चुनाव कैसे जीते जाते हैं? 2022 से 2027 तक कांग्रेस का नेतृत्व कौन करेगा? बहुसंख्यकवाद और बाहुबल राष्ट्रवाद का मुकाबला कांग्रेस कैसे करना चाहिए?
उदयपुर में कांग्रेस का तीन दिन का चिंतन शिविर चर्चा में रहा. जोशीले भाषण हुए, शब्दों की बाजीगरी हुई. देश की सबसे पुरानी पार्टी ने अपनी विशिष्ट शैली में जनता के साथ अलगाव के मुद्दे, एक शख्सियत की आवश्यकता (जी-23 द्वारा रखे गए सामूहिक नेतृत्व के विचार के विपरीत), बढ़ चढ़कर नेतृत्व जैसे मुद्दों पर चर्चा कि लेकिन इन अहम सवालों का जवाब देने में विफल रही.
कितना प्रभावशाली होगा राजनीतिक पैनल?
कुछ कांग्रेस नेता और राजनीतिक विश्लेषक कांग्रेस संसदीय बोर्ड [सीपीबी] के उद्देश्य को पूरा करने के लिए राजनीतिक मामलों के पैनल की नियुक्ति के कदम को गलत तरीके से देख रहे हैं. कांग्रेस के संविधान के अनुसार सीपीबी सुप्रीम पावर से लैस है. इसकी ताकत कांग्रेस वर्किंग कमेटी (CWC) से भी ज्यादा है. ऐसा माना जाता है कि सोनिया गांधी ने संदेश दिए हैं कि CWC से राजनीतिक मामलों की एक कमेटी बनाई जाएगी. इस समय CWC 57 भारी भरकम (24 के बजाय) सदस्यों वाला एक बॉडी है. लेकिन इस बॉडी में सचिन पायलट, कमल नाथ, डीके शिवकुमार, भूपेंद्र सिंह हुड्डा, भूपेश बघेल, अशोक गहलोत, पृथ्वीराज चव्हाण और कई अन्य ऐसे नेता शामिल नहीं हैं, जिनकी समाज और चुनावी राजनीति में मजबूत जड़ें मानी जाती हैं.
ऐसे में कांग्रेस नेताओं को खुद से पूछना चाहिए कि क्या पायलट, कमलनाथ, बघेल, हुड्डा, अशोक गहलोत, डीके शिवकुमार के बिना बनाया गया राजनीतिक मामलों का पैनल कितना प्रभावशाली होगा.
उदयपुर चिंतन शिविर: आधे-अधूरे निर्णय और विचार विमर्श
उदयपुर चिंतन शिविर को इतिहास में मौके गंवा देने वाले केस के रूप में जाना जाएगा. चाहे नेतृत्व का मुद्दा हो, व्यापक सुधार हो या फिर सबसे पुरानी पार्टी के आधुनिकीकरण की बात हो, उदयपुर चिंतन शिविर के विचार-विमर्श और निर्णय आधे-अधूरे, कैविएट से भरे हुए और दृढ़ विश्वास के साहससे कही दूर थे.
1998 के पचमढ़ी चिंतन शिवर के विपरीत, कांग्रेस ने गठबंधन करने के मुद्दे को आक्रामक रूप से नहीं उठाया, नही इस पर चर्चा की. इसके बजाय राहुल गांधी, जिन्हें कई लोग ये मान रहे हैं कि वे सितंबर 2022 में नेतृत्व की बागडोर अपने हाथ में लेंगे, गैर-एनडीए क्षेत्रीय दलों पर हमला करते नजर आए. कठोर राजनीतिक वास्तविकताओं को देखते हुए यह असंगत प्रतीत जरूर होता है, लेकिन इस बयान के पीछे भी वजह है. दरअसल, राहुल और सोनिया गांधी तृणमूल कांग्रेस या आम आदमी पार्टी को कोई महत्व नहीं देना चाहते, जो गठबंधन का नेतृत्व करने के कांग्रेस के 'ऐतिहासिक कर्तव्य' पर सवाल उठा रहे हैं और उसे चुनौती दे रहे हैं.
चिंतन शिविर में मौन रहे असंतुष्ट G-23 नेता
कांग्रेस के चिंतन शिविर में असंतुष्ट G-23 की मौन प्रतिक्रिया भी उतनी ही हैरान करने वाली रही. कांग्रेस के असंतुष्ट नेता जो अगस्त 2020 से खुद को पार्टी का मुखर सुधारवादी और समर्थक बता रहे थे, देश भर के 430 पार्टी नेताओं की बैठक में चुप रहे.
कांग्रेस के चिंतन शिविर में कपिल सिब्बल नहीं थे. हालांकि, गुलाम नबी आजाद, आनंद शर्मा, मुकुल वासनिक, भूपेंद्र सिंह हुड्डा, पृथ्वीराज चव्हाण, शशि थरूर, विवेक तन्खा, मनीष तिवारी और अन्य वे नेता शामिल थे, जिन्होंने नेतृत्व परिवर्तन समेत तमाम मुद्दों पर सवाल उठाए थे. बताया जा रहा है कि इनमें से कई नेता अभी भी राज्यसभा सीट के लिए नजरें बनाए हुए हैं.
