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नीतीश कुमार बीजेपी के नेतृत्व वाली एनडीए से नाता तोड़कर 'महागठबंधन' में लौट आए. नीतीश पूरा मन बनाकर बीजेपी से अलग हुए हैं और जिस तरह मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालने के बाद अपने तेवर दिखाए हैं, वो एक तरह से बीजेपी और मोदी को सीधे चुनौती है. उन्होंने 2022 में ही 2024 के युद्ध का ऐलान कर हवा दे दी है जो संकेत देती है कि वह भी विपक्ष का चेहरा बनने का लिए तैयार हैं.
पीएम मोदी के खिलाफ खुद को विपक्ष की पिक्चर में लीड रोल के लिए पहले से पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से लेकर कांग्रेस नेता राहुल गांधी और आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल बेताब हैं. दिल्ली दरबार का रास्ता तय करने और विपक्ष का चेहरा बनने की चाह रखने वाले इन चारों ही नेताओं की अपनी-अपनी सियासी ताकत और कमजोरियां हैं. इंडिया टुडे ग्रुप के कंसल्टिंग एडिटर राजदीप सरदेसाई की नजर में क्या हैं इन नेताओं की खूबियां और खामियां आइये जानते हैं.
नीतीश कुमार की ताकत
1. हिंदी पट्टी वाले बड़े राज्य से आते हैं
दिल्ली के सत्ता का रास्ता हिंदी बेल्ट वाले राज्यों से होकर गुजरता है. यही वजह है कि नरेंद्र मोदी को भी सीएम से पीएम की कुर्सी तक पहुंचने के लिए गुजरात के बजाय उत्तर प्रदेश को अपनी कर्मभूमि बनाना पड़ा था. नीतीश कुमार की यही सबसे बड़ी ताकत है कि वो बिहार से आते हैं. बिहार ही नहीं बल्कि हिंदी पट्टी वाले राज्यों में नीतीश कुमार की अपनी एक पहचान है.
2. सत्ता चलाने का लंबा अनुभव
नीतीश कुमार के पास शासन चलाने का अच्छा खासा अनुभव है. चार दशक के लंबे सियासी सफर में नीतीश ने सफलता के कितने पड़ाव पार किए हैं. केंद्र में मंत्री के तौर पर काम करने से लेकर पिछले 17 सालों से बिहार की सत्ता के नीतीश कुमार धुरी बने हुए हैं. आठवीं बार मुख्यमंत्री बने हैं. सत्ता का ये लंबा अनुभव उनके लिए 2024 में एक तरह से सियासी संजीवनी साबित हो सकता है.
3. नीतीश ओबीसी नेता हैं
नीतीश कुमार ओबीसी समुदाय के कुर्मी जाति से आते हैं, जो उनके लिए एक बड़ी ताकत बन सकता है. मौजूदा दौर में देश की राजनीति ओबीसी केंद्रित हो गई है. बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को पीएम का कैंडिडेट बनाया था तो उन्हें ओबीसी नेता को तौर पर पेश किया था. वहीं, नीतीश कुमार की पहचान एक ओबीसी नेता के तौर पर रही है. नीतीश का कुर्मी समाज बिहार से लेकर यूपी, एमपी, छत्तीसगढ़ और गुजरात में अच्छी खासी संख्या में है. ऐसे में नीतीश कुमार के लिए ओबीसी का होना एक ट्रंप कार्ड साबित हो सकता है.
4. महिला सशक्तिकरण को लेकर मजबूत
नीतीश कुमार की सबसे बड़ी ताकत उनकी छवि रही है और खासकर महिलाओं के बीच उनकी मजबूत पकड़ मानी जाती है. नीतीश कुमार महिला वोटरों का सहारे लगातार जीत का परचम फहरा रहे हैं. बिहार में शराबबंदी, साइकिल बांटना और सरकारी नौकरियों में महिलाओं को आरक्षण देने जैसे तमाम कदम नीतीश ने उठाए हैं. 2020 के चुनाव में अंतिम समय में महिला वोटरों ने बचा लिया.
