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मुलायम सिंह यादव: मिट्टी में उपजा समाजवाद जिसने 'परिंदों' पर चलवाईं गोलियां और कुनबे तक सिमट गया

मुलायम सिंह यादव का राजनीतिक उदय भारतीय राजनीति के समाजवादी और लोकतांत्रिक होने का जीवंत प्रमाण है लेकिन राजनीति का चरित्र राजनेता के चरित्र में भी हो, ये ज़रूरी नहीं है.

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मुलायम सिंह यादव. (फाइल फोटो)
मुलायम सिंह यादव. (फाइल फोटो)

80 का दशक था. साल याद नहीं. गोरखपुर वाले वीर बहादुर सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. लखनऊ के बेगम हजरत महल पार्क (अब परिवर्तन चौक) में एक बड़ी रैली आयोजित की गई थी. हेमवती नंदन बहुगुणा और अन्य समाजवादी चेहरे इसका नेतृत्व कर रहे थे. नारा गूंज रहा था- वीर बहादुर कैसा है, गोरखपुर का भैंसा है और यह भी कि- हर जोर जुल्म की टक्कर में, संघर्ष हमारा नारा है. ये वो समय था जब समाजवादी विचारधारा की राजनीति सत्ता की चूलें हिलाकर और कांग्रेस को उखाड़कर नई राजनीति रचने के लिए मजबूत होती दिखाई दे रही थी.

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इसी रैली में सबसे पहले सामने आया क्रांति रथ. रथ पर सवार थे उस वक्त के कितने ही राजनीतिक चेहरे. बहुगुणा जी इन बागियों के नेता थे. रथ में बैठे चेहरों में जनेश्वर मिश्र और मुलायम सिंह यादव भी थे. ये वो समय था जब साइकिल से चलकर दंगल और मास्टरी करने वाला सैफई का एक छोटे कद और मजबूत देह वाला व्यक्ति सूबे की राजनीति में एक बड़ा प्रतिमान बन रहा था. ये मुलायम सिंह के बड़े नेता बनने के शुरुआती दिनों की कहानी है. इसके बाद मुलायम सिंह ने राजनीति में कभी पलटकर नहीं देखा. 1989 में अजीत सिंह से मुलायम ने काफी चतुराई से मुख्यमंत्री पद की कुर्सी छीन ली और सूबे को एक यादव मुख्यमंत्री मिल गया.

कांग्रेस उखड़ रही थी. उत्तर प्रदेश से भी और केंद्र से भी. मंडल कमीशन लागू होने और राममंदिर आंदोलन की आग में देश सुलग रहा था. आंदोलन हो रहे थे. आरक्षण के विरोध में और राममंदिर की स्थापना के लिए. मुलायम सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. उन्होंने चेतावनी दी- बाबरी को गिराना तो दूर, बाबरी मस्जिद पर परिंदा भी पर नहीं मार सकता... मुलायम के इस वचन में सरयू नदी के पुल से लेकर 30 अक्टूबर और 2 नवंबर तक के गोलीकांड दर्ज हैं और यहीं से मुलायम सिंह यादव को उनके विरोधियों ने नाम दिया- मुल्ला मुलायम.

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विरोधियों के लिए जो नारा था, दरअसल वो ही मुलायम सिंह यादव की सबसे बड़ी ताकत बन गया. मुलायम के कुर्सी पर रहते कारसेवक मरे और कारसेवक मारे गए. और इसी क्रिया प्रतिक्रिया ने मुलायम को एमवाई समीकरण दिया जो उनकी आखिरी सांस तक उनकी थाती रहा. राजनीति के मुलायम अब मुसलमानों के सबसे मजबूत विकल्प बन चुके थे. इस विकल्प ने उत्तर प्रदेश की राजनीति से कांग्रेस को उखाड़ दिया. बाबरी तब गिरी जब मुलायम की जगह भाजपा के कल्याण सिंह सूबे के सरदार बन चुके थे.

मुलायम सिंह यादव एक राजनीतिक कार्यक्रम में (फाइल फोटो)

बाबरी गिरी तो कल्याण की सरकार भी गिरी. लेकिन मुलायम सिंह यादव की राजनीतिक किलेबंदी में बाबरी विध्वंस का तुरुप फेल हो गया और कांशीराम के कंधे पर पैर रखकर मुलायम फिर सूबे की सत्ता पर कायम हो गए. और राजनीति के अगले दो दशकों में मुलायम सिंह यादव दो बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. तीसरे दशक में ये साइकिल उनके बेटे टीपू ने पकड़ ली और साइकिल की गद्दी पर बैठे अखिलेश यादव 2012 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की गद्दी तक आसन्न हुए.

