साल था 1931. भारत में आजादी का आंदोलन अपने चरम पर था. स्वाधीनता के लिए लड़ी जाने वाली इस लड़ाई में पुरुष ही नहीं, महिलाएं भी जोर-शोर से हिस्सा ले रही थीं. इसके साथ ही यह भावना भी बलवती हो रही थी कि राजनीतिक क्षेत्र में भी महिलाएं पुरुषों से किसी भी मायने में कम या पीछे नहीं हैं. इस भावना को बल देने वाली और जन भावना बनाने वाली जननायिका का नाम था सरोजिनी नायडू.
इसी साल सरोजिनी नायडू ने ब्रिटिश पीएम को पत्र लिखकर महिलाओं के राजनीतिक अधिकार को लेकर बात की थी. उनके मुताबिक महिलाओं को मनोनीत करके किसी पद पर बैठाना एक किस्म का अपमान है. वह चाहती थीं कि महिलाएं मनोनीत न हों, बल्कि चुनी जाएं. सरोजिनी नायडू के आजादी से 17 साल पहले ही उठाए इस कदम ने बाद में महिलाओं के आरक्षण संबंधी बहस को जन्म दिया.
महिला आरक्षण बिल पर चर्चा के लिए ये मौजूं समय इसलिए भी है, क्योंकि एक तो इसी महीने संसद का विशेष सत्र बुलाया गया है, जिसमें कई अन्य बिलों को पटल पर रखे जाने के साथ महिला आरक्षण बिल को भी पेश किए जाने की संभावना है तो वहीं एक और खास वजह है, जिसके कारण इस बिल पर बात करना प्रासंगिक हो जाता है. दरअसल इसी सितंबर महीने की 12 तारीख बेहद अहम है, क्योंकि तब इस बात को पूरे 27 साल हो जाएंगे, जब संसद के पटल पर पहली बार 1996 में महिला आरक्षण बिल रखा गया था. उस दौर में सरकार एचडी देवगौड़ा की थी, वह पीएम थे और महिला आरक्षण बिल को विरोधों का सामना करना पड़ा था, लिहाजा ये सिर्फ पेश हुआ, पास नहीं हो सका.
तब से लेकर अब स्थिति कितनी बदल गई है?
राजनीति में महिलाओं की स्थिति की बात करें तो यह बहुत बेहतरीन तो कभी नहीं रही है. पहली लोकसभा 1952 में बनी और उसमें केवल 24 महिला सांसद थीं. यह संख्या घटती बढ़ती रही पर कभी भी 14 प्रतिशत से अधिक नहीं हुई. अभी मौजूदा लोकसभा में यानी 17वीं लोकसभा में महिला राजनेताओं की अब तक की सबसे अधिक संख्या 78 यानी लगभग 14% है, जबकि पिछली लोकसभा की बात करें तो तब 62 महिलाएं सांसद थीं.
इस बीच विडंबना यह भी है कि 1996 के बाद कई बार महिला आरक्षण विधेयक पटल पर रखा गया और हर बार इसे विरोध का ही सामना करना पड़ा. 2019 के लोकसभा चुनाव से भी दो साल पहले यानी 2017 में कांग्रेस अध्यक्ष रहीं सोनिया गांधी ने पीएम मोदी के नाम इसे लेकर चिट्ठी लिखी थी. महिला आरक्षण बिल 2010 में राज्यसभा से पास होने के बाद भी लोकसभा में पेश नहीं हो सका है. इसी वजह से अभी तक ये बिल अधर में लटका हुआ है.
कब-कब सदन में रोका गया बिल
एक काम करते हैं, बिल पर और बातें करने से पहले ये जान लेते हैं 1996 में पटल पर रखे जाने से लेकर साल 2010 में राज्यसभा से पास होने तक महिला आरक्षण विधेयक कब-कब सदन से ठुकराया गया. इसका सिलसिला 12 सितंबर 1996 से शुरू होता है. बिल को पटल पर रखा गया, विरोध के कारण पास नहीं हो सका, फिर बिल को वाजपेयी सरकार में पटल पर लाया गया था, लेकिन उस साल भी बात नहीं बनी. इसी तरह 1999, 2003, 2004 और 2009 में बिल के पक्ष में उठने वाले आवाजें कम ही रह गईं, लिहाजा ये विधेयक पास नहीं हो सका. देखिए तारीखें...
