पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में अपनी पार्टी की शानदार जीत से उत्साहित टीएमसी प्रमुख और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी 2024 में नरेंद्र मोदी सरकार को सत्ता बेदखल करने के लिए विपक्षी एकता की कवायद में जुटी हैं. दिल्ली में पिछले दो दिनों से ममता कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी और राहुल गांधी सहित तमाम विपक्षी नेताओं से मुलाकात कर रही हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या ममता कांग्रेस सहित तमाम क्षेत्रीय दलों को एकजुट करने में सफल हो पाएंगी?
ममता बनर्जी पहले ही कह चुकी हैं कि बीमारी का इलाज जल्दी शुरू करना होगा, नहीं तो देर हो जाएगी. सोनिया गांधी से मुलाकात को लेकर भी उन्होंने विपक्षी एकजुटता को लेकर उनसे चर्चा की. क्योंकि देश में कांग्रेस फिलहाल सबसे बड़ा राजनीतिक दल है, इसीलिए सोनिया गांधी को साथ लेकर चलना काफी जरूरी है.
सोनिया के अलावा ममता ने एनसीपी प्रमुख शरद पवार और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से भी मुलाकात की. ममता चाहती हैं कि कांग्रेस, टीएमसी, एनसीपी, शिवसेना, एसपी, बीएसपी और आरजेडी जैसे तमाम विपक्षी दल एकजुट होकर 2024 के लिए एक मोर्चा बनाएं. वहीं, कांग्रेस भी इसी कवायद में है, लेकिन विपक्ष के चेहरे को लेकर तस्वीर साफ नहीं हो रही है.
ममता बनर्जी अपने सियासी करियर के सबसे कठिन चुनावों में से एक को जीतने के बाद सबसे मजबूत विपक्षी चेहरे के रूप में उभरी हैं. ऐसे में उन्हें राष्ट्रीय राजनीति में एक बड़ी भूमिका निभाने के तौर पर भी देखा जा रहा है. मिशन 2024 के तहत ममता की नजर पीएम की कुर्सी पर तो है. लेकिन, ये यह बात भी उन्हें पता है कि कांग्रेस को किनारे रखते हुए आम सहमति बना पाना टेढ़ी खीर है.
इसीलिए सोनिया गांधी से मुलाकात के बाद ममता बनर्जी ने कहा कि बीजेपी बहुत मजबूत पार्टी है. ऐसे में कांग्रेस को क्षेत्रीय दलों पर भरोसा करना होगा और क्षेत्रीय दलों को कांग्रेस पर. इससे साफ जाहिर होता है कि ममता कांग्रेस को साथ लेकर ही क्षेत्रीय दलों की एकता बनाना चाहती हैं. इसीलिए उन्होंने कांग्रेस और दूसरे क्षेत्रीय दलों को एक दूसरे पर भरोसा करने का संदेश देने की कवायद की है.
केंद्र की राजनीति में बदलाव की उम्मीद जाहिर करते हुए ममता बनर्जी ने कहा कि पॉलिटिक्स में चेंज होता रहता है, लेकिन बीजेपी से लड़ाई के लिए विपक्ष को भी मजबूत बनना होगा और तभी इतिहास बनेगा. हालांकि, ममता ने यह भी कहा कि जब राजनीतिक तूफान आता है तो फिर स्थितियों को संभालना कठिन होता है.
ममता साफ संदेश दे रही हैं कि अभी अगर विपक्ष एकजुट नहीं हुआ तो फिर बीजेपी का मुकाबला करना आसान नहीं होगा. हालांकि, ममता से बुधवार को जब सवाल किया गया कि 2024 में विपक्ष का नेता कौन होगा तो उन्होंने सीधा जवाब नहीं दिया. इतना ही कहा, 'मैं ज्योतिषी नहीं हूं.' इससे जाहिर होता है कि विपक्षी एकता का चेहरे को लेकर कशमकश बना हुआ है.
ममता के फॉर्मूले को सोनिया गांधी स्वीकार करती हैं तो कांग्रेस क्षेत्रीय दलों की मर्जी पर निर्भर रहेगी. ऐसे में सवाल उठता है कि कांग्रेस अगर इस फॉर्मूले को मान भी लेती है तो उसे सियासी तौर पर फायदा क्या होगा. कांग्रेस अगर लोकसभा चुनाव में क्षेत्रीय दलों की जूनियर पार्टनर की तरह रही तो उसके रिवाइवल की उम्मीदें हमेशा के लिए खत्म हो जाएंगी. कांग्रेस अपने भविष्य को लेकर ये जोखिम मोल लेगी ऐसा लगता नहीं है.