पार्टी नेतृत्व का मुद्दा अभी भी अनसुलझा
3 दिन में तमाम चर्चाओं के बावजूद पार्टी नेतृत्व का मुद्दा अनसुलझा रहा. कई कांग्रेसी नेताओं ने चिंतन शिविर में मांग की कि राहुल गांधी को पार्टी का 87वां अध्यक्ष बनाया जाए. आचार्य प्रमोद कृष्णन ने एक अलग ही राग छेड़ा, उन्होंने कहा, अगर राहुल गांधी की इच्छा कांग्रेस नेतृत्व करने की नहीं है, तो प्रियंका गांधी को अध्यक्ष बनाया जाना चाहिए.
उधर, राहुल गांधी अडिग रहे. यहां तक कि चिंतन शिविर में उनकी बॉडी लैंग्वेज भी यह संकेत नहीं दे रही थी कि वे 2024 में सामने से नेतृत्व करने के चुनौतीपूर्ण कार्य को करने के लिए उत्साहित हैं. हालांकि, कांग्रेस के अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि पार्टी में नेतृत्व का मुद्दा वन होर्स रेस की तरह है. यानी कि एक ऐसा रेस जिसमें एक प्रतिद्वंदी अन्य प्रतिद्वंदियों से साफ साफ आगे जाता दिखता है.
क्या गैर गांधी बनेगा कांग्रेस अध्यक्ष?
पंचायत से लेकर संसद तक किसी भी स्थिति में सभी पदों को नियंत्रित करने के लिए टीम राहुल को तैनात किया गया है. वहीं, नए अध्यक्ष का कार्यकाल 2022 से 2027 तक होगा. क्या कांग्रेस इतनी लंबी अवधि के लिए एक गैर-गांधी को अध्यक्ष पद पर स्वीकार कर सकती है. इतना ही नहीं सवाल ये भी है कि क्या सोनिया, राहुल और प्रियंका की उपस्थिति में कोई गैर गांधी स्वतंत्र तौर पर कांग्रेस का अध्यक्ष बन कर पूरी स्वतंत्रता से काम कर सकता है. इन सवालों का भी उदयपुर में कोई जवाब नहीं मिला.
उधर, कांग्रेस ने चिंतन शिविर में महिला आरक्षण विधेयक जैसे बिल में 'कोटे के भीतर कोटे' का समर्थन किया. यह चिंतन शिविर का सबसे प्रतिगामी मुद्दा रहा. दरअसल, कांग्रेस अब तक आरक्षण में कोटे का विरोध करती रही है. अगर कांग्रेस ने महिला आरक्षण में एससी, एसटी और ओबीसी को आरक्षण देने की मांग मानी होती, तो यह बिल 1990 में ही पास हो जाता. 2010 में कांग्रेस सरकार ने महिला आरक्षण बिल को पेश किया था. यह राज्यसभा में पारित हो गया था. लेकिन मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव और शरद यादव के विरोध के चलते आगे नहीं बढ़ पाया था. उन्होंने इसका विरोध करते हुए आरोप लगाया था कि इस आरक्षण का मुख्य रूप से उच्च जाति के उम्मीदवारों को लाभ होगा. संयोग से भारत, 193 देशों की सूची में उनके संसदों में निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों के प्रतिशत के आधार पर 148वें स्थान पर है.
धर्म के मुद्दे पर दो खेमों में बंटी दिखी कांग्रेस
कांग्रेस ने अपनी कुछ वैचारिक दुविधाओं को दूर करने की कोशिश की, लेकिन इसमें स्पष्टता देखने को नहीं मिली. धर्म को प्रमुखता और धर्मनिरपेक्षता जैसे मुद्दों पर भी उदयपुर चिंतन शिवर में तीखी बहस हुई. और इस दौरान पार्टी उत्तर-दक्षिण भारत जैसे दो खेमों में बंटी नजर आई.
जहां कमलनाथ, भूपेश बघेल और उत्तर प्रदेश के नेताओं ने जनता तक पहुंच बढ़ाने के लिए धार्मिक कार्यक्रमों के आयोजनों करने का समर्थन किया. दूसरे शब्दों में कहें तो सुझाव दिया गया कि पार्टी नेताओं को अपने अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों में 'दही हांडी' प्रतियोगिता आयोजित करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, प्रदेश और जिला कांग्रेस कमेटियों में गणेश प्रतिमाएं स्थापित करनी चाहिए और दुर्गा उत्सव मनाना चाहिए.
वहीं, कांग्रेस कार्य समिति के सदस्यों बी के हरि प्रसाद, डॉ चिंता मोहन समेत दक्षिण भारत के कांग्रेस नेताओं के एक वर्ग ने धार्मिक कार्यक्रमों के प्रसार पर आपत्ति जाहिर की. तमिलनाडु, केरल, आंध्रप्रदेश और तेलंगाना के नेताओं ने कहा कि पार्टी को राजनीति से धर्म को नहीं जोड़ना चाहिए और भाजपा की पिच पर आने से बचना चाहिए.
लेकिन इस बहस में न तो उदयपुर संकल्प पत्र का उल्लेख हुआ और न ही राहुल या सोनिया गांधी के भाषणों का. यह एक तथ्य है कि मई 2014 के बाद से कांग्रेस की वैचारिक दुविधाएं लगातार सामने आती रही हैं. हालांकि, तब से पार्टी का नेतृत्व कर रहे सोनिया और राहुल गांधी ने इस मुद्दे पर कम से कम प्रतिरोध का रास्ता अपनाया और इस मुद्दे को टालते रहे हैं. इससे पहले दिसंबर 2017 से मई 2019 के बीच में राहुल गांधी ने इफ्तार पार्टियां आयोजित की थी और मंदिरों में दर्शन किए थे.