5. भ्रष्टाचार का आरोप नहीं हैं
नीतीश कुमार बिहार की सत्ता में 17 सालों से काबिज हैं. ऐसे में विकास करने वाले, अपराध और भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने वाले साफ-स्वच्छ छवि के नेता बनकर उभरे हैं. नीतीश कुमार के ऊपर किसी तरह का कोई भ्रष्टाचार का दाग सीधे तौर पर नहीं लगा है. ऐसे में उनकी साफ छवि उन्हें विपक्षी चेहरे के तौर पर खड़े होने में काफी मददगार साबित हो सकती है.
6 मंडल युग के दिग्गज नेता हैं
नीतीश कुमार आपातकाल के दौर से निकले हैं, लेकिन सियासी बुलंदी उन्हें मंडल के दौर में मिली है. मंडल युग के दिग्गज नेताओं में नीतीश कुमार गिने जाते हैं. जातिगत जनगणना को नीतीश कुमार एक सियासी हथियार के तौर पर नरेंद्र मोदी के खिलाफ इस्तेमाल कर सकते हैं.
नीतीश कुमार की कमजोरियां
1. नीतीश के साथ अविश्वास की कमी
नीतीश कुमार के साथ अविश्वास का टैग लगा हुआ है. वो इतनी बार पाला बदल चुके हैं कि उन्हें पलटू कुमार या पलटू राम तक कहा जा चुका है. विपक्षी दल उन्हें शक की नजर से नहीं देखेंगे, कैसे कहा जा सकता है. विपक्ष उनके नेतृत्व में 2024 के समर में उतरने से पहले कई बार सोचेगा. ये नीतीश कुमार की सबसे बड़ी कमजोरी है.
2. देशव्यापी नेता नहीं हैं
नीतीश कुमार बिहार में भले ही 17 सालों से सत्ता के धुरी बने हुए हों, लेकिन बिहार से बाहर न तो कोई खास अपील है और न ही देशव्यापी नेता के तौर पर खुद को स्थापित नहीं कर सके हैं. 2024 की राह में नीतीश कुमार के लिए कमजोरी साबित हो सकता है.
3. राजनीतिक मूल्यों से समझौता करने वाले नेता
नीतीश कुमार के साथ एक माइनस प्वाइंट ये है कि उनकी छवि राजनीतिक मूल्यों से समझौता करने वाले नेता की बन गई है. नीतीश कुमार अपने राजनीतिक अस्तित्व को बचाए रखने के लिए किसी के साथ भी समझौता कर सकते हैं. बीजेपी से लेकर आरजेडी और कांग्रेस तक के साथ हाथ मिला चुके हैं.
4. आर्थिक विकास के लिए कोई स्पष्ट विजन नहीं है
नीतीश कुमार सामाजवादी नेता के तौर पर उभरे थे, लेकिन 17 सालों से बिहार की सत्ता पर काबिज हैं. इसके बावजूद किसी तरह का आर्थिक विकास के लिए कोई स्पष्ट विजन पेश नहीं कर सके. बिहार में इतने लंबे समय से उनके राज करने के बाद भी आर्थिक रूप से देश के दूसरे राज्यों से काफी पीछे हैं. बिहार से दूसरे राज्यों में रोजगार के लिए पलायन की समस्या अभी भी बनी हुई है.
5. व्यापक स्तर पर युवाओं से कोई कनेक्ट नहीं है
नीतीश कुमार की सबसे बड़ी कमजोरी युवाओं पर पकड़ न होना. बिहार चुनाव में उनकी सीटें घटने की एक बड़ी वजह यह थी कि युवाओं के साथ कनेक्ट न कर पाना. देश की राजनीति में युवा वोटर काफी अहम है. पीएम मोदी और बीजेपी के ग्राफ बढ़ने में युवाओं का रोल काफी अहम रहा है.
