ऐसा नहीं है कि परिवार के सदस्यों और सगे संबंधियों ने ही अतीत में राजाओं के साथ दगाबाजी करते हुए तख्तापलट किया, बल्कि संसदीय लोकतंत्र में भी इस तरह की घटनाएं हुई हैं. महाराष्ट्र में रविवार को हुआ सियासी घटनाक्रम इसका ताजा उदाहरण है. मराठा क्षत्रप शरद पवार भी अब उस सूची में शामिल हो गए हैं जिसमें अभी तक ठाकरे, अब्दुल्ला, मुलायम सिंह यादव, बादल और नंदामुरी तारक राम राव उर्फ एनटीआर का नाम शामिल था. इनमें से अधिकांश ने अपनी मेहनत के दम पर वापसी की. अब देखने वाली बात यह है कि पवार अपने करियर की सबसे कठिन और अपमानजनक चुनौती से कैसे निपटेंगे.
कांग्रेस पर किया था कटाक्ष
पवार ने 1999 को राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का गठन किया था और अपने दम पर पार्टी को आगे बढ़ाया. अब उनके सामने बगावत से निपटने की चुनौती है. पवार के लिए इससे भी अधिक शर्मनाक बात यह है कि यहां अपने विधायकों ने ही उनका साथ छोड़ दिया है. वहीं दूसरी तरफ कई बयानबाजियों के बावजूद भी कांग्रेस में महाराष्ट्र में एकजुट है. पवार अक्सर अपनी पूर्व पार्टी पर कटाक्ष करते रहे हैं. उन्होंने यहां तक कह दिया था कि कांग्रेस में शामिल लोगों को यह स्वीकार करना चाहिए कि सबसे पुरानी पार्टी का प्रभाव अब 'कश्मीर से कन्याकुमारी' तक वैसा नहीं है जैसा पहले हुआ करता था.
पवार ने सुनाया था जमींदार वाला किस्सा
पवार को यूपी के उन जमींदारों के बारे में एक किस्सा सुनाना भी पसंद आया था, जिन्होंने अपनी अधिकांश जमीन खो दी है और अपनी 'हवेली' को मेंटेन करने में असमर्थ रहे. यूपी के जमींदारों से कांग्रेस की तुलना करते हुए एक समय उन्होंने कहा था, 'मैंने उत्तर प्रदेश के जमींदारों के बारे में एक कहानी बताई थी जिनके पास बड़ी 'हवेलियाँ' हुआ करती थीं. भूमि हदबंदी कानून के कारण उनकी जमीनें कम हो गईं. हवेलियाँ बची रहीं लेकिन उनकी देखभाल और मरम्मत करने की उनकी कैपिसिटी नहीं रही. जब जमींदार सुबह उठता है, तो वह आसपास हरा-भरा खेत देखता है और कहता है कि यह सारी जमीन उसकी है. यह कभी उनका था, लेकिन अब उनका नहीं है.' शायद पवार भी यह नहीं जानते होंगे कि वह खुद जल्द ही उसी तरह के जमींदार बन जाएंगे.
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नाव की सवारी
यह भी कहा जा रहै है कि कम से कम 2024 तक तो पवार दो नावों पर सवार होने का इरादा रखते हैं. वह और उनकी बेटी सुप्रिया महाविकास अघाड़ी (एमवीए) में रहकर विपक्ष में रहेंगे, जबकि दूसरी तरफ 'अग्रिम पार्टी' होगी जिसमें भतीजे अजीत पवार और भरोसेमंद लेफ्टिनेंट प्रफुल्ल पटेल शामिल हैं जो एनडीए में रहेंगे. हालाँकि, सारा दारोमदार इस बात पर रहेगा कि राज्य की राजनीति में निर्णायक भूमिका निभाने वाले प्रभावशाली मराठा मतदाता [30 प्रतिशत से अधिक] कैसे अजित पवार के कदम पर प्रतिक्रिया देते हैं.
