बिहार में नीतीश कुमार सरकार ने सोमवार को जातीय जनगणना सर्वे के आंकड़े जारी कर दिए हैं. इस तरह की जनगणना कराने वाला बिहार, देश का पहला राज्य बन गया है. जातीय जनगणना रिपोर्ट को मंडल रिपोर्ट 2.0 कहा जा रहा है. देश में पिछड़ी जातियों के आरक्षण के लिए 1990 में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू की गई थीं. अब 33 साल बाद एक बार फिर जातीय जनगणना से जुड़ी रिपोर्ट चर्चा में आई है. इस रिपोर्ट के आने के बाद सियासत भी गरमा गई है. हम आपको बताएंगे कि मंडल आयोग की उस रिपोर्ट में क्या था और कितना बवाल मचा था? इसकी पूरी कहानी...
कांग्रेस समेत अन्य दलों ने ओबीसी और सामाजिक न्याय का कार्ड खेलने की तैयारी की है. वहीं, बीजेपी नेता ने इस रिपोर्ट को भ्रामक बताया है. माना जा रहा है कि बीजेपी पर भी केंद्रीय स्तर पर जातिगत जनगणना कराए जाने का दबाव बढ़ रहा है. राजनीतिक गलियारों में कहा जा रहा है कि नीतीश कुमार ने 2024 के चुनाव से ठीक पहले ट्रम्प कार्ड खेला है. महागठबंधन सरकार ने मंडल कमीशन के दौर के बाद ओबीसी सियासत को गरमाने का नया रास्ता दे दिया है. बीजेपी ओबीसी मोर्चे को भी तगड़ी टक्कर दी गई है. कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने भी अपने इरादे साफ कर दिए हैं. उन्होंने 'जिसकी जितनी आबादी, उसकी उतनी हिस्सेदारी' का नारा बुलंद किया है.
'देश में 92 साल पुराने जातिगत आंकड़े'
बता दें कि देश में आखिरी बार साल 1931 में जातीय जनगणना के आंकड़े जारी हुए थे. हालांकि, 10 साल बाद यानी 1941 में भी जातीय जनगणना हुई, लेकिन आंकड़े सावर्जनिक नहीं किए गए थे. यानी देश में भी जो सरकारी योजनाएं संचालित हो रही हैं, वे 1931 की जातीय जनगणना के आधार पर लागू हो रही हैं. करीब 92 साल पुराने आंकड़े के मुताबिक, देश में 52 फीसदी ओबीसी समुदाय है. वहीं, आजादी के बाद 1951 में जातिगत जनगणना की मांग उठी तो तत्कालीन सरकार ने यह कहकर खारिज कर दिया था कि इससे समाज का ताना बाना बिगड़ सकता है. तब से सरकार ने जातिगत जनगणना के फैसले से परहेज किया.
'पिछड़ी जातियों के लिए गठित हुआ था मंडल कमीशन'
1979 में पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने के लिए मंडल कमीशन बनाया गया. इस आयोग ने ओबीसी वर्ग को आरक्षण देने की सिफारिशें की. आयोग ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि देशभर में ओबीसी की संख्या 52 प्रतिशत है. उन्हें सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण दिया जाए. बताते चलें कि मंडल कमीशन की अध्यक्षता बीपी मंडल ने की थी. आयोग ने साल 1980 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की और 1990 में इसे लागू किया गया था. आयोग की रिपोर्ट के विरोध में देशभर में विरोध-प्रदर्शन हुए थे. 2011 में कांग्रेस की यूपीए सरकार ने भी सामाजिक-आर्थिक जनगणना करवाई थी, लेकिन इसके आंकड़े जारी नहीं किए थे.
