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बिहार: जमीन पर कितने मजबूत हैं आरसीपी सिंह, जिनके चक्कर में टूटी बीजेपी-जेडीयू की दोस्ती

नीतीश कुमार ने पांच साल के बाद फिर बीजेपी से दोस्ती तोड़कर महागठबंधन से हाथ मिला लिया है. बिहार में बीजेपी और जेडीयू की दोस्ती में दरार का कारण आरसीपी सिंह बने हैं, जिनके चलते एनडीए का एक सहयोगी दूर हो गया है. बीजेपी ने जिस आरसीपी सिंह के लिए नीतीश कुमार से गठबंधन खत्म किया है, क्या बिहार की सियासत में उनका कोई सियासी आधार है, जिसके दम पर नीतीश को चुनौती दे सकें.

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आरसीपी सिंह और नरेंद्र मोदी
आरसीपी सिंह और नरेंद्र मोदी

नौकरशाही से सियासत में आए रामचंद्र प्रसाद सिंह (आरसीपी सिंह) नीतीश कुमार की उंगली पकड़कर राजनीति में आगे बढ़े और जेडीयू की कमान संभाली और केंद्र में मंत्री तक रहे. अब उसी आरसीपी सिंह पर गंभीर आरोप लगे और बीजेपी से मिलकर जेडीयू को तोड़ने की साजिश के चलते नीतीश कुमार ने एनडीए के साथ संबंध तोड़ लिया और महागठबंधन के साथ मिलकर सरकार बनाने जा रहे हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि जिस आरसीपी सिंह के चलते बीजेपी-जेडीयू की दोस्ती टूटी है, वो बिहार की जमीन पर कितने मजबूत हैं और क्या नीतीश कुमार का विकल्प बन पाएंगे? 

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बीजेपी के लिए आरसीपी सिंह के मीठे-मीठे बोल नीतीश कुमार के दांतों को खट्टा कर गए. यही वजह रही कि नीतीश ने पहले उन्हें राज्यसभा नहीं भेजा. फिर आरसीपी पर भ्रष्टाचार के आरोप लगा दिए. नीतीश कुमार नहीं चाहते कि बीजेपी किसी आरसीपी सिंह के सहारे उन्हें किनारे लगाए या उनकी पार्टी में कोई फूट डाल सके. आरपीसी सिंह प्रकरण के चलते नीतीश ने खुद को बीजेपी से दूर कर लिया और फिर महागठबंधन में वापसी की है. 

आरसीपी सिंह और नीतीश कुमार एक ही जिले नालंदा और एक ही जाती कुर्मी समुदाय से आते हैं. ऐसे में दोनों ही नेताओं की दोस्ती गहरी होती गई और आरसीपी देखते ही देखते नीतीश के आंख-नाक-कान बन गए. वो एक समय नीतीश के बाद जेडीयू में नंबर दो की हैसियत रखते थे. जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुके हैं, लेकिन नीतीश कुमार की तरह आरसीपी सिंह न तो लोकप्रिय, न ही कुर्मी नेता के तौर पर पहचान स्थापित कर सके.

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आरसीपी को नीतीश कुमार सियासत में लाए

आरसीपी सिंह को सियासत में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही लेकर आए थे और उन्हें फर्श से अर्श तक पहुंचने का काम किया है. 2010 में आरसीपी ने आईएएस से इस्तीफा दिया और नीतीश कुमार ने उन्हें राज्यसभा भेजा. 2016 में वे पार्टी की ओर से दोबारा राज्यसभा पहुंचे और शरद यादव की जगह उच्च सदन में नेता मनोनीत किए गए. नीतीश ने जब जेडीयू की कमान छोड़ी तो आरसपी ने थामा. इस तरह नीतीश की मनमर्जी पर आरसीपी का सियासी भविष्य संवरता गया. 

