साल 1972...इंजीनियरिंग की पढ़ाई के बाद नौसेना में नौकरी की कोशिश, फिर नौकरी नहीं मिलने के बाद नीतीश कुमार सियासी फ़लक पर अपनी क़िस्मत आज़माने की ठान चुके थे. ये वो दिन थे, जब भावी राजनीतिज्ञ नीतीश अपने दोस्तों के साथ ख़ाना-ब-दोश की तरह वक़्त गुज़ारा करते थे. जयपुर, आगरा घूमने और ट्रेन में बैग काटे जाने का शिकार होने के बाद दोस्तों के साथ महाराष्ट्र के कुछ इलाकों में घूमने की योजना बनी और नीतीश अपने आकर्षण के केंद्र बम्बई की तरफ बढ़ चले.
पेशे से इंजीनियर और नीतीश कुमार के दोस्त रहे डॉ उदय कांत अपनी किताब 'नीतीश कुमार: अंतरंग दोस्तों की नज़र से' में उस दौर का ज़िक्र करते हैं. वे लिखते हैं- नीतीश के लिए बम्बई में सिर्फ़ दो व्यक्ति ही आकर्षण का केंद्र हुआ करते थे- जॉर्ज फ़र्नांडिस और आचार्य रजनीश यानी ओशो.
उदय कांत इस कहानी को आगे बढ़ाते हुए स्वामी आनंद अरुण की किताब 'इन वंडर विद् ओशो' का रिफ़रेंस देते हैं. स्वामी अपनी किताब में कहते हैं कि मैं नीतीश के साथ पंढ़र रोड स्थित वुडलैंड्स अपार्टमेंट्स में रह रहे भगवान रजनीश से मिलने चला गया. पहले तो मुझे बिना किसी पूर्व सूचना के उनके शयनकक्ष तक जाने की अनुमति थी लेकिन हमने पाया कि अब भगवान से मुलाक़ात का मैनेजमेंट पूरी तरह से बदल गया है. हमने प्रार्थना करते हुए भगवान के पास पुर्जा भिजवाया और फिर जवाब आया कि, ‘अगर मैं अकेला उनसे मिलना चाहूं, तो अगली सुबह आऊं लेकिन अगर मुझे अपने दोस्त को भी साथ लाना है, तो अगली शाम आऊं.’
'जब तय हो गईं नीतीश के भविष्य की राहें...'
स्वामी आनंद अरुण आगे लिखते हैं- यह संदेश पाकर मुझे जोर का झटका लगा क्योंकि मुझे पूरी उम्मीद थी कि मेरी चिट्ठी पढ़कर ही भगवान रजनीश मुझे फ़ौरन बुला लेंगे. यह सभी तामझाम देखकर नीतीश पहले से ही निराश हो चुके थे. उन्होंने दोबारा वहां जाने से इनकार करते हुए जॉर्ज फर्नांडिस साहब से मिलने का मन बना लिया. वो आगे कहते हैं कि उसी शाम हम दोनों के भविष्य की राहें तय हो गईं- 'मेरी ज़िंदगी भगवान के चरणों में समर्पित हो गई और नीतीश के क़दम भारत के बेहद अहम राजनेताओं में से एक बनने की डगर पर बढ़ गए.'
कवि नीतीश...
उदय कांत अपनी किताब में लिखते हैं कि स्वामी जी की यह बात (भविष्य की राहें) कितनी सही है, इसका सटीक अंदाज़ा नीतीश और स्वामी जी की कविताओं से लगाया जा सकता है, जो उन्होंने बंबई से वापस आकर लिखी थीं. नीतीश कुमार लिखते हैं...
नीयत साफ़
नहीं उनकी
जो अपने को पढ़ने-लिखने
वाला समझते हैं
क्योंकि व्यवस्था के भागीदार हैं.
उन्हें डर है कि बदलाव के बाद जो एक नई व्यवस्था
शोषण और अन्यायमुक्त जन्मेगी
उसमें शायद उनका यह दोहरा आचरण बेपर्द हो जाएगा
उनकी लफ़्फ़ाज़ी साफ़ हो जाएगी
और वे अपने बुद्धिजीवी होने की धौंस नहीं जमा पाएंगे
अगर यह झूठ है तो आगे आओ
एक आदमी की सत्ता के अंदर उभरते हुए
विरोध और आक्रोश की छटपटाती लहर को
दिशा दो.