मराठों का वोटिंग पैटर्न अब तक मिला-जुला रहा है और पश्चिमी महाराष्ट्र में एनसीपी की तुलना में बीजेपी के ख़िलाफ़ ज़्यादा वोटिंग हुई है. भाजपा के प्रति मराठों की नापसंदगी का एकमात्र कारण यह रहा है कि नरेंद्र मोदी के प्रस्ताव के बावजूद पवार खुद कभी भी भाजपा की तरफ नहीं गए. विश्वासघात का सबसे दुखद हिस्सा यह रहा है कि पवार को धोखा दुश्मनों ने नहीं अपनों ने दिया.
पवार कर रहे थे कोशिश?
यह एक खुला रहस्य है कि पवार पिछले कुछ हफ्तों से राकांपा नेताओं के बीच एकता की भावना बहाल करने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन उन्हें ज्यादा सफलता नहीं मिली. राकांपा का एक वर्ग कथित तौर पर भाजपा के साथ बातचीत कर रहा था और कांग्रेस, राकांपा और शिवसेना [उद्धव] वाले महा विकास अघाड़ी (एमवीए) गठबंधन से बाहर निकलने का प्रयास कर रहा था. लगातार इनकार के बावजूद यह बात मीडिया में आई थी कि पवार के भतीजे अजित की अमित शाह और अन्य बीजेपी दिग्गजों से मुलाकात हुई थी. एनसीपी प्रमुख के रूप में पवार का इस्तीफा और उसके बाद सुले को एनसीपी प्रमुख के रूप में पदोन्नत करने का उद्देश्य अजीत पवार को रोकना था, लेकिन इसका उलटा असर हुआ.
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2024 की स्क्रिप्ट तैयार
एनसीपी विभाजन का असर 2024 के लोकसभा चुनावों पर भी पड़ेगा. 2019 के लोकसभा में, भाजपा और तत्कालीन संयुक्त शिवसेना सेना ने 48 लोकसभा सीटों में से 42 सीटें हासिल की थीं. 2024 के लिए अजित पवार की मदद से एनडीए के 2019 के प्रदर्शन को दोहराने की स्क्रिप्ट तैयार करने की कोशिश की जा रही है. राकांपा में विभाजन का न केवल एमवीए पर, बल्कि पश्चिमी महाराष्ट्र में कांग्रेस पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा, जहां वह राकांपा के साथ गठबंधन में है.
अजित पवार का दलबदल काफी हद तक वैसा ही है जैसे चंद्रबाबू नायडू ने अपने ससुर एन टी रामाराव को किनारे कर दिया था या जिस तरह से अखिलेश यादव ने पिता मुलायम सिंह यादव को मात दे दी थी. अजित पवार ने विधायकों के बीच अपना दबदबा दिखाया है.
50 साल से राजनीति में है पवार
82 साल के पवार 50 साल से ज्यादा समय से राजनीति में सक्रिय हैं. उन्होंने राजनीति में कई उतार और चढ़ाव देखे हैं. साल 1967 में वे 27 साल की उम्र में पहली बार विधायक बने. 32 साल की उम्र में पहली बार सीएम बन गए. 45 साल पहले शरद ने भी सत्ता के लिए बगावत कर मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली थी. उन्होंने अपने पॉलिटिकल करियर की शुरुआत कांग्रेस से की, लेकिन दो बार उसके ही खिलाफ गए और सत्ता में आए. पहली बार 1978 में और दूसरी बार 1999 में.
शरद के पवार गेम की 1978 की कहानी...
साल 1977 में आम चुनाव के बाद कांग्रेस दो धड़ों में बंट गई थी. नाम रखा गया कांग्रेस (I) और कांग्रेस (U). शरद पवार भी बगावत का हिस्सा बने. वे कांग्रेस (U) में शामिल हुए. साल 1978 में महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव आया और दोनों धड़े एक-दूसरे के खिलाफ मैदान में उतरे. इस बीच, जनता पार्टी सबसे बड़े दल के रूप में उभरी और 99 सीटों पर जीत हासिल की. जबकि कांग्रेस (I) ने 62 और कांग्रेस (U) ने 69 सीटें जीतीं. किसी दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिला. राज्य में जनता पार्टी ने सरकार बनाने के लिए संभावनाएं तलाशीं. लेकिन, जनता पार्टी को रोकने के लिए I और U ने गठबंधन कर लिया और सरकार बना ली. यह सरकार डेढ़ साल से ज्यादा चली. बाद में जनता पार्टी में फूट पड़ गई और महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया.
