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भारत जोड़ो यात्रा से कांग्रेस और राहुल गांधी को क्या हासिल हुआ?

कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा ने क्या 2024 के लोकसभा चुनाव का सियासी शंखनाद कर दिया है तो बीजेपी भी मैदान में उतर गई है. राहुल गांधी को इस यात्रा से एक नया राजनीतिक जन्म मिला है? क्या कांग्रेस एक बार फिर जमीन पर जनता से जुड़ गई है? इन सभी सवालों का जवाब मिल सकता है, अगर भारत जोड़ो यात्रा को डीकोड किया जाए.

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भारत जोड़ो यात्रा में राहुल गांधी (पीटीआई)
भारत जोड़ो यात्रा में राहुल गांधी (पीटीआई)

कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा 30 जनवरी को श्रीनगर में समाप्त हुई. 3 हजार 570 किलोमीटर की यात्रा तय कर पार्टी ने सिर्फ अलग-अलग राज्य नहीं टापे, बल्कि ये भी साबित करने की कोशिश कि जमीन पर कांग्रेस की उपस्थिति अभी भी बरकार है. 2024 के लोकसभा चुनाव भले ही अगले साल है, लेकिन  9 राज्यों में विधानसभा चुनाव की तपिश गर्म है, उसे देखते हुए कांग्रेस ने इस यात्रा के जरिए एक सियासी शंखनाद बजा दिया है. ऐसे में सवाल ये कि इस भारत जोड़ो यात्रा से कांग्रेस को हासिल क्या हुआ? सवाल ये कि क्या राहुल गांधी ने इस यात्रा के जरिए एक नई सियासी पारी शुरू की है? क्या विपक्षी खेमे में एक बार फिर कांग्रेस की भूमिका निर्णायक बन गई है? इन सभी सवालों के जवाब तलाशती ये रिपोर्ट...

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क्यों शुरू हुई थी भारत जोड़ो यात्रा?

2014 के लोकसभा चुनाव ने कांग्रेस के लिए सबकुछ बदल दिया था. उस चुनाव में एक तरफ बीजेपी पीएम मोदी के अगुवाई में पहली बार अपने दम पर प्रचंड बहुमत के साथ सरकार बनाई थी तो दूसरी तरफ कांग्रेस ने अपना सबसे खराब प्रदर्शन किया. इसके बाद से चुनाव कांग्रेस की स्थिति और ज्यादा कमजोर होती गई. कई राज्यों में उसने अपनी सरकार गंवाई, फिर 2019 के लोकसभा चुनाव में भी पार्टी उम्मीद के मुताबिक प्रदर्शन नहीं कर पाई. अब 2024 के चुनाव सिर पर है तो पार्टी संगठन को मजबूती देने तो दूसरी तरफ राहुल गांधी की ब्रान्डिंग करने की तैयारी है. इसी प्रयास में पार्टी ने भारत जोड़ो यात्रा निकाली है.

पिछले साल कांग्रेस का चिंतन शिविर हुआ था, पार्टी की रणनीति, ताकत, कमजोरी, हर मुद्दे पर चर्चा की गई थी. शिविर के अंतिम दिन तब की कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा का ऐलान किया था. उन्होंने कहा था कि यात्रा सांप्रदायिक सौहार्द्र को बनाए रखने के लिए निकाली जाएगी. उस समय सोनिया ने अपील की थी कि जवान-बूढ़े सब उस यात्रा में हिस्सा लें और भारत को जोड़ने का काम करें. अब उस ऐलान के बाद कई महीनों तक पार्टी ने उस यात्रा का प्रचार किया, पक्ष में माहौल बनाने की कोशिश की और फिर सात सितंबर को तमिलनाडु के कन्याकुमारी से भारत जोड़ो यात्रा का आगाज और  जम्मू-कश्मीर तक का सफर तय किया.

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कांग्रेस दावा करती है कि उनकी भारत जोड़ो यात्रा पूरी तरह सफल रही. राहुल गांधी की अगुवाई में जिन उदेश्यों के साथ इसे निकाला गया था, पार्टी ने उन्हें पूरा किया. अब ये तो कांग्रेस के विचार हैं, उसकी राय है, लेकिन जब राजनीतिक जानकारों से बात की गई तो उन्होंने इस भारत जोड़ो यात्रा की पूरी समीक्षा कर डाली. क्या हासिल हुआ, ये बताया, क्या चुनौतियां रहीं, उन पर रोशनी डाली और आगे कैसा रोडमैप रह सकता है, इस पर भी जानकारी दी.

भारत जोड़ो यात्रा के गोल पूरे हुए?

वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई ने बताया कि कांग्रेस और राहुल गांधी के लिए भारत जोड़ो यात्रा ने ये जरूर कर दिया है कि उनकी राजनीतिक सक्रियता अब बढ़ गई है. एक तरह की मास अपील बनी है. कांग्रेस ने कुल तीन मुद्दों को लेकर इस यात्रा को शुरू किया था. एक तो रहा देश में जारी Political Authoritarianism, यानी कि कुछ लोगों के हाथ में ज्यादा ताकत का होना. दूसरा मुद्दा रहा देश की बिगड़ती अर्थव्यवस्था और तीसरा मुद्दा रहा इंडिया बनाम भारत की जंग जहां पर गैप सिर्फ बढ़ता जा रहा है.

