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कांग्रेस को नए अध्यक्ष के अलावा क्या हुआ हासिल? चुनाव में खड़गे की जीत के मायने

कांग्रेस को नया अध्यक्ष मिल गया है. मल्लिकार्जुन खड़गे की ताजपोशी कर दी गई है. लेकिन खड़गे सिर्फ पार्टी के अध्यक्ष नहीं बने हैं, उनके इस पद पर आते ही कांग्रेस को कई दूसरे फायदे भी हो सकते हैं. फिर चाहे वो परिवारवाद टैग से मुक्ति हो या फिर कर्नाटक चुनाव में दलित फैक्टर.

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कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे
कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे

कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव संपन्न हो गया है. 24 साल बाद चुनाव हुए और एक गैर गांधी अध्यक्ष पार्टी को मिला है- मल्लिकार्जुन खड़गे. 80 साल के हैं, सालों से पार्टी के लिए काम कर रहे हैं, विपक्ष की मुखर आवाज रहे हैं और कर्नाटक की राजनीति में भी बड़ा नाम हैं. खड़गे ने अपने प्रतिद्वंदी शशि थरूर को अच्छे अंतर से मात दी है. उनका चुनाव जीतना उनके राजनीतिक ग्राफ को तो नई ऊंचाई दे ही गया है, कांग्रेस को भी कई फायदे दे गया है. अब ये फायदे असल में पार्टी को होते हैं या नहीं, ये तो समय बताएगा, लेकिन उम्मीद जरूर जगी है. उम्मीद पार्टी को बेहतर भविष्य की है, उम्मीद स्थिरता की है, उम्मीद पार्टी को एकजुट करने की है, उम्मीद बीजेपी की विचारधारा को चुनौती देने की है.

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दलित चेहरे का कितना फायदा मिलेगा?

पिछले कुछ समय से कांग्रेस की राजनीति में दलित वोटबैंक पर खास जोर दिया जा रहा है. पंजाब चुनाव से ठीक पहले चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाने वाला दांव कोई भूला नहीं है. चुनाव में तो कांग्रेस को इसका कोई फायदा नहीं मिला लेकिन चरणजीत सिंह चन्नी के साथ एक तमगा जरूर जुड़ गया- 'पंजाब के पहले दलित सीएम'. अब मल्लिकार्जुन खड़गे का कांग्रेस अध्यक्ष बनना भी पार्टी की दलित राजनीति को नई धार दे सकता है. खड़गे एक बड़े दलित नेता हैं, कहने को दक्षिण भारत की राजनीति में ज्यादा सक्रिय रहते हैं, लेकिन गांधी परिवार से नजदीकियों की वजह से राष्ट्रीय राजनीति में भी उन्हें अलग पहचान मिली है. ऐसे में अगर मल्लिकार्जुन खड़गे अब कांग्रेस के अध्यक्ष बने हैं तो उनकी पूरी कोशिश होगी कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस से रूठे दलित वाटों की वापसी करवाई जाए. आजादी के बाद कई सालों तक उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की सरकार रहीं, दलित वोट का भी बड़ा हिस्सा पार्टी के खाते में गया. लेकिन फिर  राजनीति ने करवट ली, जमीन पर समीकरण बदले और काशीराम, मुलायम, मायावती जैसे नेताओं ने यूपी की सियासत में अपनी पकड़ मजबूत की. फिर दलित वोटबैंक पर मायावती का दबदबा रहा, जाटव वोटों पर तो बसपा की एकतरफा पकड़ रही. 

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अब यूपी की इस दलित राजनीति में बीजेपी भी सेंधमारी कर रही है, कुछ हद तक कामयाब भी हुई है, ऐसे में कांग्रेस के सामने इस वोटबैंक पर फिर पकड़ बनाना बड़ी चुनौती साबित होगा. दलित अध्यक्ष के रूप में मल्लिकार्जुन खड़गे कुछ फायदा दे जाएं, पार्टी ये उम्मीद जरूर करेगी.

गैर गांधी अध्यक्ष, बदलेगी लोगों की धारणा?

