लिए रोल मॉडल साबित होंगे. 

Advertisement

देखें- आजतक LIVE TV

 

Advertisement
Advertisement