भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने 2000 के दशक की शुरुआत में कहा था कि ममता बनर्जी बहुत हद तक उमा भारती की तरह हैं. दोनों बेहद लोकप्रिय हैं. दोनों के पास बड़े पैमाने पर समर्थन है और दोनों बहुत आवेगी और भावनात्मक हैं. उस वक्त ममता एनडीए में थीं और अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे.
यह काफी पहले की बात है. तब से राजनीति कई करवटें बदली, एक दूसरे के साथी बदले. नई सत्ता केंद्र में उभरी. अब ममता बीजेपी के खिलाफ एक विपक्ष का नेतृत्व करने के लिए सबसे लोकप्रिय विकल्प हैं. इंडिया टुडे के मूड ऑफ नेशन सर्वे में भी यह बात सामने आई है. सर्वे के मुताबिक, 17% लोगों का मानना है कि बीजेपी के खिलाफ गठबंधन का नेतृत्व करने के लिए ममता बनर्जी सबसे अच्छा विकल्प हैं.
इस मामले में नंबर दो पर आते हैं, अरविंद केजरीवाल. उन्हें इस सर्वे में 16% वोट मिला. लेकिन यहां एक चीज नोट करने वाली है, कि जनवरी 2021 से ममता की रेटिंग में 11% की वृद्धि हुई है. वहीं, अगस्त 2021 से अरविंद केजरीवाल की रेटिंग 20% से 16% पर पहुंच गई है. वहीं, सिर्फ 11% लोगों का मानना है कि राहुल गांधी विपक्ष का नेतृत्व कर सकते हैं.
पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव में बीजेपी को हराने के बाद से ममता का पीएम मोदी के विपक्ष के तौर पर ग्राफ तेजी से बढ़ा है. लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या वे अपने साथ बीजेपी के खिलाफ सभी दलों को एक साथ ला पाएंगी. बीजेपी के खिलाफ विपक्ष को एकजुट करने का प्रयास काफी तेजी से चल रहा है. लेकिन क्या सभी नेता बीजेपी से लड़ने के लिए ममता के नेतृत्व में काम करेंगे? क्या सीपीआई जैसी धुर विरोधी पार्टियां समर्थन देंगी? क्या कांग्रेस मुख्य विपक्षी पार्टी वाली अपनी जगह खाली करेगी?
1989 में वीपी सिंह एकजुट विपक्ष का चेहरा बने थे. अन्य राज्यों में संगठनात्मक समर्थन न होने के बावजूद वे पीएम बने थे. इस गठबंधन में लेफ्ट से लेकर बीजेपी तक सभी पार्टियां शामिल थीं. क्या 2024 में ममता बनर्जी एक नई वीपी सिंह बन सकती हैं?
एक लोकप्रिय धारणा है कि ममता बहुत आवेगी हैं. लेकिन इसका दूसरा पहलू ये भी है कि ममता अपनी ताकत और कमजोरी जानती हैं. ममता ये अच्छे से जानती हैं कि बंगाल को छोड़कर अन्य किसी राज्य में उनका संगठन मजबूत नहीं है. ऐसे में वे अब बंगाली बहुल त्रिपुरा में एक संगठन बनाने की कोशिश कर रही है. हालांकि, त्रिपुरा काफी छोटा राज्य है, यहां सिर्फ 2 लोकसभा सीटें हैं. टीएमसी के अंदरूनी सूत्रों के मुताबिक, गोवा में लड़ाई भी प्रतीकात्मक है. गोवा में उम्मीदवार उतारकर ममता संदेश देना चाहती हैं कि वे वहां चुनाव लड़ने आएंगी, जहां कांग्रेस कमजोर है. हालांकि, इसका मतलब ये नहीं है कि वह कांग्रेस के साथ किसी भी गठबंधन के लिए दरवाजे बंद कर देंगी.
ममता की दूसरी सबसे बड़ी कमजोरी है कि उनकी पहचान बंगाली नेता के तौर पर है. वे हिंदी की अच्छी वक्ता नहीं हैं, जैसे पीएम मोदी हैं और वाजपेयी थे. सात बार सांसद रहने और केंद्र में कई मंत्रिपद संभालने के बावजूद उन्हें दिल्ली की राजनीति की इतनी समझ नहीं है. यहां तक कि दूसरे राज्यों के दौरे के दौरान भी वे अपने आप को राष्ट्रीय नेता के रूप में पेश करने की कोशिश नहीं करतीं. लेकिन राजनीति में यह सब जरूरी है.