12 सितंबर 1996- महिला आरक्षण विधेयक को पहली बार एचडी देवगौड़ा सरकार ने 81वें संविधान संशोधन विधेयक के रूप में संसद में पेश किया. इसके बाद ही देवगौड़ा सरकार अल्पमत में आ गई और 11वीं लोकसभा को भंग कर दिया गया. विधेयक को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सांसद गीता मुखर्जी की अध्यक्षता वाली संयुक्त संसदीय समिति के पास भेजा गया. इस समिति ने नौ दिसंबर 1996 को लोकसभा को अपनी रिपोर्ट पेश की.
26 जून 1998- अटल बिहारी वाजयेपी के नेतृत्व वाली NDA की सरकार ने महिला आरक्षण विधेयक को 12वीं लोकसभा में 84वें संविधान संशोधन विधेयक के रूप में पेश किया, लेकिन पास नहीं हो सका. इसके बाद अटल बिहारी वाजपेयी की नेतृत्व वाली NDA सरकार अल्पमत में आ जाने से गिर गई और 12वीं लोकसभा भंग हो गई.
22 नवम्बर 1999- एक बार फिर से सत्ता में लौटी NDA सरकार ने 13वीं लोकसभा में महिला आरक्षण विधेयक को फिर से पेश किया, लेकिन इस बार भी सरकार इस पर सभी को सहमत नहीं कर सकी.
साल 2002 और 2003- बीजेपी नेतृत्व वाली NDA सरकार ने महिला आरक्षण विधेयक पेश किया, लेकिन कांग्रेस और वामदलों के समर्थन के आश्वासन के बावजूद सरकार इस विधेयक को पारित नहीं करा सकी.
मई 2004- कांग्रेस की अगुवाई वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (UPA) ने अपने न्यूनतम साझा कार्यक्रम में महिला आरक्षण विधेयक को पारित कराने के इरादे का ऐलान किया. 6 मई 2008- महिला आरक्षण बिल राज्यसभा में पेश हुआ और उसे कानून एवं न्याय से संबंधित स्थायी समिति के पास भेजा गया.
17 दिसंबर 2009- स्थायी समिति ने अपनी रिपोर्ट पेश की और समाजवादी पार्टी, जेडीयू तथा आरजेडी के विरोध के बीच महिला आरक्षण विधेयक को संसद के दोनों सदनों के पटल पर रखा गया.
22 फरवरी 2010- तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने संसद में अपने अभिभाषण में कहा था कि सरकार महिला आरक्षण विधेयक को जल्द पारित कराने के लिए प्रतिबद्ध है. 25 फरवरी 2010- केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने महिला आरक्षण विधेयक का अनुमोदन दिया.
08 मार्च 2010- महिला आरक्षण बिल को राज्यसभा के पटल पर रखा गया, लेकिन सदन में हंगामे और एसपी और राजद द्वारा UPA से समर्थन वापस लेने की धमकी की वजह से उस पर मतदान नहीं हो सका.
09 मार्च 2010- कांग्रेस ने बीजेपी, जेडीयू और वामपंथी दलों के सहारे राज्यसभा में महिला आरक्षण विधेयक भारी बहुमत से पारित कराया.
राज्यसभा ने 9 मार्च, 2010 को महिला आरक्षण विधेयक पारित किया था, हालांकि लोकसभा ने कभी भी विधेयक पास नहीं हो सका लिहाजा इस विधेयक को समाप्त कर दिया गया. यह अभी तक लोकसभा में लंबित रहा तो अब इसे फिर से पारित कराने की प्रक्रिया करनी होगी.
जब पंचायतों-नगरपालिकाओं में आरक्षित की गईं एक तिहाई सीटें
एक खास बात और बता दें कि, महिला आरक्षण बिल के इतिहास में वर्ष 1974 की एक तारीख भी बेहद अहम है. इसी साल संसद में महिलाओं के प्रतिनिधित्व का मुद्दा भारत में महिलाओं की स्थिति के आकलन संबंधी समिति की रिपोर्ट में पहली बार उठाया गया था. राजनीतिक इकाइयों में महिलाओं की कम संख्या का जिक्र करते हुए रिपोर्ट में पंचायतों और स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित करने का सुझाव दिया गया था.
