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मस्जिदों के मौलवियों को कहां-कहां, कितना और क्यों मिलता है वेतन? 

दिल्ली में मस्जिदों के इमाम और मोअज्जिनों को सैलरी देने के मुद्दे को बीजेपी लगातार उठा रही है और केजरीवाल सरकार को घेर रही है. हालांकि, दिल्ली ही नहीं बल्कि हरियाणा, कर्नाटक, बंगाल और केरल जैसे राज्यों में भी इमामों को सैलरी दी जाती है, लेकिन यह सैलरी क्या सरकार देती या फिर वक्फ बोर्ड. ऐसे में सवाल उठता है कि पुजारी को क्यों सैलरी नहीं मिलती?

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इमाम को सैलरी (प्रतीकात्मक फोटो)
इमाम को सैलरी (प्रतीकात्मक फोटो)

दिल्ली नगर निगम (एमसीडी) चुनाव में मस्जिदों के इमामों और मुअज्जिनों को मिलने वाली सैलरी एक बड़ा मुद्दा बन गई है. बीजेपी इसे लेकर अरविंद केजरीवाल सरकार को घेरने में जुटी है और इमाम और मुअज्जिन की तरह ही मंदिर के पुजारियों और गुरुद्वारे के ग्रंथियों को भी मासिक वेतन देने की मांग उठा रही है. बीजेपी सांसद प्रवेश वर्मा ने केजरीवाल को इस संबंध में बाकायदा पत्र भी लिखा है. 

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प्रवेश वर्मा ने लिखा है कि धर्मनिरपेक्षता का तकाजा है कि टैक्स के पैसे समाज के किसी एक धार्मिक वर्ग के ऊपर नहीं खर्च करना चाहिए. उसपर सभी धार्मिक वर्गों का समान अधिकार है. दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार हिंदुओं के साथ भेदभाव करती है. मंदिरों के पुजारियों और गुरुद्वारा के ग्रन्थियों को भी मौलवियों की तरह वेतन मिलना चाहिए. ऐसे में सवाल उठता है कि इमामों को आखिर कहां-कहां, क्यों और कब से ये सैलरी दी जाती है.

दिल्ली में इमामों को सैलरी 

दिल्ली वक्फ बोर्ड की पंजीकृत करीब 185 मस्जिदों के 225 इमाम और मुअज्जिनों को तनख्वाह दी जाती है. इमाम को 18 हजार रुपये और मुअज्जिनों को 14 हजार रुपये के हिसाब से हर महीने सैलरी दी जाती है. दिल्ली वक्फ बोर्ड में अनरजिस्टर्ड मस्जिदों के इमामों को 14 हजार और मुअज्जिनों को भी 12 हजार रुपये प्रति माह का मानदेय दिया जाता है. 

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मस्जिद के इमामों को सैलरी वक्फ बोर्ड के द्वारा जाती है. सुप्रीम कोर्ट ने 1993 में अखिल भारतीय इमाम संगठन के अध्यक्ष मौलाना जमील इलियासी की याचिका पर सुनवाई करते हुए वक्फ बोर्ड को उसके मैनेजमेंट वाली मस्जिदों में इमामों को वेतन देने का निर्देश दिया था. दिल्ली, हरियाणा और कर्नाटक में मस्जिदों के इमाम को वक्फ बोर्ड सैलरी देता है. कई राज्यों में वक्फ बोर्ड कुछ मस्जिदों के इमाम को काफी पहले से ही सैलरी दे रहा था. खासकर उन मस्जिदों में जिनकी पुरातत्व विभाग देख रेख करता है और जो ऐतिहासिक मस्जिदें हैं. 

मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य सैयद कासिम रसूल इलियास कहते हैं कि वक्फ बोर्ड सभी मस्जिदों के इमाम को सैलरी नहीं देता है बल्कि अपनी ही मस्जिदों के इमामों को सैलरी देता है बाकी मस्जिदों के इमामों को मस्जिद कमेटियां तनख्वाह देती हैं. वक्फ की जो भी संपत्तियां हैं, वो सभी मुस्लिमों की हैं. ऐसे में वक्फ की आय को सिर्फ मुस्लिमों पर ही खर्च किया जा सकता है. इसीलिए वक्फ बोर्ड अपनी मस्जिदों के इमामों से लेकर गरीबों-यतीमों तक को मदद देने का काम करता है. दिल्ली में वक्फ प्रॉपर्टी काफी प्राइम लोकेशन पर है, जिनके किराए वसूले जाएं तो सरकार जितना फंड देती है, वो उससे कई गुना ज्यादा होगा. 