ममता अब अपनी छवि बदलने पर काम कर रही हैं. लोकसभा में अध्यक्ष या उनके सहयोगियों के साथ ममता के टकराव की यादे अभी भी लोगों के मन में ताजा हैं. लेकिन पिछले कुछ सालों में उन्होंने क्षेत्रीय नेताओं के साथ अपने रिश्ते सुधारने की कोशिश की है. अब उनके नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव, अखिलेश यादव, शरद पवार समेत अन्य नेताओं से अच्छे रिश्ते हैं.
हाल ही में कांग्रेस से तृणमूल का दामन थामने वाले नेताओं की इच्छा के बावजूद ममता उत्तर प्रदेश में अपनी पार्टी के चुनाव चिह्न पर उम्मीदवार उतारने के खिलाफ थीं. ममता को इस बात का अंदाजा था कि उनकी राज्य में कोई संगठनात्मक ताकत हैं, ऐसे में यह उनका यथार्थवादी दृष्टिकोण ही था. वहीं, पार्टी के अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि यह व्यापक विपक्षी एकता की दिशा में अहम कदम था.
ममता बनर्जी ने अखिलेश यादव का यूपी में समर्थन करने का ऐलान किया है. यहां तक कि दोनों नेता साथ में प्रेस कॉन्फ्रेंस भी करेंगे. यह साफ है कि ममता का टारगेट 2024 में पीएम मोदी हैं, न कि यूपी. 2024 के मुकाबले के लिए ममता को समाजवादी पार्टी को साथ लाना अहम है. उधर, अखिलेश भी ऐसे नेता के साथ ही आना चाहेंगे, जिसने हाल ही में बीजेपी को हराया है. साथ ही तब जब वे यूपी चुनाव में ऐसी ही कोशिश में जुटे हैं.
ममता पीएम मोदी के खिलाफ एक गंभीर विपक्षी नेता के रूप में उभरी हैं, वह भी राहुल गांधी की कथित कमजोरी की वजह से. कई बड़े नेता अभी भी राहुल गांधी को गंभीर राजनेता नहीं मानते. मोदी के सत्ता संभालने के बाद से विपक्ष में नेतृत्व की कमी खलती रही है. ऐसे में ममता उस स्थान को भरने की कोशिश कर रही हैं. हालांकि, वे सावधान हैं कि विपक्षी एकता के लिए उनकी पीएम की महत्वाकांक्षाएं उजागर न हों. यह कहने की जरूरत नहीं है कि पीएम पद के लिए कई दावेदार हैं. ऐसे में ममता का एक कदम मामले को उलझा देता है.
ममता बनर्जी विभिन्न भाजपा विरोधी क्षेत्रीय नेताओं को एक साथ लाने के लिए शरद पवार पर निर्भर हैं. यहां तक की पवार ममता बनर्जी और सोनिया गांधी के बीच गैप कम करने के लिए ब्रिज का काम कर रहे हैं. सूत्रों के मुताबिक, यूपी चुनाव के बाद एक विस्तारित यूपीए या 'संघीय मोर्चा' जैसा विपक्षी गठबंधन बनाने के लिए गंभीर प्रयास किए जाएंगे. इसमें सोनिया अपनी अध्यक्षता बरकरार रखेगी और ममता को संयोजक बनाया जा सकता है.
समय समय पर ममता बनर्जी पीएम मोदी को पत्र लिखती रहती हैं. हाल ही में उन्होंने आईएएस कैडर नियमों में प्रस्तावित बदलाव को लेकर चिट्ठी लिखी थी. ममता राज्य के मामलों में केंद्र के कथित दखल का आरोप लगाते हुए क्षेत्रीय नेताओं से इसका विकल्प खोजने की कोशिश भी करती रहती हैं.
(लेखक जयंत घोषाल कोलकाता के वरिष्ठ पत्रकार हैं. यह उनके निजी विचार हैं.)