
जानवर हमारी जिंदगी का हिस्सा हो चुके हैं, हम उन्हें प्यार-दुलार भी करते हैं, लेकिन भड़कने पर अक्सर उनके नाम को गाली की तरह इस्तेमाल करते हैं. ये चलन भारत से लेकर इंडोनेशिया और अमेरिका तक में है. याद है, जब पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने सीरिया के राष्ट्रपति बशर-अल-असाद को जानवर कह दिया था. हाल ही में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने बीजेपी पर हमला बोलते हुए कहा था, 'हमने देश को आज़ादी दिलाई और देश की एकता के लिए इंदिरा और राजीव गांधी ने अपनी जान की क़ुर्बानी दी. हमारे पार्टी के नेताओं ने अपनी जान दी, आपने क्या किया? आपके घर में देश के लिए कोई कुत्ता तक मरा है? क्या किसी ने कोई क़ुर्बानी दी है? नहीं.' जी हां, हमारी राजनीति में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं, जहां एक नेता से दूसरे की तुलना भेड़-बकरी से लेकर सुअर-कुत्ते तक से कर दी. लेकिन जो जानवर हमारे काम आते हैं, आखिर क्या वजह है जो हम उनके नाम को गाली की तरह लेते हैं.
हो चुकी है स्टडी
यूनिवर्सिटी ऑफ मेलबोर्न और एडिनबरा यूनिवर्सिटी के रिसर्चरों ने मिलकर एक स्टडी की, जिसे नाम दिया- Beastly- What Makes Animal Metaphors Offensive? इसके तहत दो अध्ययन हुए. पहले में 40 ऐसे जानवरों के नाम खोजे गए, जिन्हें गुस्से में हम लोग गाली की तरह उचारते हैं. दूसरी स्टडी में ये समझने की कोशिश थी कि आखिर क्यों हम जानवरों को खुद से कमतर मानते हैं.
पहली स्टडी में दिखा कि आमतौर पर हम उन्हीं जानवरों के नाम को गाली की तरह देखते हैं जो हमारे आसपास हैं, और जो हमारे काम भी आते हैं. जैसे कुत्ता, गाय या गधा. दूसरी चीज ये मिली कि जब हम किसी को ज्यादा खतरनाक या बुरा साबित करना चाहें तो उसकी तुलना जंगली या ऐसे पशु से होती है, जो खतरनाक हो, जैसे सांप. लेकिन ऐसा कभी-कभार ही होता है, आमतौर पर हम पालतू पशुओं की बात करते हैं.
क्यों जाने-अनजाने कर बैठते हैं तुलना?
पशुओं के नाम की गाली के लिए एक टर्म बना- डीह्यूमनाइजिंग. हम पशु-पक्षियों को अपने से बहुत कमतर मानते हैं. हमें लगता है कि वे न तो बात कर सकते हैं, न खोज कर सकते हैं. तो अपने विरोधी को कमतर साबित करने के लिए ही हम उनकी तुलना जानवरों से कर जाते हैं. आम लोग ही नहीं, बड़े-बडे़ लेखक-साहित्यकार भी अनजाने में जानवरों को कमतर मानना नहीं छोड़ पाते. जैसे शेक्सपियर के उपन्यासों में एक बीस्ट की कल्पना मिलती है, जो बहुत ताकतवर और खूंखार हो.
जानवरों पर बने मुहावरे-कहावतें
जानवरों से तुलना ही नहीं, हम उनके साथ कुछ बुरा घटने की कल्पना को भी मुहावरों-कहावतों में बोलते हैं. जैसे किल टू बर्ड्स विद वन स्टोन, यानी एक तीर से दो शिकार. या फिर बीट अ डेड हॉर्स यानी मुर्दें को जिलाने की कोशिश या बेकार कोशिश. इस तरह के कई मुहावरे हैं, जिनमें हम उनकी मौत या जख्मी होने की बात अनजाने में ही कर जाते हैं.
Words matter, and as our understanding of social justice evolves, our language evolves along with it. Here’s how to remove speciesism from your daily conversations. pic.twitter.com/o67EbBA7H4
— PETA (@peta) December 4, 2018
एनिमल-वेलफेयर संस्था PETA ने साल 2018 के आखिर में इस बारे में बात भी की थी कि हमें एनिमल-फ्रेंडली फ्रेज बनाने चाहिए, या कम से कम ऐसे जो उनके मरने की बात न करते हों. संस्था ने दुनियाभर के पशुप्रेमियों की मदद से कई नए वाक्य भी बनाए, जो पुराने मुहावरों की जगह ले सकते थे, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ.
क्या जानवर भी हमें कोसते हैं?
इसे समझने की भी कोशिश हुई. कनाइन लैंग्वेज यानी कुत्तों की जबान को ट्रांसलेट कर सकने का दावा करने वाले वैज्ञानिक स्टेनली कॉरेन ने अपनी किताब 'हाऊ टू स्पीक डॉग' में दावा किया कि कुत्ते भी गुस्सा होते हैं, लेकिन एक-दूसरे को कोसते नहीं. एक स्टडी के तहत चिंपाजी को अमेरिकी साइन लैंग्वेज का शब्द डर्टी सिखाया गया. वो गंदी चीजों को देखकर उस साइन लैंग्वेज का इस्तेमाल करने लगा, यहां तक कि दूसरे चिंपाजी से झगड़ा होने पर उसने वही भाव दिए, जो डर्टी के समय दिए जाते हैं. यानी इस बात में हम बिल्कुल चिंपाजियों से मिलते हैं.