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'पिछड़ी जातियों के लिए यह दो आयोग भी बनाए गए'
गौरतलब है कि ओबीसी मुद्दे पर काका कालेलकर कमीशन भी 1953 में बनाया गया था, जिसमें 2399 पिछड़ी जातियों की पहचान की गई थी. हालांकि, कई खामियों के कारण आयोग की सिफारिशें लागू नहीं की गईं. बाद में 20 दिसंबर, 1978 को मोराजजी देसाई की सरकार ने पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया. इसे ही मंडल आयोग के नाम से जाना गया. जनवरी से आयोग ने काम शुरू किया. इसके अलावा, 2017 में सबकैटेगराइजेशन के संबंध में जस्टिस रोहिणी कमीशन भी बनाया गया था. आयोग ने इसी साल जुलाई में एक रिपोर्ट राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को सौंपी थी. हालांकि, यह रिपोर्ट अभी सार्वजनिक नहीं की गई है.
'1931 के आंकड़े के आधार पर लागू है व्यवस्था'
बिहार सरकार के आंकड़ों के अनुसार, राज्य की कुल जनसंख्या 13.07 करोड़ से ज्यादा है, जिसमें से अत्यंत पिछड़ा वर्ग (36 प्रतिशत) सबसे बड़ा सामाजिक वर्ग है. उसके बाद अन्य पिछड़ा वर्ग 27.13 प्रतिशत है. पिछड़ी जाति के राजनेताओं ने लंबे समय से दावा किया है कि जिन जातियों का वे प्रतिनिधित्व करते हैं, उनकी जनसंख्या 1931 की जनगणना के आधार पर लागू की गई है. यह संख्या उससे कहीं ज्यादा है. सर्वे में यह भी कहा गया है कि ओबीसी समाज में यादव सबसे बड़ी जाति है. राज्य में 14.27 प्रतिशत यादव हैं. अनुसूचित जाति (दलित) की कुल आबादी का 19.65 प्रतिशत हैं. अनुसूचित जनजाति की आबादी करीब 22 लाख (1.68 प्रतिशत) है. 1990 के दशक की मंडल लहर तक राजनीति पर हावी रहने वाली सामान्य जाति की कुल आबादी 15.52 प्रतिशत है.
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'नीतीश ने मंडल पार्ट 2 का सवाल टाला'
हालांकि, सोमवार को आंकड़े सामने आने के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पत्रकारों से बातचीत की. उन्होंने इस सवाल को टाल दिया कि क्या ये सर्वे 'मंडल पार्ट 2' साबित होगा. दरअसल, विभिन्न जातियों की तरफ से उनकी आबादी के अनुपात में संशोधित कोटा की मांग उठाई जा रही है. इसे भाजपा के लिए परेशानी पैदा करने वाला माना जा रहा है.
'सर्वे का सभी जातियों को मिलेगा लाभ'
नीतीश ने कहा, अभी मेरे लिए इस तरह के विवरण में जाना उचित नहीं होगा. मुझे मंगलवार को सभी पक्षों के साथ आंकड़े साझा करने दीजिए. उसके बाद हमारा ध्यान उन जातियों के लिए नीतियां बनाने पर होगा जिन्हें ज्यादा मदद की जरूरत समझा जा सकता है. सर्वे से बिना किसी अपवाद के सभी जातियों को लाभ मिलेगा. सर्वे के आंकड़े उन सभी 9 दलों के प्रतिनिधियों के सामने रखे जाएंगे, जिनकी राज्य विधानमंडल में उपस्थिति है और सर्वे के लिए सहमति दी थी. नीतीश ने यह भी विश्वास जताया कि बिहार का जातिगत सर्वे देशव्यापी जातिगत जनगणना की उम्मीदें जगाएगा.
'केंद्र में आने पर जातिगत जनगणना कराएंगे'
राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद ने भी एक बयान जारी किया. उन्होंने कहा कि यह सर्वे देशव्यापी जाति जनगणना के लिए रास्ता खोलेगा. केंद्र में हमारी अगली सरकार बनने पर जातिगत जनगणना करवाई जाएगी. लालू और नीतीश दोनों ने विपक्षी गठबंधन I.N.D1I.A के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. हाल ही में बेंगलुरु में आयोजित एक बैठक में विपक्षी गुट ने केंद्र में सरकार बनने पर जाति जनगणना कराने का वादा किया है.
