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खड़गे के सिर सजा कांग्रेस का ताज, लेकिन चुनौतियों का है पहाड़... सबसे पहली अग्निपरीक्षा हिमाचल-गुजरात में

कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव में मल्लिकार्जुन खड़गे ने शशि थरूर को मात दे दी है. खड़गे को 7897 वोट मिले, तो शशि थरूर को 1072 वोटों से संतोष करना पड़ा है जबकि 416 वोट रद्द हो गए. 24 साल बाद कांग्रेस की कमान गांधी परिवार के बाहर किसी के हाथ में गई है. ऐसे में खड़गे के सामने चुनौतियों का पहाड़ है.

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मल्लिकार्जुन खड़गे
मल्लिकार्जुन खड़गे

कांग्रेस के सियासी इतिहास में दो दशक के बाद अध्यक्ष पद का चुनाव हुआ है. कांग्रेस से परिवारवाद का टैग हटाने के लिए राहुल खुद चुनाव नहीं लड़े और प्रियंका गांधी को नहीं लड़ने दिया. इस तरह 24 साल बाद कांग्रेस को गांधी परिवार से बाहर का अध्यक्ष मिला. मल्लिकार्जन खड़गे 90 फीसदी वोट हासिल कर सांसद शशि थरूर को मात देकर कांग्रेस नए अध्यक्ष बन गए हैं. कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव कराकर संघर्ष पथ पर आगे बढ़ने के लिए पार्टी भले ही अपने कदम बढ़ाया हो, लेकिन नए अध्यक्ष बने मल्लिकार्जुन खड़गे के सामने चुनौतियों की लंबी फेहरिश्त है. 

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मल्लिकार्जुन खड़गे के सिर कांग्रेस का ताज ऐसे समय सजा है, जब पार्टी अपने इतिहास के सबसे कमजोर मुकाम पर खड़ी है. कांग्रेस का जनाधार लगातार सिमटता जा रहा है और संगठन बिखरा सा नजर आ रहा है. कांग्रेस नेताओं का पार्टी छोड़ने का सिलसला लगातार जारी है. हिमाचल और गुजरात विधानसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है. ऐसे में खड़गे के सामने कांग्रेस के खोए हुए जनाधार को वापस लाने और खुद के साबित करने जैसे बड़ी चुनौती है. साथ ही कांग्रेस नेताओं के पार्टी छोड़ने के सिलसिले पर ब्रेक लगाने का चैलेंज है. 

गुजरात-हिमाचल में होगी खड़गे की पहली परीक्षा
मल्लिकार्जुन खड़गे के हाथों पार्टी की कमान ऐसे समय मिली है जब गुजरात और हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है. गुजरात में कांग्रेस 27 सालों से सत्ता का वनवास झेल रही है तो हिमाचल में पांच साल से बाहर है. ऐसे में कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर खड़गे की पहली परीक्षा हिमाचल और गुजरात चुनाव में होनी है. कांग्रेस के लिए दोनों ही राज्यों में कड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. हिमाचल में भले ही बीजेपी से सीधी लड़ाई हो, लेकिन गुजरात में बीजेपी और आम आदमी पार्टी के साथ मुकाबला करना है. ऐसे में दोनों ही राज्यों के पार्टी कार्यकर्ताओं में जान फूंकने के साथ-साथ पार्टी को जीत दिलाने की चुनौती खड़गे के सामने होगी.   

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संगठन को दोबारा से खड़ा करने की चुनौती
मल्लिकार्जुन खड़गे के सामने चुनौती यह है कि पहले तो कांग्रेस नेताओं में यह आत्मविश्वास पैदा करें कि पार्टी अपनी खोई हुई राजनीतिक जमीन हासिल कर सकती है. इसके साथ जमीनी स्तर पर कांग्रेस संगठन का काम करने वाले कार्यकर्ताओं में उत्साह का माहौल पैदा करने के लिए कुछ ऐसे कदम उठाने होंगे, जिससे कार्यकर्ताओं में भविष्य को लेकर कोई उम्मीद जगे. कांग्रेस संगठन पूरी तरह से बिखरा हुआ है और नेता एक के बाद एक पार्टी छोड़कर जा रहे हैं. ऐसे में दोबारा से कांग्रेस को खड़ा करने और उसमें जान डालने का काम खड़गे को करना है. 

कांग्रेस जमीन से पूरी तरह से 1990 के बाद कट गई है. इसी का नतीजा है कि जमीनी स्तर पर सामाजिक और राजनीति समझ रखने वाले नेता कांग्रेस में नहीं हैं. कांग्रेस अध्यक्ष बने खड़गे को अपने नेतृत्व के प्रति विश्वास का भाव पैदा किए बिना पार्टी संगठन की राजनीतिक क्षमता में उम्मीदों का पंख लगाना आसान नहीं होगा. इस दोहरी चुनौती को तोड़े बिना कांग्रेस को संकट से उबारे बिना आगे नहीं बढ़ेगी और कांग्रेस के संगठनात्मक ढांचे को हवा-हवाई नेताओं के जगह जमीनी और प्रतिभाशाली नेताओं को पार्टी में जगह देनी होगी. 

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युवा और वरिष्ठ नेताओं के बीच संतुलन
कांग्रेस के अंदर युवा और वरिष्ठ नेताओं के बीच संतुलन नहीं बन पा रहा, जिसके चलते कई बड़े दिग्गज नेता पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टी में चले गए हैं. राजस्थान में सचिन पायलट और अशोक गहलोत के बीच छत्तीस के आंकड़े हैं तो कर्नाटक में डी शिवकुमार और सिद्धारमैया के बीच सियासी वर्चस्व की जंग किसी से छिपी नहीं है. ऐसे ही महाराष्ट्र, गुजरात, बिहार और पंजाब में भी युवा और बुजुर्ग नेताओं के बीच बेहतर तालमेल नहीं बन पा रहे हैं. ऐसे में मल्लिकार्जुन खड़गे के लिए अध्यक्ष के तौर पर पार्टी के युवा और बुजुर्ग नेताओं के साथ लेकर चलने की चुनौती है.