राजनीति में कहने को सोशल इंजीनियरिंग और जातीय समीकरणों की अपनी अहमियत होती है, लेकिन लोगों की धारणा भी एक बड़ा फैक्टर है. इसे अंग्रेजी में Perception कहते हैं. इस समय कांग्रेस को लेकर एक परसेप्शन बहुत मजबूत है- कांग्रेस परिवारवाद वाली राजनीति करती है, यहां पर सत्ता सिर्फ गांधी परिवार के इर्द-गिर्द घूमती है. बीजेपी तो ये आरोप लगाती ही है, लेकिन लोगों के बीच में भी ये एक मजबूत धारणा बन चुकी है. इस परसेप्शन ने पार्टी को कई चुनावों में भारी नुकसान दिया है. कहने को दावे होते हैं कि गांधी परिवार की वजह से कांग्रेस एकजुट चल रही है, पार्टी के कई नेता भी हमेशा उन्हें ही आगे करना चाहते हैं. लेकिन लोगों की नजरों में वो सिर्फ परिवार केंद्रित राजनीति होती है जहां दो-तीन नेताओं को छोड़कर पार्टी के पास कोई विकल्प नहीं है. अब मल्लिकार्जुन खड़गे का कांग्रेस अध्यक्ष बनना इस धारणा को तोड़ने का काम कर सकता है. वैसे भी सोशल मीडिया पर खड़गे की जीत का प्रचार भी इसी तरह से किया जा रहा है कि पार्टी को कई सालों बाद गैर गांधी अध्यक्ष मिला है. अब जितना तेजी से ये संदेश लोगों के बीच जाएगा, पार्टी को लेकर चल रहा एक बड़ा परसेप्शन टूट सकता है.

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वैसे यहां ये समझना जरूरी हो जाता है कि कांग्रेस इस दांव से जरूर परिवारवाद वाली छवि को खत्म करना चाह रही है, लेकिन बीजेपी ने भी इसकी काठ ढूंढ निकाली है. अभी से बीजेपी के लोग कह रहे हैं कि खड़गे अध्यक्ष हैं, लेकिन रिमोट अभी भी गांधी परिवार के हाथ में है. सुपर अध्यक्ष वाली थ्योरी को भी हवा दी जा रही है. ऐसे में कांग्रेस की एक चुनौती खत्म होगी तो दूसरी तैयार खड़ी है.


टल गया राजस्थान का सियासी संकट

राजनीति अनिश्चितताओं का खेल है और यहां कब क्या हो जाए, किसी को नहीं पता. आज कहने को सभी मल्लिकार्जुन खड़गे को जीत की बधाई दे रहे हैं, लेकिन कुछ महीने पहले तक माना जा रहा था कि अध्यक्ष पद का चुनाव तो अशोक गहलोत जीतेंगे. सबकुछ फाइनल हो चुका था, गांधी परिवार से हरी झंडी दी और गहलोत ने भी मना बना लिया था. लेकिन कई विधायकों के मन में एक सवाल था- गहलोत के जाने के बाद कौन? इस सवाल ने गहलोत समर्थक विधायकों को ऐसा विचलित किया उन्होंने खुली बगावत कर दी. अटकलें क्योंकि सचिन पायलट के नाम की भी चल रही थीं, ऐसे में विरोध ज्यादा तेज हुआ और 90 से ज्यादा विधायकों ने सामूहिक त्यागपत्र देने का मना बना लिया. 

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अब ये बगावत गहलोत के कहने पर हुई या नहीं, इस पर विवाद है, लेकिन गांधी परिवार को ये नाराज करने के लिए काफी था. इस एक बगावत ने अशोक गहलोत का पत्ता साफ कर दिया और रेस में मल्लिकार्जुन खड़गे आ गए.  अब बड़ी बात ये है कि खड़गे के रेस में आने से राजस्थान में चल रही उठापटक शांत पड़ गई. अशोक गहलोत क्योंकि मुख्यमंत्री बने रहे, ऐसे में विधायक भी एकजुट रहे और बड़ा फेरबदल देखने को नहीं मिला. वैसे भी राजस्थान में अगले साल चुनाव होने हैं, ऐसे में पार्टी किसी भी कीमत पर सत्ता को लेकर अंदरूनी लड़ाई नहीं चाहती है. उसे पंजाब में इसका भारी नुकसान हो चुका है, ऐसे में राजस्थान में फिर वो गलती नहीं दोहराई जा सकती. अभी के लिए मल्लिकार्जुन खड़गे के अध्यक्ष बनने से राजस्थान में वो सियासी तूफान थम सा गया है.

बीजेपी का बड़ा सियासी हथियार हुआ खत्म?