बीजेपी के हमलों ने राहुल को निखारा?

भारत जोड़ो यात्रा ने सुर्खियां तो लगातार बटोरीं. इस ट्रेंड को भी रशीद किदवई काफी अहम मानते हैं. उनका कहना है कि भारत जोड़ो यात्रा का संज्ञान सभी ने लिया है. राजनीति में कई बार ऐसा होता है कि आपका विरोधी ही आपको आगे बढ़ाने का काम करता है. भारत जोड़ो यात्रा के दौरान जिस तरह से बीजेपी ने राहुल गांधी को आड़े हाथों लिया, उसने कहीं ना कहीं राहुल गांधी की अहमियत को बढ़ाया. वहीं, यात्रा के दौरान जिस तरह समाजिक संगठन और सिविल सोसाइटी के लोगों से मिले, जगह-जगह रैलियां की गईं, आम लोगों से जुड़े मुद्दो को उठाया, देश की जनता ने ये सब नोटिस किया है.

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2024 नहीं 2029 की तैयारी कर रही कांग्रेस!

कांग्रेस ने खुद अपने आईटी सेल के जरिए जिस प्रकार का प्रचार करवाया, उस वजह से भारत जोड़ो यात्रा को लेकर कार्यकर्ताओं में भी उर्जा अलग स्तर की रही. लेकिन सिर्फ सोशल मीडिया पर प्रचार से चुनाव नहीं जीते जाते हैं. यात्रा के इस पहलू के बारे में राजनीतिक जानकार कन्हैया भेलारी कहते हैं कि भारत जोड़ो यात्रा ने राहुल गांधी की छवि तो बदली है. विरोधियों द्वारा जो उनकी 'पप्पू' वाली छवि तैयार कर दी गई थी, वो टूटी है. लेकिन वर्तमान हालात को देखते हुए लगता है कि कांग्रेस 2024 से ज्यादा 2029 की तैयारी कर रही है. वे ये जरूर मानते हैं कि भारत जोड़ो यात्रा से कांग्रेस की कुछ सीटें बढ़ सकती हैं, साउथ में शायद पार्टी को फायदा भी ज्यादा पहुंचे, लेकिन वो उतना जनसमर्थन वर्तमान में नहीं ला पाएगी जिससे सरकार बन सके.

किदवई भी इसी बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि पहले ऐसा पॉलिटिकल नेरेटिव सेट कर दिया गया था कि राहुल गांधी एक सीरियस नेता नहीं हैं, वे विदेश चले जाते हैं. लेकिन भारत जोड़ो यात्रा के दौरान देखा गया कि उन्होंने इसे पूरी तरह एन्जॉय किया है, वे एक बार भी डिस्ट्रैक्ट नहीं हुए. गुजरात चुनाव आए, हिमाचल में चुनाव हुए, राजस्थान में सियासी उथल-पुथल हुआ, लेकिन राहुल का सारा फोकस सिर्फ और सिर्फ यात्रा पर रहा. भारत जोड़ो यात्रा ने कांग्रेस के अंदर एक अलग जान जरूर फूंकी है, लेकिन पार्टी के सामने असल चुनौती इस मोमेंटम को बनाए रखने की है.

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2024 का चुनाव अभी थोड़ा दूर है, उससे पहले इसी साल 9 राज्यों में विधानसभा चुनावों की परीक्षा से गुजरना है, ऐसे में पार्टी को सही मायनों में खुद का सियासी भविष्य बदलना है तो इन चुनावों में जीतकर दिखाना पड़ेगा. फिर चाहे वो कर्नाटक हो या फिर राजस्थान, मध्य प्रदेश हो या फिर छत्तीसगढ़. इतना ही नहीं 2023 में होने वाले राज्यों के चुनाव में कांग्रेस और बीजेपी के बीच सीधा मुकाबला है. 208 लोकसभा सीटें ऐसी हैं, जहां कांग्रेस और बीजेपी के बीच चुनावी मुकबाला होता है, जिनमें से सिर्फ 16 सीटें ही कांग्रेस के पास है बाकी 192 सीटों पर बीजेपी का कब्जा है. 