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वक्फ वेलफेयर फोरम के चेयरमैन जावेद अहमद ने बताया कि मस्जिद के इमामों को सिर्फ दिल्ली में ही सैलरी नहीं दी जाती बल्कि देश के तमाम राज्यों में दी जाती है. उनमें बीजेपी शासित राज्य भी हैं. इमामों को सरकार नहीं बल्कि वक्फ बोर्ड खुद सैलरी देता है. वक्फ बोर्ड की अपनी खुद की आय है. बोर्ड अपनी संपत्तियों के किराए या फिर दरगाह से मिलने वाले आय से अपने कर्मचारियों और अपनी मस्जिदों के इमाम-मुअज्जिन को सैलरी देता है. इसके अलावा बोर्ड यतीमों और गरीबों को पेंशन के तौर पर आर्थिक मदद देता है. 

हालांकि, कुछ राज्य सरकारें वक्फ संपत्तियों के संरक्षण के लिए फंड देती हैं, जिसे बोर्ड कई जगह मदद में खर्च करता है. दिल्ली सरकार 62 करोड़ रुपये का अनुदान वक्फ बोर्ड को देती है जबकि वक्फ बोर्ड की अपनी खुद की आय सालाना चार करोड़ से ज्यादा है. जावेद अहमद कहते हैं कि राज्य सरकारें अनुदान के तौर पर वक्फ बोर्ड को फंड देती हैं, जो वक्फ संपत्तियों के संरक्षण के लिए होता है. बोर्ड इस फंड को अलग-अलग मद में खर्च करता है. 

वक्फ का फाइनेंस मॉडल 

वक्फ बोर्ड की आय को स्रोत्र अपनी वक्फ संपत्तियां हैं. ये आय मस्जिदों में बनी दुकानें-प्रॉपर्टी के किराए, दरगाह और खानकाह के जरिए होती है. वक्फ की जिस संपत्ति से आय होती है, उस संपत्ति की स्थानीय कमेटी 93 फीसदी को अपने पास रखती है. सात फीसदी आय को राज्य वक्फ बोर्ड को देती है, जिसमें एक फीसदी सेंट्रल वक्फ काउंसिल को जाता है. स्थानीय कमेटी 93 फीसदी को वहां के रखरखाव पर खर्च करती है जबकि राज्य वक्फ बोर्ड सात फीसदी में से कर्मचारियों और प्रबंधन पर पैसा खर्च करता है. 
    
उदाहरण के तौर पर बहराइच की दरगाह में सालाना सात करोड़ रुपये आय होती है, जिसमें 6 करोड़ 51 लाख दरगाह के रखरखाव पर खर्च होते हैं और 49 लाख रुपये स्टेट वक्फ बोर्ड को जाते हैं. स्टेट बोर्ड 49 लाख में से 7 लाख रुपये सेंट्रल वक्फ काउंसिल को देता है. ऐसे ही दिल्ली की निजामुद्दीन दरगाह, महरौली दरगाह से होने वाली आय का हिस्सा वक्फ बोर्ड को मिलता है. वक्फ बोर्ड इसी आय में से अपनी मस्जिदों के इमामों और मोअज्जिन को सैलरी देता है. 

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किस-किस राज्य में इमाम को सैलरी

दिल्ल ही नहीं बल्कि देश के कई राज्यों में वक्फ बोर्ड अपनी मस्जिदों के इमामों को सैलरी देता है. तेलंगाना में जुलाई 2022 से इमामों और मुअज्जिनों को हर महीने 5,000 रुपये मानदेय दिया जा रहा है. पश्चिम बंगाल की सरकार ने साल 2012 से ही इमामों को हर महीने 2,500 रुपये देने का ऐलान किया था और तब से यह सिलसिला जारी है. मध्य प्रदेश वक्फ बोर्ड इमाम को 5000 रुपये महीना और मुअज्जिनों को 4500 रुपये महीना देता है. हरियाणा में वक्फ बोर्ड अपनी मस्जिदों के 423 इमामों को प्रतिमाह 15000 रूपए का वेतन देता है. 

बिहार में साल 2021 से सुन्नी वक्फ बोर्ड अपनी मस्जिदों के इमाम को 15 हजार और मोअज्जिनों को 10 हजार रुपये मानदेय दे रहा है. हालांकि, बिहार स्टेट शिया वक्फ बोर्ड 105 मस्जिदों के इमाम को 4000 और मोअज्जिनों को 3000 रुपये मानदेय दे रहा है. बिहार सरकार सालाना 100 करोड़ रुपये का फंड वक्फ बोर्ड को अनुदान के तौर पर देती है. 