नीतीश कुमार की यह कविता समाजवाद के समंदर में डूबी है और यह ललकार है सिर्फ़ एक आदमी की मुट्ठी में कै़द सत्ता को मुक्त कराने की. नीतीश ने इस तरह की और भी कविताएं लिखी हैं. नीतीश कुमार की यह कविता किस पर निशाना हैं, ये तो वही बता सकते हैं लेकिन उदय कांत इससे जुड़ी एक ख़ुशनुमा याद का ज़िक्र करते हैं. वो कहते हैं कि जिस वक़्त नीतीश ने इस तरह की कविताएं लिखी थीं, तब उनके कॉलेज की आंतरिक परीक्षाएं चल रही थीं. परीक्षा में नीतीश कभी नकल नहीं करते थे, इस वजह से सभी प्रोफ़ेसर उनसे प्यार करते थे और जहां गुंजाइश हुआ करती थी, नंबर मिल जाया करते थे लेकिन इस बार उनका एग्ज़ाम बहुत ही ख़राब हुआ.
उदय कांत आगे कहते हैं कि नीतीश ने यह कविताएं दुनिया से बेज़ार अपने कॉलेज के मोड़ वाली चाय-नाश्ते की दुकान पर बैठकर ये कविताएं लिखी थीं.
अब स्वामी आनंद अरुण की कविता पढ़िए...
उखड़ी हुई सांसें, और बिखरे हुए विश्वास लिये चले चलो
जो कभी न मिले उस मंज़िल को
जो छूट जाए उस साथी के साथ
चले चलो.
न रुकना, न थकना,
रुके कि चुके, थके कि छूटे
दौड़ सको तो वाह! वाह!
भिखमंगों के आगे फैला दो झोली,
प्यासों से मांग लो थोड़ा स्नेह
न मिले तो?
तो पत्थरों के आगे बहा दो आंसू
किताबों में बंद फ़रिश्तों से जोड़ लेना नेह
फिर नई आशाएं
और अंधे विश्वास लिए
अपने को छले चलो
चले चलो.
उदय कांत कहते हैं कि उन दिनों अगर इंजीनियरिंग पढ़ते-पढ़ते नीतीश पूरी तरह लोहियाइट हो चुका था, तो अरुण भी पूरी रजनीशिया गया था.
नीतीश पर लोहिया का कितना असर?
नीतीश कुमार यूनिवर्सिटी में पढ़ाई करते-करते पूरी तरह से लोहियावादी हो गए. वो यूनिवर्सिटी के छात्र संघ चुनावों में समाजवादी प्रत्याशियों को समर्थन देने में कोई कसर नहीं छोड़ा करते थे. इसके बाद उनको विधानसभा चुनावों में भी समाजवादी विचारधारा से जुड़े लोगों को समर्थन करते देखा गया. राजनीति में अपने क़दम जमाने के बाद भी नीतीश कुमार को कई बार लोहिया के बारे में बोलते देखा जा चुका है.
अक्टूबर 2016 में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पटना में राम मनोहर लोहिया की पुण्यतिथि पर 'स्वच्छता अभियान' के बारे में बात करते हुए कहा था, ‘यह अभियान वास्तव में सबसे पहले 50 के दशक में अनुभवी समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया द्वारा प्रमुखता से शुरू किया गया था. वह स्वच्छता पर जोर देने वाले पहले नेता थे. वो कहा करते थे कि यह हर किसी के लिए अभिशाप है कि महिलाओं को खुले में शौच के लिए जाना पड़ता है.’
‘लोहिया का नीतीश कुमार पर हुए असर’ की बात करते हुए किताब में उदय कांत लिखते हैं कि लोहिया और नीतीश के काम करने और क़ानून बनाने के तरीक़ों में कई बार समानता नज़र आती है. राम मनोहर लोहिया ने सोशलिस्ट पार्टी के लिए बेहद कड़े नियम लागू किए थे और उनके सख़्त नियमों की वजह से बहुत से साथी उन्हें छोड़कर भाग गए. दूसरी तरफ, सत्ता में आने के बाद नीतीश ने भी नशाबंदी के लिए बेहद कड़े नियम बनाए और उनकी सहयोगी पार्टियों- आरजेडी और कांग्रेस के कुछ नेताओं ने दबे स्वर में नशाबंदी का विरोध किया. लेकिन इससे जुड़े नियमों को मिले जनसमर्थन की वजह से नीतीश के विरोधी मुखर नहीं हो सके.
उदय कांत आगे लिखते हैं कि लोहिया को पार्टी बचाए रखने के लिए अनुशासन ढीला करना पड़ा. वहीं नीतीश को भी कोर्ट के आदेश की वजह से शराबबंदी के कड़े क़ानून में कुछ ढील देनी पड़ी. इसके अलावा लोहिया ने अलग-अलग विचारों वाले सियासी दलों को इकट्ठा करने की कोशिश की. दूसरी तरफ नीतीश ने भी लोहिया और जेपी की तरह राज्य के विकास के लिए अलग-अलग राजनैतिक गठजोड़ किए, जिनमें ज़्यादातर लंबें वक़्त तक चले और कामयाब रहे.
