बुधवार को सुप्रीम कोर्ट की तरफ से मराठा आरक्षण को लेकर एक बड़ा फैसला सुनाया गया. कोर्ट ने साफ कर दिया कि मराठा समुदाय को शिक्षा और नौकरी के क्षेत्र में आरक्षण नहीं दिया जा सकता है. उन्हें सामाजिक, शैक्षणिक रूप से पिछड़ा भी नहीं माना गया है. इस एक फैसले के बाद से महाराष्ट्र में सियासी भूचाल आ गया है.
कब और कैसे उठा मराठा आरक्षण का मुद्दा?
पांच साल पहले अगस्त 9 को मराठा क्रांति मोर्चा के तमाम कार्यकर्ता एकजुट हुए थे. सभी ने औरंगाबाद में जोरदार विरोध प्रदर्शन किया था. मुद्दा था अहमदनगर में 15 वर्षीय लड़की से बलात्कार का. अब वैसे तो इस मुद्दे का आरक्षण से कोई लेना-देना नहीं था, लेकिन इसके जरिए मराठा समुदाय को साथ लाने का काम किया गया. देखते ही देखते मराठा क्रांति मोर्चा की तरफ से छोटी-बड़ी 50 से ज्यादा रैलियां की गईं.
हर रैली में आरक्षण का मुद्दा उठाया गया और जोर देकर कहा गया कि मराठा समुदाय को सरकारी नौकरियों और शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण दिया जाए. जिस समय इन बड़ी रैलियों को अंजाम दिया जा रहा था, तब इसको लेकर राजनीतिक गलियारों में ज्यादा हलचल नहीं थी. तब की देवेंद्र फडणवीस सरकार ने भी इस मुद्दे को ज्यादा तूल नहीं दिया.
लेकिन फिर साल 2017 में मराठा आरक्षण का दूसरा चरण शुरू हुआ जहां पर हिंसा भी देखने को मिली, मांग पूरी ना होने पर आत्महत्या करने की धमकी भी दी गई. नारा दे दिया गया- एक मराठा-लाख मराठा. ये पहली बार था जब आरक्षण की मांग को लेकर सुसाइड देखने को मिल गए. मराठा समुदाय की तरफ से साफ कर दिया गया था कि उन्हें किसी भी कीमत में अपनी जाति के लिए आरक्षण चाहिए. एक-डेढ़ साल में ही मराठा क्रांति मोर्चा ने महाराष्ट्र की राजनीति में अपना कद काफी ज्यादा बढ़ा लिया. उनकी तमाम मांगे इतनी जोर-शोर से रखी गईं कि राज्य की बीजेपी-शिवसेना गठबंधन सरकार को भी झुकना पड़ गया.
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मराठा आरक्षण की दिशा में पहला बड़ा कदम
मराठाओं के बढ़ते विरोध के बीच तब की बीजेपी सरकार ने बड़ा कदम उठाते हुए 11 सदस्य की एक कमेटी का गठन कर दिया. इस कमेटी का हेड रिटायर्ड जज जस्टिस एन जी. गायकवाड को बनाया गया. कमेटी का काम बस इतना था कि उन्हें देखना था कि मराठा समुदाय की मांगे जायज हैं या नहीं? क्या उन्हें शिक्षा और नौकरी के क्षेत्र में आरक्षण दिया जा सकता है? इन सवालों का जवाब कमेटी ने कई लोगों से बातचीत कर निकाला, कई विशेषज्ञों की राय भी ली गई और फिर सरकार को एक रिपोर्ट सौंपी गई. उस रिपोर्ट में साफ कहा गया कि मराठा समुदाय को शैक्षणिक और सामाजिक रूप से पिछड़ा माना जा सकता है और उसी आधार पर उन्हें आरक्षण भी दिया जा सकता है.
मराठा आरक्षण को लेकर कानून
साल 2018 में 11 सदस्य कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर मराठा समुदाय को आरक्षण देने का फैसला लिया गया. महाराष्ट्र विधानसभा में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा वर्ग अधिनियम 2018 को पारित कर दिया गया. ये एक ऐसा फैसला था जिसका कोई भी राजनीतिक दल विरोध नहीं कर पाया. उस समय दोनों कांग्रेस और एनसीपी ने इस कानून का समर्थन किया और मराठा समुदाय को आरक्षण देने की वकालत की. इस कानून में भी जोर देकर कहा गया कि इस समुदाय को शैक्षणिक और सामाजिक रूप से पिछड़े होने के आधार पर आरक्षण दिया गया है.
