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सियासत की फैमिली फाइट... पवार परिवार से पहले इन 10 परिवारों में भी छिड़ चुकी है जंग!

महाराष्ट्र में पवार परिवार में घमासान है. एनसीपी चीफ शरद पवार के भतीजे अजित ने पार्टी से बगावत कर दी है. अब पार्टी पर कब्जे की जंग शुरू हो गई है. दोनों ही गुट विधायकों को अपने-अपने पाले में करने में लगे हैं. देश में इससे पहले भी बड़े राजनीतिक दलों में टूट हुई है और उसकी वजह भी परिवार या चाचा-भतीजे भी बने हैं. इन सियासी घटनाक्रमों का नुकसान भी पार्टियों को उठाना पड़ा है. ऐसे ही 10 पार्टियों के बारे में जानिए...

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शरद पवार, सोनिया गांधी, अखिलेश यादव और ओमप्रकाश चौटाला परिवार में भी टूट हुई है. (फाइल फोटो)
शरद पवार, सोनिया गांधी, अखिलेश यादव और ओमप्रकाश चौटाला परिवार में भी टूट हुई है. (फाइल फोटो)

महाराष्ट्र में 25 साल पुरानी पार्टी NCP बिखर गई है. चाचा-भतीजे (शरद पवार और अजीत पवार) की जंग अब और तेज होने के आसार बढ़ गए हैं. दोनों ही गुट चुनाव आयोग पहुंच गए हैं और पार्टी, सिंबल पर दावा ठोंक दिया है. फिलहाल, सुलह की उम्मीदें दूर तक नजर नहीं आ रही हैं. हालांकि, देश की राजनीति में परिवार में विवाद और पार्टियों में दोफाड़ होने का यह पहला घटनाक्रम नहीं है. इससे पहले भी राजनीति के दिग्गजों के बीच रिश्तों में दगाबाजी देखने को मिली है. चाहे सोनिया-मेनका विवाद हो या सिंधिया और चौटाला परिवार के बीच विद्रोह. परिवारों में फूट-बगावत और दगाबाजी से सियासत गरमाती रही है. जानिए परिवार और पार्टियों में टूट के कुछ प्रमुख घटनाक्रम...

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हाल ही में शरद पवार और अजित पवार का विवाद सुर्खियों में है. लेकिन, इससे पहले चाचा-भतीजे चिराग-पशुपति कुमार पारस, अखिलेश यादव-शिवपाल यादव, प्रकाश सिंह बादल-मनप्रीत बादल, बाला साहेब ठाकरे-राज ठाकरे का विवाद भी चर्चा में रहा. इसके अलावा, मां-बेटे में विजयाराजे-माधव राव सिंधिया की कलह भी छिपी नहीं है. भाइयों में स्टालिन-अलागिरी, तेजप्रताप और तेजस्वी में सियासी जंग देखने को मिली है. हरियाणा में चौटाला फैमिली और सोनिया- मेनका गांधी विवाद भी राजनीतिक गलियारों में है.

1. शरद पवार और अजित पवार विवाद

सबसे पहले महाराष्ट्र के ताजा घटनाक्रम पर बात करेंगे. 2 जुलाई को अजित पवार ने अचानक महाराष्ट्र की राजनीतिक हवाओं का रुख बदल दिया. वे अपने भरोसेमंद नेता प्रफुल्ल पटेल, छगन भुजबल समेत अन्य विधायक-एमएलसी के साथ एनडीए गठबंधन की सरकार में शामिल हो गए. अजित को डिप्टी सीएम बनाया गया. छगन भुजबल मंत्री बने और प्रफुल्ल के केंद्र सरकार में शामिल होने के कयास हैं. इस बगावत से शरद पवार की 25 साल पुरानी पार्टी टूट गई और साढ़े तीन साल बाद घर की कलह फिर उभरकर सामने आ गई. इससे पहले नवंबर 2019 में भी अजित ने बगावत की थी और बीजेपी से हाथ मिला लिया था. हालांकि, तब शरद पवार डैमेज कंट्रोल में कामयाब हो गए थे. उन्होंने अजित को मना लिया था, जिसके बाद उन्होंने बीजेपी से समर्थन वापस ले लिया था. लेकिन, इस बार हालात बिल्कुल अलग नजर आ रहे हैं. अब खुलकर बयानबाजी शुरू हो गई है और पार्टी-सिंबल पर कब्जे की लड़ाई चुनाव आयोग तक पहुंच गई है.