ममता बनर्जी की ताकत
1. महिला मुख्यमंत्री हैं
बंगाल की राजनीति में अपने दम पर लेफ्ट का किला ध्वस्त कर बड़ा सियासी बदलाव करने वाली ममता बनर्जी इस समय देश में एकलौती महिला मुख्यमंत्री है. ममता की महिलाओं वोटरों के बीच अच्छी खासी पकड़ है. यही वजह रही कि बीजेपी ममता के दुर्ग को नहीं भेद सकी. ममता बनर्जी की यही सबसे बड़ी ताकत है. ममता महिलाओं में लोकप्रिय हैं और ममता इस लोकप्रियता को चुनावों में भुनाना भी जानती हैं.
2. बंगाल पर मजबूत पकड़
ममता बनर्जी की पश्चिम बंगाल में मजबूत पकड़ है. बंगाल में कुल 42 लोकसभा सीटें आती है, जिनमें से आधी से ज्यादा सीटें अभी भी टीएमसी के पास है. विधानसभा चुनाव जीतने के बाद से ममता बनर्जी ने जिस तरह से अपना किला मजबूत करने में जुटी हैं, उससे साफ जाहिर होता है कि वो अपने राज्य में ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतने के मूड में है ताकि 2024 में पीएम पद की दावेदारी कर सकें.
3. जननेता की छवि है और गरीबों की हितैषी
सीएम ममता बनर्जी की छवि बंगाल में एक जननेता और गरीबों के हमदर्द के तौर पर मानी जाती है. ममता की छवि सिर्फ बंगाल तक सीमित नहीं है बल्कि देश के दूसरे राज्यों के लोग भी मानते हैं कि ममता गरीबों की हितैषी हैं. यही उनकी सबसे बड़ी ताकत है और जनता से कनेक्ट करता है.
4. जमीनी स्तर पर लड़ाई लड़ने वाली नेता की छवि
ममता बनर्जी संघर्ष करने और जमीनी नेता के तौर पर खुद को स्थापित किया है. ममता ने अपनी सियासी राह खुद टेढे-मेढ़े रास्ते पर चलकर बनाई है. नंदीग्राम और सिंगूर में उनके संघर्ष को बंगाल ही नहीं बल्कि देश ने देखा, जिसके चलते उनकी सियासी कामयाबी का रास्ता खुला और बंगाल की सीएम तीसरी बार सीएम है.
ममता की कमजोरियां
1) हिंदी-अंग्रेजी में कमजोर
ममता बनर्जी की सबसे बड़ी कमजोरी भाषा की है, जो उनकी सियासी राह में अड़चन बन रही है. ममता बनर्जी बहुत अच्छे तरीके से हिंदी नहीं बोल पाती हैं, जिसके चलते हिंदी पट्टी वाले लोगों के साथ उस कनेक्ट नहीं कर पाती हैं, जिस तरह बंगाल के लोगों से करती हैं. ऐसा ही अंग्रेजी के साथ भी है.
2. बंगाल में ही सीमित हैं
ममता बनर्जी तीसरी बार पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री है, लेकिन उनका सियासी आधार बंगाल तक सीमित है. बंगाल से बाहर अपना सियासी आधार बढ़ाने की टीएमसी ने कोशिश 2021 के चुनाव के बाद जरूर की है, लेकिन अभी तक सफलता नहीं मिली. महज बंगाल के सहारे देश की सत्ता तक पहुंचना आसान नहीं है.