इस कानून के पारित होने के बाद राज्य में कुल आरक्षण 64-65% पर पहुंच गया. वहीं मराठाओं को भी 12-13% का कोटा मिल गया. राज्य सरकार को पूरा विश्वास था कि उनके इस कानून को कोर्ट में चुनौती नहीं जा सकती. दलील दी गई थी कि उन्होंने तो शैक्षणिक और सामाजिक रूप से पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण दिया है. लेकिन फिर बॉम्बे हाई कोर्ट में एक याचिका दाखिल की गई. याचिका में कहा गया कि सरकार द्वारा पारित नया कानून 50 फीसदी सीमा का उल्लंघन है. याचिका में इंदिरा साहनी मामले का भी जिक्र कर दिया गया जिसके बाद से ही कोर्ट द्वारा 50 फीसदी वाली सीमा तय की गई थी.
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लेकिन तब महाराष्ट्र सरकार को बड़ी राहत मिल गई थी. बॉम्बे हाई कोर्ट ने मराठाओं को मिले आरक्षण को जायज बता दिया था. कोर्ट ने कहा था कि विशेष परिस्थितियों में राज्य 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण भी दे सकता है. अब कुछ समय के लिए ये मुद्दा जरूर दब गया लेकिन फिर इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई और उच्चतम न्यायालय ने बड़ी बेंच पर फैसला सुनाने की जिम्मेदारी छोड़ दी.
अब उसी बेंच ने बुधवार को ये ऐतिहासिक और बड़ा फैसला सुनाया है जहां पर शिक्षा और नौकरी के क्षेत्र में मराठा आरक्षण को असंवैधानिक करार दिया गया है. वहीं कोर्ट ने 1992 के इंदिरा साहनी मामले पर भी फिर विचार करने से इनकार कर दिया है. साफ कहा गया है कि आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से ज्यादा नहीं होनी चाहिए.
कोर्ट के फैसले के राजनीतिक मायने क्या हैं?
महाराष्ट्र में मराठा 32 प्रतिशत हैं और उनका समुदाय किसी भी चुनाव में एक निर्णायक और सक्रिय भूमिका निभाता है. पार्टी कोई भी क्यों ना हो, उनका वोट मिलना सत्ता में आने के लिए जरूरी रहता है. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद मराठा समुदाय में जबरदस्त आक्रोश है. मराठा क्रांति मोर्चा ने पहले ही कह दिया है कि वे इस फैसले को स्वीकार नहीं करने वाले हैं. उनकी तरफ से यहां तक कह दिया गया है कि राज्य सरकार ने कोर्ट में मजबूती से ये केस नहीं लड़ा. ऐसे में सीएम उद्धव ठाकरे की मुसीबत तो बढ़ ही गई है. वहीं क्योंकि 2019 में एनसीपी ने भी इस समुदाय को खुश करने की पूरी कोशिश की थी, बड़े-बड़े वादे हो गए थे, ऐसे में अब उन्हें भी उनकी सियासी जमीन खिसकती दिख रही है.
बीजेपी की बात करें तो उन्होंने इस फैसले में भी अपने लिए बड़ा चुनावी मुद्दा देख लिया है. उनकी नजरों में वे सबसे पहले राज्य में मराठाओं के लिए आरक्षण लेकर आए थे, ऐसे में अब जब इसे असंवैधानिक बता दिया गया, बीजेपी पूरी कोशिश कर रही है कि इसे राज्य की महा विकास अघाड़ी की सबसे बड़ी असफलता बताया जाए और इसी बहाने इस पूरे मराठा समुदाय को अपने पक्ष में कर लिया जाए. लेकिन ये सब इतना आसान नहीं होने जा रहा है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद महाराष्ट्र में फिर मराठाओं का विरोध प्रदर्शन देखने को मिल सकता है. इस विरोध प्रदर्शन से फिर OBC बनाम मराठाओं की लड़ाई जोर पकड़ सकती है और जैसे ही ऐसा होगा, तमाम दलों को फिर अपनी रणनीति पर काम भी करना पड़ेगा और अपना क्लियर कट पक्ष भी सभी के सामने रखना होगा.