पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ऐसे कद के नेता थे, जिनकी अहमियत अपनी ही पार्टी में नहीं बल्कि विपक्षी नेता और विचारधारा से इतर के संगठनों में भी रही है. कांग्रेस में प्रणब मुखर्जी की भूमिका 'भीष्म पितामह' जैसे रणनीतिकार और 'संकट मोचक' के तौर पर थी. ऐसे में प्रणब दा के निधन से कांग्रेस को बड़ा सियासी झटका लगा है, क्योंकि मौजूदा समय में पार्टी में इस कद के राजनेता नहीं बचे हैं, जिन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की उंगली पकड़कर सियासत सीखी हो और राजनीतिक बुलंदी को छुआ हो. राजीव गांधी की हत्या के 29 साल तीन महीने के बाद प्रणब मुखर्जी का जाना भी कांग्रेस के लिए उसी तरह का तगड़ा झटका माना जा रहा है.
साल 1969 में प्रणब मुखर्जी पहली बार राज्यसभा सदस्य के तौर पर संसद पहुंचे थे. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी राजनीतिक मसलों पर प्रणब मुखर्जी की समझ की कायल थीं. प्रणब मुखर्जी को इंदिरा गांधी ने वित्त मंत्री बनाकर अपनी कैबिनेट में नंबर दो का दर्जा दिया था. कांग्रेस के आर. वेंकटरामन, पीवी नरसिम्हाराव, ज्ञानी जैल सिंह जैसे कद्दावर नेताओं के बीच प्रणब दा ने अपने काम का लोहा मनवाया था. इसी का नतीजा था कि यूपीए की सरकार बनी तो सोनिया गांधी ने प्रणब मुखर्जी को मनमोहन सिंह की कैबिनेट में नंबर-2 की जगह दी. उन्होंने यूपीए के दौर में विदेश से लेकर वित्त मंत्रालय तक संभाला और मनमोहन सरकार में उनकी भूमिका एक संकटमोचक की रही.
कांग्रेस के भीष्म पितामह थे मुखर्जी
कांग्रेस नेता तारिक अनवर कहते हैं कि प्रणब मुखर्जी जैसे शख्स राजनीति में बहुत कम दिखते हैं. कांग्रेस के लिए प्रणब मुखर्जी भीष्म पितामह की तरह थे. यूपीए सरकार में प्रणब मुखर्जी की सहमति के बिना पार्टी कोई फैसला नहीं ले सकती थी. वहीं कांग्रेस नेता और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का कहना है कि जब भी सरकार संकट में आती थी तो एक संकट मोचक के रूप में प्रणब मुखर्जी सामने होते थे.
झारखंड प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष डॉ रामेश्वर उरांव ने कहा कि प्रणब मुखर्जी सिर्फ कांग्रेस के ही नहीं बल्कि सभी राजनीतिक दलों के लिए प्रिय माने जाते थे. जब कभी भी कांग्रेस पार्टी या देश के ऊपर संकट गहराता था, प्रणब मुखर्जी अपनी सूझबूझ से हमेशा मार्गदर्शन करते थे. ऐसे में उनके जाने के पार्टी और देश को दोनों बड़ा झटका लगा है.
संकट मोचक थे प्रणब दा
वरिष्ठ पत्रकार शकील अख्तर कहते हैं प्रणब मुखर्जी कांग्रेस में काफी तेज नेता के तौर पर माने जाते थे. एक तरह से उन्हें कंप्यूटर भी कहा जाता था और उनकी पैनी बुद्धि का लोहा हर कोई मानता रहा है. किसी तरह की समस्या पार्टी में आ जाए तो उसका बेहतर समाधान वह तलाश देते थे. कांग्रेस में जब भी कोई राजनीतिक संकट खड़ा होता तो वह बहुत ही धैर्य से उसे सुलझाने का काम करते थे. प्रणब मुखर्जी 2012 में राष्ट्रपति बनने के बाद सक्रिय तौर पर कांग्रेस के लिए कोई भूमिका तो नहीं अदा करते थे, लेकिन वैचारिक तौर पर कई ऐसे मुद्दों पर वो पार्टी के रक्षाकवक्ष के तौर पर भूमिका अदा करते थे.