महिलाओं के लिये National Perspective Plan में वर्ष 1988 में सिफारिश की गई थी कि महिलाओं को पंचायत स्तर से लेकर संसद के स्तर तक दिया जाना चाहिये. इन सिफारिशों ने संविधान के 73वें और 74वें संशोधन को राह दी, इसके बाद साल 1993 में संविधान में 73वें और 74वें संशोधन के तहत पंचायतों तथा नगरपालिकाओं में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित की गईं. इस फैसले को मील के पत्थर के तौर पर देखा गया और लंबे सफर के पहले पड़ाव के रूप में पहचान मिली थी. वहीं, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड और केरल जैसे कई राज्यों ने स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिये 50% आरक्षण तय करने लिए कानूनी प्रावधान किए गए हैं.
वो विवादास्पद घटनाएं, जो इस पहल के साथ कलंक के तौर पर जुड़ गईं
विधेयक को कई बार पटल पर रखकर जब इस पर चर्चा होने लगीं, तो सदन में इसके विरोधियों ने अपने तेवर दिखाते हुए जो बातें कहीं, जो बयान दिए वह कभी न भूलने वाली विवादास्पद घटनाएं बन गईं.
'परकटी महिलाओं को...'
1996 में जब विधेयक को पटल पर रखा गया तो जदयू की ओर से कड़ा विरोध दर्ज कराया गया. इस पर लगातार हो रही बहस के बीच 1997 में शरद यादव ने लोकसभा में कहा, इस बिल से सिर्फ पर-कटी औरतों को फायदा पहुंचेगा. शरद यादव ने कहा था कि इस विधेयक के जरिए क्या परकटी महिलाओं को सदन में लाना चाहते हैं। परकटी महिलाएं हमारी ग्रामीण महिलाओं का प्रतिनिधित्व कैसे करेंगी.
'बिल पास हुआ तो जहर खा लूंगा'
इसी तरह साल 2009 में JDU के अध्यक्ष रहे शरद यादव ने महिला आरक्षण बिल को लेकर जहर खाने की धमकी दी थी. लोकसभा में बोलते हुए शरद यादव ने कहा कि सरकार ने सौ दिन के भीतर महिला आरक्षण बिल पास कराने का ऐलान किया है लेकिन मौजूदा स्वरूप उनकी पार्टी को मंजूर नहीं है. उन्होंने कहा कि 'जिस तरीके से अकेले सुकरात ने झुकने की बजाय जहर खाना स्वीकार किया था उसी तरह वह भी सदन में जहर खा लेंगे लेकिन महिला आरक्षण बिल को कभी पास नहीं होने देंगे.' शरद यादव ने कहा कि जब तक कोटे के भीतर कोटा सिस्टम लागू नहीं किया जाता तब तक अपना इसे वह समर्थन नहीं देंगे.
बता दें कि साल 2009 में कांग्रेस इस बिल को पास कराने के बेहद करीब पहुंच गई थी लेकिन संसद में यादव तिकड़ी लालू, मुलायम और शरद यादव के विरोध के चलते कदम पीछे खींचने को मजबूर हुई. तीनों ही नेताओं ने अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी), अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और अल्पसंख्यकों के लिए कोटा के भीतर कोटा की मांग की थी.
जब संसद में फाड़ दी गई बिल की कॉपी
महिला आरक्षण विधेयक को लेकर देश की संसद में ऐसा कृत्य भी हुआ, जिसे संसद के इतिहास में बदनुमा दाग माना जाता है. साल 1998 में सुरेंद्र यादव जहानाबाद लोकसभा सीट से राजद सांसद थे. सुरेंद्र प्रसाद यादव लोकसभा अध्यक्ष जीएमसी बालयोगी की सीट के पास पहुंच गए थे. उन्होंने सदन में तत्कालीन उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी के हाथों से महिला आरक्षण बिल की कॉपी लेकर फाड़ दी. इसे संसद में हुए शोभनीय कृत्यों में एक गिना जाता है.
2008 में भी हुई बिल फाड़ने की कोशिश
2008 में तत्कालीन कानून मंत्री एचआर भारद्वाज राज्यसभा में 'नया और बेहतर' महिला आरक्षण विधेयक पेश करने वाले थे. संसद के बाहर यूपीए के सहयोगी ही उसका विरोध कर रहे थे.इस दौरान भी सपा के सदस्यों ने राज्यसभा में बिल पर चर्चा से पहले उसे छीनने और फाड़ने की कोशिश की. उस वक्त कुछ महिला सांसदों ने भारद्वाज के चारों ओर एक घेरा सा बनाकर उन्हें और बिल को बचाया. बिल स्टैंडिंग कमिटी को भेजा गया.