208 सीटें कांग्रेस की बदल देगी तकदीर

रशीद किदवई बताते हैं कि लोकसभा में अभी भी 208 ऐसी सीटे हैं जहां पर मुकाबला सीधे-सीधे बीजेपी बनाम कांग्रेस का है. वोट शेयर पर नजर डालें तो 2014 रहा हो या फिर 2019, कांग्रेस को 18-19 प्रतिशत के करीब वोट मिले हैं, वहीं बीजेपी का वोट शेयर 38 फीसदी के करीब रहा. लेकिन अगर किसी तरह कांग्रेस के वोट शेयर में पांच फीसदी मत और जुड़ जाएं तो जमीन पर स्थिति बदल सकती है. किदवई एक और आंकड़े का जिक्र करते हुए कहते हैं कि 2024 में एनडीए को हराने के लिए सिर्फ कांग्रेस को मेहनत नहीं करनी होगी, बल्कि विपक्ष के जो दूसरे दल हैं, उनका योगदान भी अहम रहने वाला है. सीटों के लिहाज से वे बताते हैं कि 150 लोकसभा सीटें ऐसी हैं जहां पर कांग्रेस नहीं, विपक्ष की दूसरी पार्टियों को जीत दर्ज करनी होगी. यानी कि 208 सीटों पर कांग्रेस की लड़ाई और 150 पर दूसरी विपक्षी पार्टियों की. 

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विपक्ष एकजुट नहीं, कांग्रेस के लिए क्या राह?

अब ये समीकरण भी तभी सटीक बैठेंगे अगर दूसरी विपक्षी पार्टियां कांग्रेस के साथ आएं. लेकिन भारत जोड़ो यात्रा ने दिखाया है कि विपक्ष में भी बिखराव है. कुछ नेताओं को छोड़ दिया जाए तो ज्यादातर ने खुलकर इस यात्रा का समर्थन नहीं किया है. उत्तर प्रदेश में सपा प्रमुख अखिलेश यादव से लेकर बिहार में सीएम नीतीश कुमार, बंगाल की सीएम ममता बनर्जी, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल सहित तमाम विपक्षी पार्टियों का साथ राहुल को नहीं मिल सका, विपक्ष को एकजुट करने का एजेंडा पूरा नहीं हो पाया है.

कन्हैया भेलारी कुछ पार्टियों का यूं कांग्रेस और उनकी भारत जोड़ो यात्रा में शामिल ना होने का राजनीतिक कारण मानते हैं. उनके मुताबिक अखिलेश यादव हों या फिर नीतीश कुमार, कोई भी जमीन पर कांग्रेस को ज्यादा मजबूत होने का मौका नहीं देना चाहता है. वे कहते हैं कि जहां आप मजबूत होते हैं, वहां खुद खेती करते हैं, दूसरे को अपनी फसल उगाने का मौका नहीं देते. वहीं, विपक्षी एकजुटता को लेकर रशीद किदवई थोड़ी अलग राय रखते हैं.

रशीद किदवाई मानते हैं कि देश की जैसी राजनीति रही है, यहां पर ज्यादातर चुनावी नतीजों के बाद गठबंधन बनते हैं. उन्होंने बताया कि यूपीए का गठन भी चुनाव के बाद ही हुआ था. जब अटल बिहारी वाजपेयी को हराया गया, उसके बाद कई पार्टियां साथ आईं और यूपीए का स्वरूप तैयार हुआ. 1975 में जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाया था और फिर जब 1977 में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार बनी, तब भी कई अलग विचार वाले दल साथ आए थे. अब किदवई का कहना साफ है कि सरकार किसी की भी हो, विकल्प तैयार होते रहते हैं. ये देश बहुत बड़ा है, राज्य दर राज्य यहां बोलियां भी बदलती हैं और राजनीति भी. पहले इंदिरा बनाम कौन की बहस चलती थी, एक समय वाजपेयी बनाम कौन की बहस और अब मोदी बनाम कौन की चल रही है. लेकिन सभी के विकल्प बने भी और जनता ने उन पर भरोसा भी जताया.

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बीजेपी बनाम कौन की लड़ाई फिजूल!

किदवई इस बात पर भी जोर देते हैं कि राजीव गांधी को छोड़ दिया जाए तो किसी भी पार्टी को पचास फीसदी से ज्यादा वोट नहीं मिला है. देश की राजनीति ऐसी है कि यहां पर किसी दल को 51 फीसदी वोट मिले हों और दूसरे को 49 प्रतिशत, तो जीत 51 वाले की होती है. लेकिन 49 फीसदी भी छोड़ा आंकड़ा नहीं होता है. अमेरिका की राजनीति में भी ये देखने को मिलता है. लोग ओबामा को पसंद करते थे. लेकिन एक समय बाद उन्होंने भी डोनल्ड ट्रंप को चुना. ये सब संख्या का खेल होता है.

ये कहना कि देश में हर कोई बीजेपी को पसंद करता है या फिर उसी को वोट करता है, ये गलत है. यहां तो विधानसभा और लोकसभा चुनाव में ही एक पार्टी को समान वोट नहीं मिलते हैं. बीजेपी केजरीवाल से दिल्ली में हार जाती है, लेकिन लोकसभा में क्लीन स्वीप करती है, ओडिशा में सीएम पटनायक के सामने लोकसभा में बीजेपी का प्रदर्शन अच्छा रहता है, लेकिन विधानसभा में बाजी पलट जाती है. इसलिए हार्डकोर समर्थन करने वाले कम होते हैं. अगर कांग्रेस को सिर्फ पांच फीसदी और वोट मिल जाए तो जमीन पर परिणाम भी बदल सकते हैं और देश की राजनीति भी.

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