हालांकि, आरसीपी सिंह के साथ दिक्कत हमेशा रही कि पार्टी के विधायकों और कार्यकर्ताओं में बहुत ज्यादा लोकप्रिय नहीं रहे, जिसके दम पर नीतीश को चुनौती दे सकें. ये बात जरूर रही कि जब तक आरसीपी सिंह बिहार में रहे, जेडीयू में उनके समर्थकों का एक जत्था भी तैयार हो गया, लेकिन मोदी कैबिनेट में शामिल होकर उन्होंने खुद को स्थापित करने की कोशिश की, वैसे ही नीतीश कुमार ने सबक सिखाने का ठान लिया.

आरसीपी को नीतीश ने कर दिया कमजोर

बिहार में जेडीयू का सियासी हश्र महाराष्ट्र की शिवसेना जैसा न हो, इसके लिए नीतीश कुमार ने पहले ही पूरी तैयारियां कर ली थी. जेडीयू ने आरसीपी सिंह को कमजोर करते हुए उनसे सभी अहम पद छीन लिए और उनके करीबी नेताओं पर पूरी तरह नकेल कस दिया. वहीं, जेडीयू से निकालने के लिए भी सीधा कोई आदेश नहीं जारी किया बल्कि उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाकर नोटिस जारी कर दिया. इस तरह जेडीयू का सीधा मकसद आरसीपी सिंह की छवि को पूरी तरह धुमिल और विधायकों से उनके संपर्क को खत्म करने की रणनीति अपनाई. 

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दरअसल, नीतीश कुमार ये बात समझ रहे थे कि आरसीपी जनाधार वाले नेता नहीं है, जो उन्हें जो चुनौती दे सकें, जैसा कोई जनाधार वाला नेता दे सकता था. इसी साल जून में जदयू ने पार्टी विरोधी गतिविधियों के लिए आरसीपी सिंह के चार करीबी नेताओं को प्राथमिक सदस्यता से निलंबित कर दिया था. जेडीयू के महासचिव रहे अनिल कुमार, विपिन कुमार यादव, अजय आलोक और पार्टी की समाज सुधार इकाई के अध्यक्ष जितेंद्र नीरज जैसे बड़े नेताओं को बाहर का रास्ता दिखा दिया. इसके बाद से ही जेडीयू को कोई भी नेता आरसीपी के साथ खड़ा नजर नहीं आया. 

नीतीश कुमार समाजावदी आंदोलन से निकले हुए नेता हैं, जो जमीनी संघर्ष और अपनी राजनीतिक समझ बूझ के आधार पर आगे बढ़े हैं. पिछले 17 सालों से बिहार की सत्ता पर वो काबिज हैं. नीतीश भले ही अपने दम पर सत्ता न हासिल कर सकें, लेकिन उनके बिना भी किसी की सरकार बनने वाली स्थिति नहीं है. इसीलिए कभी बीजेपी तो कभी आरजेडी के साथ सत्ता की धुरी बने हुए हैं. 

वहीं, आरसीपी सिंह जरूर कुर्मी समुदाय से आते हैं, लेकिन नीतीश कुमार की तरह अपनी सियासी जड़े नहीं जमा सके. ऐसे में वो जेडीयू से अलग होकर किसी तरह का कोई विकल्प खड़े करना आसान नहीं है. जेडीयू से दोस्ती टूटने और आरसीपी सिंह के बीजेपी में शामिल होने का कोई खास सियासी फायदा नहीं होता दिख रहा है, क्योंकि इसके पीछे आरसीपी सिंहा का प्रदर्शन रहा है. 

