सदाशिव अमरापुर ने 25 साल के फिल्मी करियर में 300 से ज्यादा फिल्मों में काम किया और फिल्मी हीरो का हिरोइनों से मिलना
हराम किया. लेकिन असल जिंदगी के पर्दे पर उन्होंने ताउम्र एक ऐसे शख्स का किरदार निभाया जिसने लोगों की जिंदगी बेहतर करने
के लिए पिटाई भी खाई. 2013 में होली के दौरान पानी की बर्बादी का विरोध कर रहे सदाशिव अमरापुर को बुरी तरह पीटा गया.उनका
संसार सिनेमा तक सिमटा नहीं था वो सामजिक कार्यकर्ता भी थे.
सदाशिव अमरापुरकर का जन्म महाराष्ट्र के अहमदनगर में 1950 में हुआ. बचपन में उन्हें तात्या के नाम से पुकारा जाता था. स्कूल के
दिनों से उन्हें अभिनय का शौक था.
सदाशिव का संसार सिनेमा तक सिमटा नहीं था वो सामजिक कार्यकर्ता भी थे. 2013 में होली के दौरान पानी की बर्बादी का विरोध कर रहे सदाशिव अमरापुर को बुरी तरह पीटा गया.
जब गोविंद निहलाणी ने उन्हें एक मराठी नाटक में देखा, वो सदाशिव की अदाकारी से इतने खुश हुए कि उन्हें फिल्म 'अर्धसत्य' का ऑफर दे दिया. इस फिल्म के लिए उन्हें फिल्म फेयर अवॉर्ड भी मिला. दूसरा फिल्म फेयर अवार्ड 1991 में फिल्म 'सड़क' के लिए मिला.
अमरापुरकर छोटा कद और गैरपारंपरिक कद-काठी के बावजूद खलनायकी की दुनिया में बड़ा नाम कमाया. सदाशिव की कुटिल मुस्कान पर्दे पर
खलनायकी की एक पहचान बन गई.
1987 में जब धर्मेन्द्र के साथ उन्होंने फिल्म 'हुकूमत' में खलनायक की भूमिका निभाई तब उन्हें बड़े रोल मिलन लगे.
80 के बाद के दशकों में सदाशिव अमरापुरकर ने खलनायकी की बंधी बंधाई सीमा से खुद को आजाद किया. वो चरित्र अभिनेता भी
बने और हास्य कलाकार भी. लेकिन आखिर तक लोगों ने उन्हें एक खलनायक के रूप में ही याद रखा.
नब्बे के दशक से फिल्म 'आंखें', 'इश्क', 'कूली नंबर वन', 'गुप्त', 'आंटी नंबर वन' में वह सहायक भूमिकाओं में दिखने लगे.