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'जाति सर्वे कराने में सफल रहा बिहार'
जानकारों का कहना है कि यह सर्वे आम चुनावों से पहले की राजनीति को गरमाएगा. सीपीआई नेता दीपांकर भट्टाचार्य ने कहा, 2021 में कोई नियमित जनगणना नहीं हुई थी. जबकि बिहार इस साल जाति सर्वे करने में कामयाब रहा है. यह केंद्र सरकार की अक्षमता को उजागर करता है. मुस्लिम आबादी भी 17.7 प्रतिशत (2011 की जनगणना में 16.86 प्रतिशत के मुकाबले) पाई गई है. यह बांग्लादेशी मुसलमानों की घुसपैठ के बारे में संघी दुष्प्रचार को उजागर करता है.
'जातिगत मसले पर फिर से विचार करना होगा'
सर्वे से पता चलता है कि राज्य में बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय कुल जनसंख्या 81.99 प्रतिशत है, उसके बाद मुस्लिम 17.70 प्रतिशत हैं. ईसाई, सिख, जैन और अन्य धर्मों से जुड़े लोगों की जनसंख्या एक प्रतिशत से भी कम है. भट्टाचार्य ने यह भी बताया कि नौकरी में आरक्षण के लिए मंडल की सिफारिशें 1931 की जनगणना पर आधारित थीं, जिसमें पिछड़ों का 52 प्रतिशत बताया गया था. लेकिन हम देख सकते हैं कि जनसंख्या तब से बढ़ी है... इसका मतलब है कि इस मसले पर नए सिरे से सोचना होगा.
'आंकड़ों का एनालिसिस करेगी बीजेपी'
हालांकि, बीजेपी ने जाति सर्वे पर असंतोष जताया है. बिहार बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष सम्राट चौधरी ने कहा कि उनकी पार्टी ने इस सर्वे के लिए अपनी सहमति दी थी और अब सार्वजनिक किए गए आंकड़ों का आकलन किया जाएगा.
'मंडल कमीशन पर क्यों उठे थे सवाल'
मंडल का डेटा 1931 की जनगणना की जाति गणना से लिया गया था. आयोग ने 1971 की जनगणना में आंकड़ों पर पहुंचने के लिए इसे अपने डेटा बेस के रूप में उपयोग किया, जिसे जाति के अनुसार विभाजित नहीं किया गया था. 1931 और 1971 के बीच बीते 40 वर्षों में यह जानने का कोई तरीका नहीं था कि कौन-सी जातियां सामाजिक-आर्थिक सीढ़ी पर ऊपर या नीचे बढ़ी हैं. इसलिए, आयोग के आंकड़े काल्पनिक होने का दावा किया गया था. दरअसल, राष्ट्रीय नमूना सर्वे के अनुसार, अन्य पिछड़ा वर्ग की आबादी देश की आबादी की करीब 41 प्रतिशत है. लेकिन, मंडल आयोग के हिसाब से करीब 52 प्रतिशत है.
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'मंडल कमीशन पर उठाए गए थे सवाल'
जानकारों का कहना था कि संविधान, सामाजिक और आर्थिक रूप से वंचित वर्गों में सुधार की वकालत करता है. हालांकि, मंडल 'पिछड़े' की अपनी परिभाषा पर कैसे पहुंचे, इसकी सटीक परिभाषा दिए बिना वर्ग को जाति में बदल दिया. विरोध में तर्क था कि सिफारिशों के कारण आरक्षण कुछ जातियों तक ही सिमट कर रह जाएगा. मंडल आयोग ने का कहना था कि ओबीसी को आरक्षण मिलने पर दूसरी जातियों के लोगों को परेशानी होगी, लेकिन यह सामाजिक सुधार के लिए जरूरी है. 1990 में विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार ने मंडल आयोग की दो सिफारिशें लागू की थीं. इसमें ओबीसी वर्ग को केंद्र सरकार की नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण और दूसरा, केंद्र सरकार के उच्च शिक्षा संस्थानों के एडमिशन में ओबीसी का 27 फीसदी आरक्षण. बाकी सिफारिशें अभी तक लागू नहीं की गई हैं.
