बंगाल की नई विधानसभा का जब गठन होगा तो राज्य के इतिहास में ऐसा पहली बार होगा जब इस विधानसभा में न तो लेफ्ट का कोई विधायक होगा और न ही कांग्रेस का कोई MLA यहां मौजूद रहेगा.
ये सच उस राज्य के लिए है जहां कांग्रेस आजादी के बाद से लेकर 1977 तक प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तरीके से शासन करती रही. इसके बाद लेफ्ट सत्ता में आई और 2011 तक पूरे 34 साल शासन करती रही. याद दिला दें कि इसी बंगाल के सीएम ज्योति बसु को एक बार भारत का प्रधानमंत्री बनने का भी ऑफर मिला था.
लेकिन ये गुजरे जमाने की बात है. अब बंगाल विधानसभा में कांग्रेस-लेफ्ट का नामलेवा भी नहीं रहा है. इसके बाद सवाल उठता है कि इन नतीजों का राष्ट्रीय राजनीति पर क्या असर होगा?
राहुल प्रियंका से तीखे सवाल
इस चुनाव के नतीजों के बाद राष्ट्रीय राजनीति का परिदृश्य बदला बदला नजर आएगा. ममता बनर्जी अब विपक्षी खेमे की सर्वमान्य नेता बन गई हैं. इस चुनाव के बाद कांग्रेस के अंदर और देश के राजनीतिक थिंक टैंक भी राहुल प्रियंका से सवाल करते नजर आएंगे.
इन चुनाव के नतीजों के बाद कांग्रेस के अंदर का जी-23 एक बार फिर सक्रिय हो सकता है और पार्टी में नेतृत्व परिवर्तन की मांग को जोर-शोर से उठा सकता है. हालांकि कांग्रेस में पहले से अध्यक्ष पद का चुनाव प्रस्तावित है. लेकिन इस हार के बाद ये मांग और बढ़ सकती है
बता दें कि इस बार के विधानसभा चुनाव में राहुल का ज्यादा फोकस केरल पर था, राहुल बंगाल में मात्र एक बार रैली के लिए पहुंचे थे. लेकिन राहुल केरल में सरकार बनाने में कामयाब नहीं रहे. बंगाल में तो वास्तविक अर्थों में पार्टी का सूपड़ा साफ हो गया है. प्रियंका भी असम में कामयाब नहीं हो पाई है.
2024 पर असर
इस चुनाव के नतीजों का असर 2024 के लोकसभा चुनाव पर भी होगा. इस चुनाव में अभी हालांकि 3 साल का वक्त है, लेकिन एक कद्दावर चेहरे की तलाश में जूझ रहे विपक्ष के लिए ममता की जीत एक संजीवनी साबित हुई है. क्षेत्रीय स्तरों पार्टियां भले ही पीएम मोदी का मुकाबला कर ले रही हैं, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर कोई भी खुद को पीएम मोदी के चेहरे और उनके आभामंडल से मुकाबला कर पाने में सक्षम नहीं दिख रहा है. इसलिए 2024 में हो सकता है कि ममता बनर्जी संयुक्त विपक्ष की नेता बनें.
हालांकि इस संभावना में कई पेंच हैं. सबसे पहले ममता बनर्जी की स्वीकार्यता का सवाल है, ममता बनर्जी को उत्तर से लेकर दक्षिण और पूरब से लेकर पश्चिम तक अपनी स्वीकार्यता स्थापित करनी होगी. यहां पर क्षेत्रीय महात्वाकांक्षाओं का टकराव है. विपक्षी खेमे में कई नेता पीएम बनने की लालसा पाले बैठे हैं.
प्रेशर ग्रुप के रूप में लेफ्ट की पहचान पर असर
देश भर में लेफ्ट की सरकार कभी भी दो या तीन से ज्यादा राज्यों में नहीं रही है. बंगाल, केरल और त्रिपुरा ही वैसे राज्य हैं जहां लाल परचम लहराता रहा है. लेकिन वैचारिक प्रतिबद्धता, समर्पित कैडर और दमदार नेतृत्व-व्यक्तित्व की बदौलत लेफ्ट नेता केंद्र की राजनीति में गहरा असर डालते रहे हैं. लेकिन बंगाल के नतीजे इस पार्टी के लिए एक चोट की तरह है, क्योंकि बंगाल भारत में वाम राजनीति की प्रयोगशाला रही है. अब बिना जन समर्थन के दिल्ली दरबार में मोरल हाईग्राउंड नहीं ले सकेगी.
वामपंथी दल कृषि कानून, CAA, NRC जैसे मुद्दों पर सरकार पर अपने प्रभाव के दम पर सरकार को घेर रहे थे. लेकिन बंगाल का शून्य अब उनके लिए सवाल खड़ा करेगा.
लेफ्ट अब अगले 5 सालों तक अपने दम पर बंगाल से एक भी नेता को राज्यसभा में नहीं भेज सकेगी. जिस राज्यसभा को वरिष्ठों और विद्धानों का सदन माना जाता है वहां पर वाम नेता अपनी उपस्थिति दर्ज कराने से वंचित रह जाएंगे.
हालांकि केरल की लगातार दूसरी विजय वाम नेताओं के लिए उम्मीद की किरण लेकर आई है. लेकिन बंगाल से 5 साल के वनवास की टीस पार्टी नेताओं को झेलनी तो पड़ेगी ही.