3. पार्टी पर भ्रष्टाचार के आरोप लग चुके हैं
ममता बनर्जी के दामन भले ही कोई दाग न हो, लेकिन उनकी पार्टी के कई नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं. ममता के सबसे विश्वासपात्र मंत्री रहे पार्थ चटर्जी भ्रष्टाचार मामले में गिरफ्तार हो चुके हैं. इसके अलावा उनके भतीजे अभिषेक बनर्जी पर कोयला घोटाले से जुड़े मनी लॉन्ड्रिंग मामले में ईडी पूछताछ कर चुकी है और सीबीआई की जांच चल रही है. टीएमसी के दूसरे नेताओं पर भी कई मामले हैं.
4. परिवार को बढ़ावा देने का आरोप
ममता बनर्जी पर भी परिवारवाद के आरोप लग रहे हैं. टीएमसी में ममता बनर्जी के बाद उनके भतीजे अभिषेक बनर्जी की तूती बोलती है और उन्हें ममता के सियासी वारिस के तौर पर देखा जा रहा है. ममता के कई साथियों ने टीएमसी छोड़ने की वजह अभिषेक बनर्जी के बढ़ते कद को बताया था.
5. भविष्य की राजनीति को लेकर स्पष्ट विजन नहीं
ममता बनर्जी बंगाल की सरकार लागातार तीसरा टर्म चला रही हैं, लेकिन भविष्य की राजनीति को लेकर स्पष्ट कोई विजन नहीं पेश कर सकी हैं. हाल ही में ममता ने राष्ट्रपति चुनाव में विपक्ष को एकजुट करने की कवायद की थी, जिसमें उन्होंने यशवंत सिन्हा को उतारा था, लेकिन उपराष्ट्रपति चुनाव में विपक्ष से किनारा कर लिया. ऐसे में ममता के साथ कोई दल कैसे स्टैंड कर सकता है.
अरविंद केजरीवाल की ताकत
1. पार्टी नई ऊर्जा से भरी हुई है
अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी इस समय जोश से भरी हुई है और राष्ट्रीय स्तर पर अपने पैर पसार रही है. दिल्ली के बाद पंजाब की सत्ता पर काबिज हो चुकी है और गुजरात से लेकर दक्षिण तक अपना सियासी आधार बढ़ा रही है. ऐसे में 2024 के चुनाव में केजरीवाल एक बड़ी ताकत के रूप में उभर रहे हैं.
2, पार्टी से मध्यम वर्ग और शहरी युवाओं से जुड़ाव
आम आदमी पार्टी ने दिल्ली के विकास मॉडल के सहारे मीडिल क्लास समाज पर मजबूत पकड़ बनाई है तो शहरी युवाओं के बीच गहरा जुड़ाव भी देखने को मिला है. केजरीवाल का फ्री बिजली, पानी, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा समाज के माध्यम वर्ग को प्रभावित कर रही है.
3. हिंदी और अंग्रेजी में पूरी तरह मजबूत पकड़ है
आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल हिंदी और अंग्रेजी दोनों ही भाषाओं पर जबर्दस्त तरीके से मजबूत पकड़ रखते हैं. बेहतर कम्युनिकेशन स्किल के आधार पर केजरीवाल हिंदी पट्टी वाले राज्यों से लेकर दक्षिण भारत तक के लोगों से सीधे कनेक्ट करते हैं. विपक्ष के आरोपों का उसी भाषा में तुरंत जवाब देने के लिए माहिर है.
4. राष्ट्रीय स्तर पर भ्रष्टाचार विरोधी छवि बनाई है
अन्ना हजारे के एंट्री करेप्शन आंदोलन से निकलकर अरविंद केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी का गठन किया था. केजरीवाल ने अपनी पार्टी की छवि को भ्रष्टाचार विरोधी बनाए रखा है, जिसके चलते उन्होंने दिल्ली से लेकर पंजाब तक में जिस भी नेता पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे, उसे सीधे बाहर का रास्ता दिखा दिया. केजरीवाल साफ कहते हैं कि करेप्शन पर जीरो टॉलरेंस नीति पर किसी तरह का कोई समझौता नहीं है.