राजीव गांधी के करीब आए और फिर बने सीएम
हालांकि, कुछ महीने बाद शरद पवार ने कांग्रेस (यू) से भी बगावत की और जनता पार्टी से हाथ मिला लिया. जनता पार्टी के समर्थन से शरद पवार 38 साल की सबसे कम उम्र में मुख्यमंत्री बने. तब देश की राजनीति में इंदिरा गांधी सक्रिय थीं. 1977 की इमरजेंसी के बाद कांग्रेस बुरे दौर से गुजर रही थी. हालांकि, साल 1980 में इंदिरा गांधी सरकार की वापसी हुई तो पवार की सरकार बर्खास्त कर दी गई. बाद में 1986 में पवार कांग्रेस में शामिल हो गए. तब कांग्रेस की कमान राजीव गांधी के हाथों में थी और वो देश के प्रधानमंत्री थे. कुछ ही दिनों में पवार फिर गांधी परिवार के करीब आ गए और 26 जून 1988 में शंकर राव चव्हाण की जगह सीएम की कुर्सी मिल गई. पवार 26 जून 1988 से लेकर 25 जून 1991 के बीच दो बार मुख्यमंत्री बने.
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हुआ था 1978 में...
जुलाई 1978. एक उमस भरी दोपहरी में शरद पवार महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री वसंत दादा पाटील के घर पर खाने पर गए थे. बुलावा खुद पाटील ने ही भेजा था. वे अपने इस युवा उद्योग मंत्री (शरद पवार) से कुछ चर्चा करना चाहते थे. कहते हैं कि शरद पवार गए, खाना खाया, बातचीत की और चलते हुए. उन्होंने दादा पाटील के आगे हाथ जोड़े, कहा- दादा, मैं चलता हूं, भूल-चूक माफ करना... सीएम वसंत दादा तब कुछ समझे नहीं, लेकिन शाम को एक खबर ने महाराष्ट्र समेत दिल्ली की राजनीति को भी हिला दिया था.
कैसे सोनिया गांधी के विरोध से अस्तित्व में आई NCP
साल था 1999. तारीख 15 मई. कांग्रेस की CWC की बैठक थी. शाम को हुई इस बैठक में अचानक ही शरद पवार, पीए संगमा और तारिक अनवर की तरफ से विरोध के सुर सुनाई दिए. संगमा ने कहा, सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा बीजेपी लगातार उठा रही है. ये सुनना सोनिया के लिए उतना हैरानी भरा नहीं था, जितना वह अगले व्यक्ति की आवाज सुनकर हुईं. यह कोई और नहीं, शरद पवार थे, जिन्होंने तुरंत ही संगमा की बात का समर्थन किया और अपनी हल्की-मुस्कुराती आवाज में पहले तो संगठन में एकता लाने के लिए सोनिया गांधी की तारीफ की और फिर तुरंत ही अगली लाइन में प्रश्नवाचक चिह्न उछाल दिया.
कांग्रेस ने निकाला तो किया एनसीपी का गठन
शरद पवार ने कहा, 'कांग्रेस आपके विदेशी मूल के बारे में बीजेपी को जवाब नहीं दे सकी है. इस पर गंभीरता से विचार की जरूरत है. इस तरह, साल 1999 में शरद पवार, पीए संगमा और तारिक अनवर ने सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने का विरोध किया और उसके बाद तीनों नेताओं को पार्टी से निकाल दिया गया. महज 10 दिन बाद ही तीनों ने मिलकर 25 मई 1999 को राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (NCP) का गठन किया.