कर्नाटक वक्फ बोर्ड ने पंजीकृत मस्जिदों के इमाम को सैलरी देने का स्लैब बना रखा है, जिसमें बड़े शहरों में इमाम को 20 हजार, नायब इमाम को 14000, मोअज्जिन को 14000, खादिम को 12000 और मुल्लिम को 8 हजार रुपये देने का प्रावधान है. ऐसे ही शहर की मस्जिद के इमाम को 16000, कस्बे या नगर की मस्जिद के इमाम को 15000 और ग्रामीण में इमाम को 12000 रुपये दिए जाते हैं. इसी तरह पंजाब में भी वक्फ बोर्ड की मस्जिदों के इमाम को सैलरी दी जाती है.

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उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड वक्फ बोर्ड अपनी मस्जिदों के इमाम और मुअज्जिन को सैलरी नहीं देते. उत्तर प्रदेश में कुछ चुनिंदा मस्जिदों के इमाम को सैलरी दी जाती है, जो खासकर पुरातत्व विभाग के अधीन हैं. इनमें ताजमहल मस्जिद, लखनऊ में राजभवन की मस्जिद, फतेहपुर सीकरी जैसी मस्जिद के इमाम को सैलरी यूपी वक्फ बोर्ड देता है. वहीं, बाकी मस्जिद को इमाम को स्थानीय मस्जिद कमेटी के द्वारा सैलरी दी जाती है. 

मंदिर के पुजारी को क्यों नहीं सैलरी

वरिष्ठ पत्रकार जैद फारूकी कहते हैं कि वक्फ संपत्तियों की देखरेख वक्फ बोर्ड करता है, जो स्वायत्त संस्था है. स्टेट सरकार के अधीन आती है. वक्फ संपत्तियों से होना वाली आय वक्फ बोर्ड को जाती है, जिसके जरिए वक्फ अपनी मस्जिदों के इमाम को सैलरी देता है. वहीं, मंदिर के पुजारियों को सैलरी इसलिए सरकार के द्वारा नहीं दी जाती, क्योंकि मंदिर और आश्रम का संचालन निजी ट्रस्ट के द्वारा किया जाता है. मंदिरों से होने वाली आय को ट्रस्ट अपने पास रखता है और उससे अपनी मंदिरों के पुजारी को सैलरी देता है. इतना ही नहीं कई जगह पर धर्मार्थ विभाग हैं, जो मंदिरों के लिए ही पैसा खर्च करते हैं. उत्तराखंड में मंदिरों को सरकार ने अपने अधीन लेना चाहा तो पुजारियों ने विरोध कर दिया था. 

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केंद्रीय सूचना आयुक्त ने खड़े किए सवाल

दिल्ली वक्फ बोर्ड के द्वारा मस्जिदों के इमाम और मुअज्जिनों के दी जाने वाली सैलरी को लेकर केंद्रीय सूचना आयुक्त उदय माहुरकर ने सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले पर भी सवाल खड़े किए हैं, जिसमें 1993 में मस्जिदों में इमामों और मुअज्जिनों को सैलरी देने का निर्णय दिया था. उदय माहुरकर ने कहा कि देश की शीर्ष अदालत ने अपने आदेश को पारित करके संविधान के प्रावधानों, खासकर अनुच्छेद 27 का उल्लंघन किया, जिसमें कहा गया है कि करदाताओं का धन किसी एक विशेष धर्म के पक्ष में इस्तेमाल नहीं किया जाएगा. 

अनुच्छेद 27 का उल्लंघन नहीं

वहीं, वक्फ वेल्फेयर फोरम के चेयरमैन जावेद अहमद कहते हैं कि वक्फ बोर्ड के द्वारा अपनी मस्जिदों के इमाम को सैलरी देना अनुच्छेद 27 का कहीं से भी उल्लंघन नहीं है, क्योंकि वक्फ बोर्ड अपनी आय से मस्जिद के इमाम और मुअज्जिनों को सैलरी देता है. राज्य सरकारें जो अनुदान देती हैं, वो वक्फ संपत्ति को संरक्षण के लिए है. ऐसे में मंदिर के पुजारियों को जहां तक देने की बात है, तो बंगाल में ममता सरकार देती है, जो कि जनता के टैक्स से दिया जाता है. इसलिए मस्जिद के इमाम और पुजारियों को मिलने वाली सैलरी की तुलना नहीं की जा सकती है.

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