'पिछड़ों ने बताया था बड़ी उपलब्धि'
आरोप लगाया गया था कि मंडल रिपोर्ट में पिछले 40 वर्षों में पूरे देश में हुए व्यापक बदलावों को भी नजरअंदाज किया गया. जिससे तथाकथित पिछड़ी जातियों को लाभ हुआ है, जिनमें से कई अब बड़े भूमि धारक हैं. आरक्षण से पिछड़ों के सीमांत अभिजात वर्ग को ही मदद मिलेगी या फिर सरकार आर्थिक मानदंडों के अनुसार वंचितों को वर्गीकृत करने का विरोध क्यों कर रही है? आयोग समर्थकों का कहना था कि गांधीवादी विचारधारा ने हरिजनों के लिए जो किया, वही मंडलवाद पिछड़ों के लिए करेगा. जाति के आधार पर नौकरियों में आरक्षण के कारण अब पिछड़ों की पहचान एक समग्र समाज के रूप में होगी. यह एक बड़ी उपलब्धि है जो उन्हें एकजुट होने और समानता के लिए लड़ने में मदद करेगी.
'कैसे लागू हुई थीं मंडल कमीशन की सिफारिशें?'
दिसंबर 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में जनता दल की सरकार बनी थी. ओबीसी समुदाय से जुड़े नेताओं ने सरकार पर मंडल कमीशन पर आगे बढ़ने का दबाव बनाना शुरू किया. 25 दिसंबर 1989 को सरकार ने एक 'एक्शन प्लान' बनाने का ऐलान किया और पूरी प्रक्रिया की निगरानी के लिए देवीलाल की अगुआई में एक कमेटी का गठन किया. बाद में वीपी सिंह और देवीलाल के बीच टकराव हुआ और अन्य नेताओं ने मौके का फायदा उठाया. वीपी सिंह ने अपनी सरकार पर मंडराते खतरे और मध्यावधि चुनाव की आशंका को देखते हुए 7 अगस्त 1990 को सरकारी नौकरियों में ओबीसी समुदाय के लिए 27 फीसदी आरक्षण लागू करने की घोषणा कर दी. मंडल कमीशन ने अपनी रिपोर्ट के अध्याय 13 में कुल 40 पॉइंट में सिफारिशें की थीं.
राजनीतिक जानकारों का कहना है कि ओबीसी वर्ग से जुड़े नेता मानते हैं कि उनको आबादी के मुताबिक कम आरक्षण मिल रहा है. ऐसे में निश्चित है कि अगर ओबीसी जातियों की जनसंख्या 1931 की जनगणना के मुकाबले ज्यादा निकलती है तो मंडल समर्थकों की ओर से 27 फीसदी कोटा को बढ़ाए जाने की मांग की जाएगी, जिससे देश में एक बार फिर से आरक्षण के नाम पर माहौल तनावपूर्ण होगा. ऐसे में कोई भी सरकार नहीं चाहेगी कि जिस तरह की घटनाएं मंडल कमीशन को लागू करने के बाद हुईं थीं, वैसे हालात फिर से बनें. यही कारण है कि कोई भी सरकार जातिगत जनगणना की बातें तो करती है लेकिन, पवार में आने पर इससे दूरी बना लेती है.
बदल गई थी देश की सियासत
कहा तो जाता है कि देवीलाल के बढ़ते कद को रोकने के लिए वीपी सिंह ने मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू की थीं. उनके इस फैसले ने देश की सियासत बदल दी. सवर्ण जातियों के युवा सड़कों पर उतर आए और उग्र विरोध-प्रदर्शन होने लगे. आरक्षण विरोधी आंदोलन के नेता बने राजीव गोस्वामी ने आत्मदाह कर लिया. कांग्रेस ने खुलकर विरोध किया तो बीजेपी ने नए पैंतरे के साथ खुद को किनारे कर लिया. कांग्रेस ने भी वीपी सरकार के फैसले का विरोध किया. कहा जाता है कि मंडल कमीशन को लागू करने के बावजूद वीपी सिंह कभी पिछड़ी जातियों के नेता नहीं बन पाए और अपने सवर्ण समाज की नजर में पूरी उम्र खलनायक बने रहे.