90 का दशक देश में बागियों के उदय का दशक बना. मुलायम सिंह, लालू प्रसाद, ममता बनर्जी, कांशीराम और मायावती जैसे नाम इस दशक के सूर्य बने. उन्होंने सत्ता से लेकर विचारधारा और पार्टियों तक को ललकारा और खुद की लकीरें खींचकर उसपर राजनीति को लेकर चलना शुरू किया. लेकिन यही वो समय भी है जब डीपी यादव की मदद से सरकार बनाने वाले मुलायम सिंह यादव ने समाजवाद के आंगन में राजनीति के अपराधीकरण का घरौंदा भी बनाया और अपराध को राजनीतिक शरण मिलनी शुरू हुई. 

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सत्ता का आंगन

राजनीतिक आलोचना के क्रम में इस समय को राजनीति के बुरे दौर के तौर पर देखा जाता है. लेकिन चिंता उससे बड़ी है. समाजवाद में लोहिया के लोग अब सैफई के लोग बनने लगे थे. समाजवादी पार्टी अब एक जाति की पार्टी बनने लगी थी. मोहन सिंह, जनेश्वर मिश्र, रेवती रमण सिंह जैसे लोग मुलायम सिंह यादव के साथ तो थे लेकिन पार्टी ने लोहिया के चरित्र और विचार को त्यागकर अमर सिंह का मैनेजमेंट और एमवाई की राजनीति को अपना गुणधर्म बना लिया था.

मुलायम सिंह यादव (फाइल फोटो)

धीरे-धीरे ये नाम राजनीति के नैपथ्य में खोते गए और जाति की पार्टी अब परिवार की पार्टी बन चुकी थी. सैफई का ये कुनबा भारतीय राजनीति का सबसे बड़ा कुनबा बन चुका था. क्या भाई और क्या भतीजा... सत्ता के सबसे मजबूत पदों पर बैठे लोगों की गाड़ियां अब एक ही आंगन में खड़ी होने लगी थी. लोहिया का समाजवाद अब मुलायम का परिवारवाद कहा जाने लगा था.

ऐसा नहीं है कि मुलायम सिंह यादव के फैसले हमेशा आलोचना का शिकार रहे. रक्षामंत्री रहते हुए शहीदों के शवों को वापस अंतिम संस्कार के लिए घरों तक लाना, फूलन देवी जैसी दस्यु को राजनीति में एक आवाज बनाना, धार्मिक कट्टरता को लगातार चुनौती देना और ललकारना, लेखकों, कलाकारों, पत्रकारों की सुध लेना, उनके इलाज, उनके मंच, उनके आश्रय के लिए व्यवस्थाएं करना मुलायम को दरियादिल और मजबूत नेता बनाकर सामने पेश करता रहा.

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जवानी के दिनों में मुलायम सिंह यादव (फाइल फोटो)

लेकिन सूबे का मुख्यमंत्री और समाजवादी विचारधारा का झंडाबरदार कोई इन कामों के लिए न तो बनता है और न होना चाहिए. मुलायम की राजनीति में जो एक चीज खो गई थी वो था समाजवाद. मुलायम जिस एक फोटो को अपने दिल में पलटकर रख चुके थे वो थी लोहिया की तस्वीर. मुलायम जिस एक रास्ते से भटक गए थे, वो था साइकिल वाले समाजवाद का रास्ता.

मुलायम जब गए हैं, कुनबा मेड़ की लड़ाई में उलझा हुआ है. मुलायम जब गए हैं, उनके रहने तक की आखिरी शर्म अब खुलकर नंगी हो सकती है. मुलायम अब जब गए हैं, उनकी पार्टी से संघर्ष की आखिरी पीढ़ी के बरगद का अवसान हो चुका है. मुलायम जब गए हैं, राजनीति की लड़ाई सामाजिक न्याय से निकलकर धार्मिक पहचान और संसाधनों की पहुंच तक आ चुकी है. मुलायम जब गए हैं, समाजवाद में संभावनाएं खोजना वामपंथियों की राजनीति जैसा स्नेह शून्य दिख रहा है.

निःसंदेह, राजनीति में मुलायम होना एक कमाल की उपलब्धि है. उस राजनीतिक संभावना की ताकत को समझना और नमन करना चाहिए जो किसी मुलायम को मिट्टी से उठाकर कुर्सी तक आगे का रास्ता प्रशस्त करती है. लेकिन राजनीतिक संभावनाओं के सांचे हमेशा एक जैसी मूर्तियां नहीं गढ़ते. राजनीतिक मूर्तियां अपनी प्राण प्रतिष्ठाओं का सदुपयोग भी करती हैं और दुरुपयोग भी. राजनीति शाश्वत हो सकती है लेकिन सत्ता नहीं, कुर्सी नहीं, शक्ति नहीं. सत्ता और राजनीति का ये विरोधाभास मुलायम सिंह यादव के राजनीतिक जीवन का भी सच है.
 

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