आखिर लालू-मुलायम चाहते क्या थे?
महिला आरक्षण बिल के पास न होने पाने की अब तक की कहानी देखते हैं तो ये साफ हो जाता है कि इसका सबसे अधिक विरोध लालू-मुलायम ने किया. शरद यादव तो पहले से विरोध में थे ही. यानी सपा-राजद और जदयू इस बिल पर लगातार विरोध कर रही थीं. यूपीए-2 के दौरान महिला आरक्षण बिल पास होने की सबसे ज्यादा उम्मीद थी. जब बिल पेश हुआ, तब बीजेपी और लेफ्ट दल इसके समर्थन में थे. मगर लोकसभा में 22 सांसदों वाली सपा और 4 सांसदों वाली आरजेडी ने विरोध किया. मुलायम और लालू ने कहा कि वे विरोध इसलिए कर रहे हैं क्योंकि इसमें अल्पसंख्यकों और अन्य पिछड़ा वर्ग के हितों का ध्यान नहीं रखा गया है. मुलायम ने कहा था कि 'मुस्लिमों और दलितों के लिए आरक्षण होना चाहिए.' उधर, लालू का कहना था कि, 'कांग्रेस किसी की सुनना नहीं चाहती. बिल में असली भारत की झलक दिखनी चाहिए. कांग्रेस महिलाओं और मुस्लिमों को पीछे छोड़ रही है.'
बिल में क्या है?
महिला आरक्षण विधेयक में महिलाओं के लिये लोकसभा एवं राज्य विधानसभाओं में 33% सीटें आरक्षित करने का प्रस्ताव है. आरक्षित सीटों को राज्य या केंद्रशासित प्रदेश के विभिन्न चुनावी क्षेत्रों में क्रमिक रूप से आवंटित किया जा सकता है. इस संशोधन अधिनियम के लागू होने के 15 वर्ष बाद महिलाओं के लिये सीटों का आरक्षण समाप्त हो जाएगा.
महिलाओं के आरक्षण की खिलाफत क्यों?
महिलाओं को आरक्षण दिए जाने की राह में कई अड़चने है. बिल के विरोध की पहली वजह है कि, समानता का अधिकार. दावा किया जाता है कि अगर महिला आरक्षण बिल पास होता है तो यह संविधान में दिए गए समानता के अधिकार का उल्लंघन होगा. समानता के अधिकार की गारंटी लिंग, भाषा, क्षेत्र, समुदाय आदि किसी भी भेद से परे है. एक तर्क यह भी है कि अगर महिलाओं को आरक्षण मिला तो वे योग्यता के आधार पर प्रतिस्पर्द्धा नहीं करेंगी, जिससे महिलाओं की सामाजिक स्थिति में गिरावट आ सकती है. महिलाएं कोई सजातीय समुदाय नहीं हैं, जैसे कि कोई जाति समूह, इसलिये महिलाओं के लिये जाति-आधारित आरक्षण हेतु जो तर्क दिये गए हैं, वे ठीक नहीं हैं.
विधेयक लागू होता है तो क्या होगी स्थिति?
अभी के दौर में लोकसभा में सांसदों की संख्या 543 है. इसके साथ महिला सांसदों की संख्या 78 है. फीसदी में देखा जाए तो 14 प्रतिशत. राज्यसभा में 250 में से 32 सांसद ही महिला हैं यानी 11 फीसदी. मोदी कैबिनेट में महिलाओं की हिस्सेदारी 5 फीसदी के आसपास है. अगर विधेयक लागू हो जाता है तो लोकसभा में महिला सांसदों की संख्या 179 तक हो जाएगी.
वहीं विधानसभाओं की बात करें तो दिसंबर 2022 में संसद में कानून मंत्री किरेन रिजीजू ने महिलाओं की हिस्सेदारी को लेकर एक डेटा पेश किया था. इसके मुताबिक आंध्र प्रदेश, असम, गोवा, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, केरल, कर्नाटक और मध्य प्रदेश में महिला विधायकों की संख्या 1 फीसदी तो वहीं 9 राज्यों में महिला विधायकों की संख्या 10 फीसदी से भी कम है. इन राज्यों में लोकसभा की 200 से अधिक सीटें हैं. वहीं बिहार, यूपी, हरियाणा, राजस्थान, झारखंड, पश्चिम बंगाल और दिल्ली में महिला विधायकों की संख्या 10 फीसदी से अधिक लेकिन 15 फीसदी से कम है.