प्रणब मुखर्जी पर किताब लिखने वाले वरिष्ठ पत्रकार गौतम लाहिड़ी कहते हैं कि प्रणब मुखर्जी के पास राजनीति, संविधान और इतिहास का बहुत अनुभव रहा है. कांग्रेस नेता के तौर पर उन्होंने पार्टी और सरकार में रहते हुए अहम योगदान दिया तो भारत के राष्ट्रपति के तौर पर भी उन्होंने अपने सिद्धांतों को पूरी तरह कायम रखने का काम किया था. राष्ट्रपति के तौर पर उनके कार्यकाल के दौरान दो अलग-अलग विचारधाराओं वाली सरकार रही. लेकिन जब जब उनकी मंजूरी का वक्त आया तब तब उनका रवैया एक समान रहा.वह हमेश ही सही रास्ता दिखाते हुए सहायता के लिए तैयार रहते थे. चाहे अर्थव्यवस्था का मसला हो, हमारी ससंदीय प्रणाली या राजनीति से संबंधित कोई मसला.
प्रणब मुखर्जी बाकी तमाम राजनेताओं की तरह एक महत्वकांक्षी नेता जरूर थे, वो लेकिन वो पार्टी के फैसलों का दिल से सम्मान भी करते थे. 2004 में कांग्रेस की जीत के बाद सोनिया गांधी ने मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री के रूप में चुना तो उन्होंने हमेशा पीएम का सम्मान किया. यूपीए के सत्ता में आने के बाद एकदम शुरुआती मीटिंग में पीएम मनमोहन सिंह ने अपने पुराने बॉस और पार्टी के सीनियर नेताओं को सर कहकर संबोधित किया. बताया जाता है कि प्रणब दा ने मनमोहन सिंह से कहा कि अब आप प्रधानमंत्री हैं, इसलिए अब मुझे सर नहीं कहा जाना चाहिए.
कांग्रेस-बीजेपी दोनों जगह प्रणब दा का सम्मान
वरिष्ठ पत्रकार केजी सुरेश मानते हैं कि प्रणब मुखर्जी ऐसे नेता थे, जिनके अंदर देश के प्रधानमंत्री बनने की सारी क्षमताएं थीं. प्रधानमंत्री होने के लिए सार्वजनिक जीवन में एक लंबी पारी बहुत जरूरी होती है और उस लिहाज से प्रणब मुखर्जी प्रधानमंत्री बनने के हकदार थे. कांग्रेस ने प्रणब के बजाय कभी नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह को ही प्रधानमंत्री बनाने का काम किया, लेकिन प्रणब मुखर्जी अपनी विचाराधारा से हटे नहीं और न ही कांग्रेस से अलग हुए.
वह कहते हैं कि प्रणब भले ही कांग्रेसी थे लेकिन बीजेपी के नेता यहां तक कि संघ भी उनका सम्मान करता था. बीजेपी के दिग्गज नेताओं में शुमार अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक ने कई मौकों पर प्रणब मुखर्जी की तारीफ की थी. मोदी ने प्रणब मुखर्जी को लेकर कहा था कि जब मैं दिल्ली में नया-नया आया था तब राष्ट्रपति ने एक अभिभावक की भांति मुझे उंगली पकड़कर दिल्ली की सियासी बारिकियां सिखाई थीं. मोदी ने यह भी कहा था कि मैंने सीखा कि कैसे अलग-अलग सियासी विचारधारा के साथ लोकतंत्र के लिए कंधे से कंधा मिलाकर काम किया जा सकता है. ऐसे में प्रणब का जाना कांग्रेस के लिए काफी गहरा झटका है.
दरअसल, प्रणब मुखर्जी के निधन के साथ ही कांग्रेस में इंदिरा गांधी के दौर के नेता नहीं बचे हैं. महज कर्ण सिंह जैसे नेता हैं, लेकिन राजनीतिक रूप से वो भी ज्यादा सक्रिय नहीं हैं. इसके अलावा कांग्रेस में बाकी नेता राजीव गांधी के दौर के हैं या फिर सोनिया गांधी ने जिन्हें राजनीतिक रूप से बढ़ाया है वो हैं. इस तरह से पिछले दो दशक में कांग्रेस के लिए प्रणब मुखर्जी का जाना काफी तगड़ा झटका माना जा रहा है. कांग्रेस में ऐसे नेता नहीं बचे हैं जो संकट में पार्टी को नई सियासी राह दिखा सकें.