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जब जमीन पर फेल रहे आरसीपी

जेडीयू अध्यक्ष रहते हुए आरसीपी सिंह ने 2019 लोकसभा चुनाव से पहले अति पिछड़ों को पार्टी से जोड़ने के लिए हर जिले में सम्मेलन कराया था, लेकिन यह पूरी तरह फ्लॉप रहा, हाजीपुर और मधुबनी की जनसभा में खाली कुर्सियों की तस्वीर से साबित हो गया कि वह जननेता नहीं हैं. इसके बाद उनके अध्यक्ष रहते हुए 2020 के विधानसभा चुनाव हुए, लेकिन जेडीयू के लिए चुनाव परिणाम बेहद निराशाजनक रहे. 

जेडीयू 20 साल के इतिहास में सबसे बुरी स्थिति में पहुंच गई और महज 43 सीटों पर सिमट गई. इसके बाद यूपी के 2022 चुनाव में आरसीपी सिंह को बीजेपी के साथ तालमेल बैठाने का जिम्मा सौंपा गया, लेकिन गठबंधन नहीं बन पाया. जेडीयू को अकेले ही यूपी चुनाव में उतरना पड़ा और उसका खाता नहीं खुल सका. इसके चलते पार्टी से ही आरसीपी सिंह के नेतृत्व पर सवाल खड़े होने लगे. आरसीपी सिंह जरूर कुर्मी समुदाय से आते हैं, लेकिन नीतीश कुमार की तरह अपनी सियासी जड़े नहीं जमा सके. 

बिहार की सियासत में आरसीपी और नीतीश कुमार जिस कुर्मी समाज से आते हैं, वो भले संख्या बल पर महज चार फीसदी हो, लेकिन सियासी तौर काफी मजबूत मानी जाती है. बिहार में हमेशा जाति के इर्द-गिर्द सियासी बिसाती बिछाई जाती रही है. नीतीश कुमार ने जब खुद को बिहार में लॉन्च किया तो विकास के साथ जाति आधार के लिए लव-कुश (कुर्मी-कोइरी) फॉर्मूले के सहारे लालू यादव के दुर्ग को भेदने में सफल हो सके थे. 

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बिहार में कुर्मी समाज की आबादी करीब 4 फीसदी के करीब है. जो अवधिया, समसवार, जसवार जैसी कई उपाजतियों में विभाजित है. नीतीश कुमार अवधिया कुर्मी हैं जो संख्या में सबसे कम, लेकिन नीतीश सरकार में सबसे ज्यादा फायदा पाने वाली उपजाति है. बांका, भागलपुर, खगड़िया बेल्ट में जसवार कुर्मी की विधानसभा सीटों पर नतीजे प्रभावित करने की स्थिति में हैं. वहीं समसवार बिहारशरीफ, नालंदा क्षेत्र में मजबूत स्थिति में हैं. कुर्मी जाति के साथ धानुक को गिना जाता. धानुक के वंशज कुर्मी जाति के ही माने जाते हैं, लेकिन ये समुदाय अति पिछड़ा वर्ग में शामिल है. लखीसराय, शेखपुरा और बाढ़ जैसे क्षेत्रों में धानुक काफी मजबूत स्थिति में है.

जेडीयू से बाहर हो चुके आरसीपी सिंह क्या बिहार की सियासत में खुद को कुर्मी नेता के तौर पर स्थापित कर सकें, वो भी नीतीश कुमार के रहते हुए. राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो आरसीपी भले ही जेडीयू के अध्यक्ष रहे हों या फिर केंद्र में मंत्री, लेकिन न तो कभी कुर्मी नेता के तौर पर उनकी पहचान थी औ न ही जनाधार वाले नेता नहीं की. ऐसे में नीतीश कुमार को सियासी चुनौती देने की स्थिति में नहीं दिख रहे हैं. ऐसे में अब नीतीश कुमार इसीलिए आरसीपी और बीजेपी को बताना चाहते हैं कि उनसे सियासी दुश्मनी मोल लेकर अच्छा नहीं किया, जिसके लिए आरजेडी के साथ हाथ मिला लिया है. ऐसे में बीजेपी को आरसीपी सिंह को साथ लेना कहीं सियासी महंगा न पड़े जाए? 

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