अरविंद केजरीवाल की कमजोरियां
1. संगठन कुछ लोगों के हाथों तक सीमित है
अरविंद केजरीवाल की सबसे बड़ी कमजोरी है कि उनकी आम आदमी पार्टी चंद लोगों के हाथों तक ही सीमित है. संगठन में उन्हीं नेताओं को जिम्मेदारी मिली हुई है, जो केजरीवाल के करीबी माने जाते हैं. इसके अलावा बाकी नेताओं किसी तरह के कोई अहम रोल में नहीं है.
2. पार्टी की छवि वन मैन शो वाली है
अरविंद केजरीवाल का आम आदमी पार्टी पर वर्चस्व कायम है. केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री भी है और पार्टी के संयोजक भी है. आम आदमी पार्टी के गठन से लेकर अभी तक केजरीवाल की पार्टी की कमान संभाल रहे हैं. ऐसे में पार्टी के जिस भी नेता ने उन्हें चुनौती देने की कोशिश की, उसे पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. आम आदमी पार्टी के गठन करने वाले तमाम नेता एक-एक कर दूर हो गए. आम आदमी पार्टी में वन मैन शो वाली पार्टी है और उसके कर्ताधर्ता केजरीवाल हैं.
3. 'धर्मनिरपेक्ष' वाली छवि पर उठे सवाल
अरविंद केजरीवाल की राजनीति दरअसल एनजीओ मॉडल की राजनीति है, जिसके चलते आम आदमी पार्टी के पास कोई कमिटमेंट वाली अपनी विचाराधारा नहीं है. केजरीवाल विचारधारा से परे की राजनीति करते हैं और बहुत से लोग मानते हैं कि ये विचार-शून्यता की राजनीति है. ऐसे में मुसलमानों की लिंचिंग, दिल्ली दंगों और मुसलमानों से जुड़े मुद्दों पर केजरीवाल ने चुप्पी साध रखी थी, जिसके आम आदमी पार्टी के धर्मनिरपेक्ष छवि को लेकर भी सवाल खड़े हुए हैं. केजरीवाल खुद को हनुमान भक्त बताते हैं तो मंदिर-मंदिर माथा टेकते नजर आते हैं.
राहुल गांधी की ताकत
1. सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता हैं
बीजेपी के बाद आज भी देश दूसरी सबसे बड़ी कांग्रेस है. राहुल गांधी सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के नेता है. संसद के दोनों ही सदनों में विपक्ष में सबसे ज्यादा सांसद कांग्रेस पार्टी के हैं. बीजेपी के खिलाफ देश में विपक्षी एकता कांग्रेस के बिना संभव नहीं है. राहुल गांधी की यही सबसे बड़ी ताकत है, जिसके आधार पर पार्टी उन्हें 2024 में मोदी के सामने विकल्प के तौर पर स्थापित करना चाहती है.
2. कांग्रेस और राहुल की देशव्यापी पहचान
कांग्रेस ही एकलौती पार्टी है, जिसका सियासी आधार किसी एक-दो राज्य में नहीं बल्कि देश भर के राज्यों में है. राहुल गांधी की पहचान भी राष्ट्रीय स्तर पर है. राजस्थान और छत्तीसगढ़ में अपने दम पर सरकार चला रही है तो तमिलनाडु और बिहार में सहयोगी दल के तौर पर शामिल है. इसके अलावा कई राज्यों में मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ही है. ऐसे में कांग्रेस का व्यापक आधार ही उसे बीजेपी के सामने मजबूती से खड़ा कर रहा है.
3. पीएम मोदी पर लगातार निशाना साधते हैं
राहुल गांधी से लेकर कांग्रेस के तमाम नेता सीधे तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नीतियों को लेकर खुलकर निशाना साधते रहते हैं. जनता से जुड़े मुद्दों को लेकर सड़क से सांसद तक बीजेपी के खिलाफ कांग्रेस लड़ती नजर आती है. कांग्रेस नेताओं की ओर से बार-बार यह बात कही भी जाती है कि बीजेपी के खिलाफ कांग्रेस ही एकलौती पार्टी है, जो जमीनी स्तर पर लड़ सकती है.