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लोहिया के सपनों को किस हद तक पूरा कर पाए हैं नीतीश कुमार?
नीतीश कुमार पर राम मनोहर लोहिया का असर तो देखने को मिलता है लेकिन इसके बाद यह सवाल लाज़मी हो जाता है कि वे लोहिया के ख़्वाबों को पंख देने में कितना कामयाब हो पाए हैं. पटना यूनिवर्सिटी के पॉलिटिकल साइंस विभाग में प्रोफेसर राकेश रंजन ‘aajtak.in’ से बातचीत में कहते हैं कि जब भी हम राम मनोहर लोहिया की बात करते हैं, हमारे ध्यान में आता है कि वो समाजवादी थे और समाजवाद परिवर्तन की बात करता है, ऐसा परिवर्तन जो स्थाई रूप से हो. लोहिया का लोकतंत्र में विश्वास था और उनका ये मानना था कि जो समाज हाशिए पर हैं, उन्हें भी राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल किया जाए.
बिहार की सियासत पर क़रीब से नज़र रखने वाले राजनीतिक विश्लेषक डॉ. संजय कुमार कहते हैं कि नीतीश कुमार ख़ुद को जेपी आंदोलन और लोहिया के समाजवाद पर होने का दावा करते हैं. नरेंद्र मोदी ने भी इस बात को कहा है कि अगर समाजवाद के कुछ पोषक अभी बचे हुए हैं, तो उसमें नीतीश कुमार हैं क्योंकि इन्होंने परिवारवाद को बढ़ावा नहीं दिया.
‘पचपनिया जाति की सोशल इंजीनियरिंग…’
राकेश रंजन कहते हैं कि जहां तक नीतीश कुमार की बात है कि वे लोहिया के सपनों को कहां तक पूरा कर पाए हैं, तो हमारा सीधा अर्थ हो जाता है कि समाज के पिछड़े वर्ग के लोगों को वो किस हद तक मुख्यधारा की राजनीति में लाए. तो, जब से हम नीतीश कुमार को राजनीति में देख रहे हैं, समाज की सारी समस्याएं तो दूर नही हुई हैं लेकिन नीतीश ने इतना ज़रूर किया है कि कुछ वर्ग के लोग जिनको राजनीति का हिस्सा ही नही माना जाता था, ख़ासकर पचपनिया जाति के लोगों को नीतीश कुमार ने आवाज़ दी. इस वर्ग के लोग अलग-अलग फैले हुए थे, ऐसा कोई इलाक़ा नहीं था, जहां इनका प्रभुत्व हो. राकेश रंजन कहते हैं कि नीतीश कुमार ने इस वर्ग की सोशल इंजीनियरिंग की और एक वोट बैंक में तब्दील करने का काम किया. लेकिन अब भी ये कहना अतिशयोक्ति होगी कि नीतीश ने लोहिया का सपना पूरा कर दिया है, अभी भी हम उनके सपने से दूर हैं.
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‘आज भी कई मुश्किलें झेल रहा बिहार…’
डॉ संजय कुमार कहते हैं कि नीतीश पर परिवारवाद और वंशवाद का कोई आरोप नहीं है. वे समावेशी विकास और समग्रता के वाहक रहे हैं. इन्होंने खुद को कभी फ़ायदे और घाटे से जोड़कर नहीं देखा बल्कि उस चरित्र को जीने की कोशिश की, जिससे राज्य का भला हो. जहां तक लोहिया के सपने को पूरा करने की बात है, तो वो बहुत बड़ा फ़लक है. नीतीश कुमार पर भ्रष्टाचार का आरोप भले नहीं है लेकिन ऐसा तो नहीं है कि उन्होंने सूबे को भ्रष्टाचार और अपराध से मुक्त कर दिया.
डॉ संजय कुमार ने आगे कहा कि बिहार पलायन का दर्द आज भी झेल रहा है, शिक्षा में गुणवत्ता नहीं आई, रोज़गार एक सवाल है, बिहार का औद्योगीकरण नहीं हुआ. ये ज़रूर कहा जा सकता है कि नीतीश को कामयाबी इस तरह से मिली कि इन्होंने राजनीति में सबको (OBC, पिछड़ा, दलित) लेकर चलने की बात की और लोहिया का समाजवाद यही था. नीतीश ने पंचायतों में अति पिछड़ों की व्यवस्था की, महिलाओं के आरक्षण की व्यवस्था की और लोहिया भी इसी की बात करते थे. नीतीश कुमार ने लोहिया, जेपी, कर्पूरी के चरित्र और समाजवाद को जीने की कोशिश की है.