2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राहुल गांधी को शहजादा कहकर संबोधित किया था. कभी कबार युवराज भी कहा करते थे. राहुल क्योंकि बड़े राजनीतिक परिवार से ताल्लुक रखते हैं, ऐसे में मोदी ने अपनी राजनीतिक पिच मजबूत करने के लिए इन शब्दों का खूब इस्तेमाल किया. नेरेटिव सेट हुआ 'चायवाला बनाम शहजादा'. फिर 2019 की लड़ाई आई, राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष बन चुके थे. तब पीएम मोदी ने एक बार भी शहजादा नहीं बोला, नया नाम दिया गया 'नामदार'. तब नेरेटिव सेट हुआ 'कामदार बनाम नामदार'. ऐसे में कांग्रेस पर परिवारवाद का ये आरोप हर चुनाव के साथ मजबूत होता गया. बीजेपी ने भी इसका पूरा फायदा उठाया. जहां-जहां कांग्रेस से सीधा मुकाबला रहा, वहां इसी मुद्दे पर पार्टी को धराशाई करने का काम हुआ.

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लेकिन अब कांग्रेस ने बीजेपी से उसका ये सियासी हथियार कुछ हद तक छीन लिया है. मल्लिकार्जुन खड़गे को कांग्रेस अध्यक्ष बना पार्टी ने कुछ समय के लिए तो इस डिबेट को शांत कर दिया है. एक गैर गांधी का इस पद पर पहुंचना असल में गांधी परिवार के लिए ही बड़ी राहत है. पार्टी अब डंके की चोट पर कह सकती है कि उसके यहां पर बकायदा चुनावी प्रक्रिया के तहत एक गैर गांधी उम्मीदवार को अध्यक्ष बनाया गया है. वहीं क्योंकि मल्लिकार्जुन खड़गे एक ऐसे समाज की राजनीति करते हैं, ऐसे में बीजेपी उन पर 'नामदार' जैसे तंज भी नहीं कस सकती है. वे गांधी परिवार की तरह 'इलाइट क्लास' वाले नहीं माने जाते हैं. लेकिन कांग्रेस के लिए परिवारवाद मुद्दे पर ये सिर्फ आधी जीत है क्योंकि 'बड़ी भूमिका' के लिए अभी भी राहुल गांधी को ही आगे किया जा रहा है. ऐसे में 2024 की जंग एक बार फिर मोदी बनाम राहुल जा सकती है. उस स्थिति में परिवारवाद वाला मुद्दा फिर कांग्रेस पर हावी पड़ सकता है.

कर्नाटक चुनाव और खड़गे का अध्यक्ष बनना, कांग्रेस को फायदा?

हिमाचल प्रदेश और गुजरात में इस साल विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. हिमाचल की तो तारीखों का ऐलान भी हो गया है. लेकिन राजनीतिक जानकार मानते हैं कि कांग्रेस के पास सबसे बड़ा मौका कर्नाटक में है जहां अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं. वो एक ऐसा राज्य है जहां बीजेपी खुद इस समय अंदरूनी कलह से जूझ रही है. इसके ऊपर राज्य का ऐसा जातीय समीकरण है जो मल्लिकार्जुन खड़गे के अध्यक्ष बनने के बाद पार्टी के फेवर में काम कर सकता है. 2018 में जनगणना को लेकर एक रिपोर्ट सामने आई थी जिसके मुताबिक कर्नाटक में दलितों की आबादी 19.5 प्रतिशत है, वहीं 16 फीसदी मुस्लिम हैं. अनुसूचित जनजाति का आंकड़ा भी 6.95 प्रतिशत बैठता है. अब ये आंकड़े कांग्रेस की राजनीति के लिए मुफीद बैठते हैं. खुद खड़गे क्योंकि बड़े दलित नेता हैं, ऐसे में उनके अध्यक्ष बनने से पार्टी को कुछ फायदा यहां हो सकता है.

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यहां सिर्फ एक ट्रेंड खड़गे के खिलाफ जाता है, 2019 के लोकसभा चुनाव में वे अपनी परंपरागत गुलबर्गा सीट भी नहीं बचा पाए थे. 47 साल के राजनीतिक करियर में वो उनकी पहली बड़ी हार थी. ऐसे में उनके अध्यक्ष बनने के बाद क्या दलित फैक्टर कांग्रेस के लिए राज्य में कोई खेल करेगा, इस पर सभी की नजर रहेगी. वैसे कर्नाटक में अकेले खड़गे फैक्टर के दम पर कांग्रेस के लिए बड़ा कमाल करना मुश्किल साबित हो सकता है क्योंकि दलितों को लुभाने के लिए बीजेपी के सियासी हथियार भी तैयार खड़े हैं. कोशिश की जा रही है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का कोटा बढ़ाया जाए. ऐसा कर कांग्रेस के सियासी दांव की हवा निकालने की तैयारी है.

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