दरअसल कांग्रेस भी इन्हीं क्षत्रपों को 2024 में एकजुट करके मोदी के खिलाफ चुनाव मैदान में उतरने की कवायद कर रही है. लेकिन कांग्रेस जूनियर पार्टनर के तौर पर नहीं बल्कि गठबंधन के सबसे मजबूत दल के रूप में इसकी अगुवाई करना चाहती है. ऐसे में कांग्रेस के मंसूबों से उलटा ममता का फॉर्मूला है. जाहिर है कांग्रेस के लिए इसे स्वीकारना आसान नहीं होगा.
कांग्रेस की ओर से राहुल गांधी भी विपक्ष का चेहरा बनने के लिए सक्रिय हैं. संसद में मोदी सरकार को घेरने के लिए पिछले दो दिनों में वह विपक्षी दलों की बैठक कर संसद में घेरते नजर आए हैं. हालांकि, विपक्षी दलों के नेताओं का भरोसा राहुल गांधी अभी तक जीत नहीं पाए हैं.
पिछले दिनों शिवसेना के सांसद संजय राउत से लेकर तमाम विपक्षी दलों के नेता एनसीपी प्रमुख शरद पवार को यूपीए का अध्यक्ष बनाने की मांग उठा चुके हैं. ऐसे में कांग्रेस की सियासी मजबूरी है कि 2024 में बीजेपी को सत्ता से हटाने के लिए क्षेत्रीय दलों का भरोसा जीते वरना क्षेत्रीय दलों पर भरोसा जताए.
टीएमसी के महासचिव कुणाल घोष कहते हैं कि कोई भी इस बात से इनकार नहीं कर सकता कि ममता बनर्जी विपक्षी राजनीति के केंद्र के रूप में उभरी हैं. वो भाजपा विरोधी वोटों को एकत्र करना चाहती हैं और भाजपा के खिलाफ लोगों का गठबंधन बनाना चाहती हैं. तमाम विपक्षी नेताओं से भले ही वो अभी मुलाकात कर रही हैं, लेकिन उन्होंने बंगाल चुनाव के दौरान ही तमाम नेताओं को पत्र लिखकर बीजेपी के खिलाफ एकजुट होने का आह्वान किया था.
वहीं, ममता को बतौर चेहरा पेश करने को लेकर क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर कई अड़चनें हैं. क्षेत्रीय स्तर पर कई दलों के समक्ष एकसाथ खड़े होने की समस्या है, जैसे उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा एक साथ खड़े नहीं हो सकते. पश्चिम बंगाल में वाममंथी ममता के पीछे खड़े नहीं हो सकते. दिल्ली में कांग्रेस और आप का एक साथ नहीं है. पंजाब में भी हालत ऐसी ही बनी हुई है.
दक्षिण के दलों की अपनी अलग राजनीति है. कर्नाटक को छोड़कर ज्यादातर दक्षिणी राज्यों में बीजेपी असरदार नहीं है, इसलिए दक्षिण की क्षेत्रीय पार्टियों की अलग प्राथमिकताएं हैं. इसी प्रकार सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस की तरफ से ममता को विपक्ष का चेहरा स्वीकार किए जाने की संभावना बेहद क्षीण है.
शायद यही कारण है कि ममता खुद भी अभी सावधानी बरत रही हैं. वह खुद को विपक्ष के चेहरे के तौर पर खुलकर पेश करने से फिलहाल बच रही हैं. हालांकि वह इस बात पर जोर देती हैं कि विपक्ष को बीजेपी को हराने के लिए एकजुट होना चाहिए लेकिन कैसे, किसके नेतृत्व में इसका जवाब उनके पास आज नहीं है.
राजनीतिक विश्लेषक नीरजा चौधरी कहती हैं कि विपक्षी दलों को जिस तरह एकजुट होना चाहिए, वैसा न तो वो संसद के भीतर पिछले सात सालों में दिखे और न ही बाहर इकट्ठा हो पाए. ऐसे में ममता बनर्जी और कांग्रेस दोनों ही ओर से विपक्ष की एकता ही बात की जा रही है, लेकिन इसके स्वरूप को लेकर तस्वीर साफ नहीं है.
वह कहती हैं कि यह पहली बार नहीं, जब किसी ने बीजेपी के विरोध में विपक्षी दलों को एकजुट करने की कोशिश की हो. 2014 में केंद्र में मोदी सरकार बनने के बाद से विपक्षी नेता रह-रहकर एकता बनने की कवायद कर चुके हैं. यह कोशिश सोनिया गांधी से लेकर क्षेत्रीय दलों के कई नेता भी कर चुके हैं. 2019 से पहले खुद ममता विपक्षी दलों का मोर्चा बनाने की कोशिश कर चुकी हैं, लेकिन हर बार यह कोशिश फेल रही हैं.