4. मजबूत विकल्प के रूप में खुद को पेश करते हैं
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उनकी पार्टी का एकमात्र सपना राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाना है. यही वजह कि पीएम मोदी और बीजेपी के खिलाफ कांग्रेस राहुल गांधी को एक मजबूत विकल्प के रूप मे पेश करती रही है. कांग्रेस कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत जोड़ो यात्रा शुरू कर रही है, जिसके जरिए बीजेपी के सामने एक मजबूत विकल्प के रूप में कांग्रेस पार्टी और राहुल गांधी को स्थापित करने की रणनीति है.
राहुल गांधी की कमजोरियां
1. वंशवाद का टैग है
राहुल गांधी के साथ वशंवाद का टैग लगा हुआ है, जो उनकी मजबूती के साथ-साथ बड़ी सियासी कमजोरी भी है. वंशवाद के खिलाफ बिगुल फूंक कर नरेंद्र मोदी खूब सफल भी हुए. नरेंद्र मोदी अपने चुनाव अभियान में राहुल को कांग्रेस के युवराज कह कर संबोधित करते थे और परिवारवादी राजनीति को पूरी तरह खत्म करने के लिए मोर्चा खोल रखा है. ऐसे में राहुल के लिए गांधी परिवार की वंशवादी छवि को तोड़ पाना एक चुनौती है.
2. बीजेपी से सीधी लड़ाई में कांग्रेस संघर्ष कर रही
बीजेपी के साथ आमने-सामने की लड़ाई में कांग्रेस को आज काफी संघर्ष करना पड़ रहा है. कांग्रेस के हाथों से एक के बाद एक राज्य निकलते जा रहे हैं और सियासी आधार सिकुड़ता जा रहा है. इसके चलते दूसरे क्षेत्रीय पार्टियां कांग्रेस के संग खड़ी होने से बच रही हैं. कांग्रेस के लिए सबको साथ लाना मुश्किल हो रहा है. राहुल गांधी के नाम पर भी सहयोगी दल साथ आने से कतरा रहे हैं.
3. सत्ता चलाने की या फिर बड़ी राजनीतिक जिम्मेदारी नहीं ली
राहुल गांधी को सियासत में कदम रखे हुए करीब दो दशक हो रहे हैं. 2004 से लेकर 2914 तक कांग्रेस सत्ता में रही, लेकिन राहुल गांधी ने तो सरकार में किसी तरह की कोई जिम्मेदारी उठाई और न ही सियासी रूप से कोई भूमिका में नजर आए. ये बात जरूर रही है कि राहुल गांधी ने साल 2018 के आखिर में कांग्रेस अध्यक्ष पद की जिम्मा संभाला, लेकिन 2019 के चुनाव के बाद इस्तीफा दे दिया. इसके बाद से कोई जिम्मेदारी नहीं ली, जिसके चलते अभी तक कांग्रेस का कोई अध्यक्ष नहीं बन सका.
4. 24x7 एक्टिव रहने वाले नेता के रूप में नहीं देखा जाता
राहुल गांधी के साथ एक माइनेस प्लाइंट ये भी है कि उनकी छवि 24x7 वाले नेता की नहीं बन सकी. दो दशक से सक्रिय हैं, लेकिन अचानक बहुत ज्यादा एक्टिव हो जाते हैं और अचानक गायब. ऐसे में राहुल की छवि न तो गंभीर नेता के तौर पर बन पाई है और न ही एक्टिव नेता की. वहीं, बीजेपी नेता हमेशा एक्टिव मोड में नजर आते हैं और चुनाव जीतने को बेताब रहते हैं. इस तरह की भूख राहुल में नहीं दिखती है.