कर्नाटक चुनाव में मिली शानदार जीत के बाद कांग्रेस बुलंद हौंसलों के साथ अन्य राज्यों के विधानसभा चुनाव की तैयारियों में जुट गई है. देश की सबसे पुरानी पार्टी के मुखिया खड़गे ने कर्नाटक में जिस तरह मुख्यमंत्री पद को लेकर चल रही सियासी रस्साकस्सी को सुलझाया, उसके बाद उनका कद और मजबूत हुआ है. पार्टी संगठन के 'मनमोहन सिंह' के रूप में उभरे खड़गे ने कई बाधाओं को पार किया है. मनमोहन और खड़गे की तुलना करना कई मायनों में इसलिए सही लगता है, क्योंकि उनकी भूमिकाएं और प्रोफाइल इससे अधिक अलग नहीं हो सकते थे. लेकिन एक चीज है जो दोनों को एकसूत्र में बांधती है, वह है सोनिया, राहुल और प्रियंका गांधी का उन पर पूर्ण विश्वास, उनके अनुभव की स्वीकार्यता और फैसले पर भरोसा करना.
एआईसीसी के 88 वें अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे को एक स्टेपनी की तरह चुना गया था. जब राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में नामांकन दाखिल करने से इनकार कर दिया तो तब खड़गे को आगे किया गया. जयपुर में कांग्रेस विधायक दल (सीएलपी) की बैठक में खड़गे एआईसीसी पर्यवेक्षक के रूप में मौजूद थे. खड़गे जो राज्यसभा में विपक्ष के नेता थे, उन्हें अचानक एआईसीसी प्रमुख के रूप में नामांकन दाखिल करने के लिए कहा गया. 22 साल के अंतराल के बाद हुए संगठनात्मक चुनावों में खड़गे ने शशि थरूर को आसानी से हरा दिया.
26 अक्टूबर, 2022 को जब वह कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में चुने गए तो उसके बाद खड़गे ने पीछे मुड़कर नहीं देखा. धीरे-धीरे, उन्होंने संगठन पर अपनी पकड़ मजबूत की और गांधी परिवार के लिए मिस्टर डिपेंडेबल बन गए और प्रमुख विपक्षी दलों के साथ लगातार संपर्क में रहे. कर्नाटक के नतीजों ने उन्हें और अधिक विश्वसनीय बना दिया है. नाकामी की बात तो दूर, उनकी उपस्थिति उम्मीद जगा रही है कि कांग्रेस मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और तेलंगाना के आगामी विधानसभा चुनावों में अच्छा प्रदर्शन कर सकती है. मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में जहां पार्टी मजबूत स्थिति में है तो वहीं राजस्थान और तेलंगाना में खड़गे के सामने कई चुनौतियां हैं.
कांग्रेस के दृष्टिकोण से देखें तो खड़गे की अब तक की सबसे बड़ी उपलब्धि कर्नाटक और हिमाचल की शानदार चुनावी सफलता या कुछ मुश्किल परिस्थितियों में पार्टी के मुख्यमंत्रियों का चयन करना ही नहीं है, बल्कि पार्टी के कामकाज में काफी हद तक सामान्यता लाना है. एक अनुभवी राजनेता के रूप में, खड़गे सबसे पुरानी पार्टी के भीतर केवल एक ही गुट के नेता नहीं हैं, बल्कि सभी में उनकी स्वीकार्यता है. उदाहरण के लिए, खड़गे ने उन खेलों का हिस्सा बनने से इनकार कर दिया जो उनके गृह राज्य कर्नाटक में राज्य के चुनावों से पहले, उसके दौरान और बाद में खेले जा रहे थे. पार्टी महासचिवों रणदीप सिंह सुरजेवाला और जयराम रमेश के बीच की प्रतिद्वंद्विता की खबर भले ही सामने आती रही हो, लेकिन खड़गे ने ऐसी दुश्मनी से पार्टी के हितों को नुकसान नहीं पहुंचने दिया.
सब-कुछ ठीक होने के बावजूद राजस्थान कांग्रेस पर अनिश्चितता का साया मंडरा रहा है. आकांक्षी सचिन पायलट के साथ मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के बीच का विवाद अपने चरम पर पहुंच गया है जहां से समाधान होने के आसार कम ही नजर आ रहे हैं. जयपुर में एडवाइजरी काम नहीं कर रही है. खड़गे, गहलोत या पायलट के खिलाफ कार्रवाई करने की स्थिति में नहीं दिख रहे हैं. हालांकि, खड़गे को उम्मीद है 31 मई, 2023 से पहले इस संकट का हल हो जाएगा. पायलट ने ऑन रिकॉर्ड कहा कि वह 31 मई तक इंतजार करेंगे, ताकि आलाकमान उनके द्वारा उठाए गए मुद्दों को सुलझा सके.
21 मई के बाद (20 मई को कर्नाटक का शपथ ग्रहण समारोह है और 21 मई को राजीव गांधी की पुण्यतिथि है), कथित तौर पर खड़गे अपना पूरा ध्यान राजस्थान पर केंद्रित करना चाहते हैं जहां पायलट और गहलोत की भविष्य की भूमिका से संबंधित एक सूत्र निर्धारित किया जाएगा. खड़गे के पास कथित तौर पर 'प्लान ए' और 'प्लान बी' तैयार है जो पायलट को आकर्षित कर सकता है, जबकि गहलोत का कहना है कि वह "जब तक" जीवित हैं तब तक पायलट को सीएम नहीं बनने देंगे, जो बहुत बड़ा बयान है.
खड़गे के लिए अगली बड़ी चुनौती मध्य प्रदेश है जहां वह कर्नाटक मॉडल के साथ आगे बढ़ सकते हैं. कमलनाथ के रूप में खड़गे के पास सिद्धारमैया जैसा कोई ऐसा नेता है जो अपनी कड़ी मेहनत, धैर्य और दृढ़ता के लिए जाना जाता है. कमलनाथ के खड़गे और गांधी परिवार के साथ घनिष्ठ संबंध हैं. उन्होंने कथित तौर पर प्रियंका गांधी से मध्य प्रदेश पर ध्यान केंद्रित करने का अनुरोध किया है जहां इस साल नवंबर-दिसंबर में विधानसभा चुनाव होने हैं. एआईसीसी पर्यवेक्षक और छत्तीसगढ़ की प्रभारी महासचिव कुमारी शैलजा अगले छह महीने में होने वाले विधानसभा चुनाव की रणनीति बनाने के लिए पहले से ही रायपुर में डेरा डाले हुईं हैं.
खड़गे के पास 2024 लोकसभा चुनाव के लिए विपक्षी एकता को मजबूत करना तथा उसके तार्किक अंत तक ले जाने की भी बड़ी चुनौती है. भारतीय राजनीति में गठबंधन पार्टी की ताकत की हिसाब से तैयार होते हैं. ऐसे में जब कांग्रेस को नेतृत्व की भूमिका नहीं मिल सकती है, खड़गे के पास गैर-एनडीए भागीदारों के साथ बातचीत करने की अधिक गुंजाइश होगी.
विपक्ष अपने लिए मौका ढूंढ रहा है क्योंकि कर्नाटक, बिहार, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र में राजनीतिक स्थिति ऐसी है कि जहां भाजपा को 2019 की तुलना में कम से कम 60 सीटों का नुकसान हो सकता है. यदि यह मई 2024 में एक वास्तविकता बन जाती है, तो गैर-एनडीए सरकार की संभावनाओं को पंख लग जाएंगे और खड़गे इसे लेकर आश्वस्त नजर आ रहे हैं.