कांग्रेस का सियासी आधार जोड़ने का चैलेंज
कांग्रेस का सियासी आधार लगातार खिसकता जा रहा है, जिसके चलते एक के बाद एक राज्य की सत्ता हाथ से निकलती ही जा रही है. कांग्रेस फिलहाल राजस्थान और छत्तीसगढ़ में अपने दम पर सत्ता में है जबकि झारखंड, बिहार और तमिलनाडु में सहयोगी दल के रूप में सरकार में शामिल है. कांग्रेस जिन दो राज्यों में अपने दम पर सत्ता में है, उनमें 2018 में विधानसभा चुनाव होने हैं. कांग्रेस अगर अपनी सरकारें बचाए रखने में सफल नहीं होती है तो 'कांग्रेस मुक्त भारत' का बीजेपी ने जो नारा दे रखा है, वो साकार हो जाएगा. ऐसे में खड़गे के लिए कांग्रेस को सिर्फ जिताना ही नहीं, बल्कि सत्ता में बनाए रखने की भी चुनौती है. 

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प्रदेश संगठन को खड़ा करने की चुनौती
कांग्रेस की पराजय के लंबे सिलसिले की सबसे बड़ी वजह राज्यों में पार्टी का खस्ताहाल ढांचा और लचर व्यवस्था है. दक्षिणी राज्यों, राजस्थान और मध्य प्रदेश के कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, बंगाल, ओडिशा, गुजरात से लेकर गोवा और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में पुरानी पीढ़ी के दिग्गज नेताओं की फौज सियासी रूप से अप्रासंगिक हो चुकी है. छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल के मजबूत नेता के रूप में उभरने के एक नाम के अलावा पार्टी के पास कोई दूसरा नेता नहीं है. ऐसे में नए अध्यक्ष के लिए राज्यों में नई पीढ़ी के भीड़ जुटाऊ लोकप्रिय नेताओं की फौज तैयार करना इसलिए भी अहम है कि क्योंकि राज्यों में उसकी मजबूती ही राष्ट्रीय राजनीति में उसकी पुरानी चमक को लौटा सकती है.

मल्लिकार्जुन खड़गे और कांग्रेस को यह समझने की जरूरत है कि उनकी पार्टी का सामना बेहद शक्तिशाली होकर उभरी बीजेपी से है और उनकी पार्टी नरेंद्र मोदी के उदय काल से पहले वाली कांग्रेस भी नहीं है. खासकर युवा पीढ़ी में कांग्रेस की राजनीतिक प्रासंगिकता को लेकर गहरे सवाल हैं. खड़गे इन सवालों के ठोस जवाब और स्पष्ट विजन के साथ युवा वर्ग को अपने साथ जब तक नहीं जोड़ते, तब तक कांग्रेस की राजनीतिक वापसी की राह शायद ही बनेगी. कांग्रेस को बदलने की जरूरत और इरादे तो राहुल गांधी ने बार-बार जाहिर करते रहे हैं, लेकिन अभी तक साकार नहीं हो सका.

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कांग्रेस की विचाराधारा तय करने का चैलेंज
कांग्रेस के सामने अपनी विचारधारा को लेकर भी बड़ी चुनौती है, जिसे खड़गे को सामना करना होगा. राहुल गांधी अध्यक्ष रहते हुए कांग्रेस की विचाराधारा को तय नहीं कर पाए. राहुल के दौर में वामपंथी विचारधारा वाले लोग जुड़े हैं और  मिडिल क्लास से कांग्रेस ने अपना पूरा नाता तोड़ लिया है जबकि एक दौर में पार्टी का मजबूत वोटबैंक हुआ करता था. वहीं, बीजेपी का संगठन मजबूत है और संघ उसके साथ है. ऐसे में खड़गे को कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर अगर मुकाबला बीजेपी जैसी विचाराधारा वाली पार्टी से करना है तो निश्चित तौर पर अपनी विचाराधारा स्पष्ट करनी होगी. कांग्रेस में बदलाव को मूर्त रूप देना होगा. इसके बाद ही बीजेपी से चुनावी मैदान में दो-दो हाथ कर पाएंगे. 

पीएम मोदी को क्या खड़गे चुनौती दे पाएंगे?
पीएम नरेंद्र मोदी के खिलाफ खड़गे को अपनी स्वीकार्यता को बढ़ाने की चुनौती है. मोदी के साथ निश्चित तौर पर पूरा बीजेपी संगठन और आरएसएस मजबूती के साथ खड़ा है. वहीं, खड़गे क्या अपनी पार्टी के अंदर पीएम मोदी जैसा समर्थन हासिल कर पाएंगे. जनता और विपक्षी पार्टियों के बीच और मोदी के मुकाबले मल्लिकार्जुन खड़गे को अपने नेतृत्व की स्वीकार्यता बढ़ाने और क्षमता साबित करनी होगा. एक नेता अपनी आवाज से देश में अपनी मजबूत पहचान बनाता है. 2024 के चुनाव में कांग्रेस का मुकाबला बीजेपी और मोदी से है. ऐसे में खड़गे क्या कांग्रेस को 2024 के चुनाव में मजबूती के साथ इस तरह से खड़ी कर पाएंगे कि बीजेपी के सामने चुनौती पेश कर पाए?

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