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शरद पवार

2. बिहार में चिराग और पशुपति पासवान

बिहार में लोक जन शक्ति पार्टी (LJP) पर अधिकार की लड़ाई जून 2021 में सामने आई. तत्कालीन केंद्रीय मंत्री राम विलास पासवान के निधन के एक साल के भीतर ही परिवार में पार्टी पर कब्जे की जंग देखने को मिली. दरअसल, जब रामविलास केंद्र की सियासत किया करते थे तो बिहार की राजनीतिक फैसले पशुपति पारस लिया करते थे. भाई के निधन के बाद पशुपति कुमार पारस एक्टिव हुए और LJP के छह में से पांच सांसदों को अपने पाले में किया और भतीजे चिराग पासवान का तख्तापलट कर दिया. पशुपति ने संसदीय दल के नेता के पद के साथ-साथ पार्टी पर भी कब्जा जमा लिया है. हालांकि, रामविलास पासवान के बेटे चिराग ने चाचा के सामने संघर्ष का बिगुल फूंका है. फिलहाल, पशुपति कुमार पारस इस मोदी सरकार में मंत्री हैं. अब चर्चा है कि केंद्रीय कैबिनेट विस्तार में चिराग का भी समायोजन किया जा सकता है. दरअसल, एलजेपी में बगावत की एक बड़ी वजह रामविलास पासवान के निधन के बाद उनकी राजनीतिक विरासत पर कब्जे को लेकर परिवार का अंदरूनी विवाद भी था. यही वजह है कि चिराग के खिलाफ उनके चाचा पशुपति और रामविलास पासवान के बड़े भाई के लड़के प्रिंस राज ने भी बागी रुख अपना लिया था. यहां तक कि स्व. रामविलास पासवान की कर्मभूमि हाजीपुर क्षेत्र पर दावे को लेकर दो गुट आमने-सामने हैं. 

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पासवान

3. यूपी में अखिलेश और शिवपाल यादव का विवाद

यूपी की पॉलिटिक्स में सुर्खियों में रहने वाला यादव कुनबा भी विवादों से नहीं बच सका. समाजवादी पार्टी के संस्थापक दिवंगत मुलायम सिंह यादव की सियासी विरासत पर काबिज होने के लिए चाचा शिवपाल यादव और भतीजे अखिलेश यादव के बीच 2016 के आखिर में जंग छिड़ गई थी. दरअसल, सपा की कमान जब तक मुलायम सिंह यादव के हाथ में रही तब तक शिवपाल यादव ही पार्टी के सर्वेसर्वा हुआ करते थे. संगठन से लेकर सरकार तक के तमाम फैसले वही किया करते थे. ऐसे में शिवपाल खुद को मुलायम का उत्तराधिकारी समझ रहे थे, लेकिन मुलायम ने अपनी सियासी विरासत भाई को देने के बजाय साल 2012 में बेटे को अखिलेश यादव को सौंप दी.

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शिवपाल ने 2017 के चुनाव से ठीक पहले भतीजे अखिलेश यादव के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंक दिया. चाचा-भतीजे की लड़ाई घर से सड़क तक आ गई. 30 दिसंबर 2016 को ऐसी भी परिस्थित बनी कि तत्कालीन अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने बेटे अखिलेश यादव और चचेरे भाई रामगोपाल यादव को पार्टी से निकाला दिया. वहीं, अखिलेश ने अगले 2 दिन बाद यानी एक जनवरी 2017 को विशेष अधिवेशन बुला लिया, जहां मुलायम की जगह अखिलेश यादव पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने गए और शिवपाल को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटा दिया गया. बाद में शिवपाल ने खुद की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी बना ली. ऐसे में मुलायम सिंह कभी भाई तो कभी बेटे के साथ खड़े नजर आए. 

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अखिलेश यादव

मुलायम के निधन के बाद साथ आए अखिलेश और शिवपाल

मुलायम समेत तमाम करीबी नेता और परिवार भी अखिलेश के साथ खड़ा रहा, जबकि शिवपाल के साथ कुछ ही पार्टी के नेता साथ आए. नतीजा यह हुआ कि सपा को 2017 में सत्ता गवांनी पड़ी. 2019 के लोकसभा चुनाव में हार मिली. 2022 के चुनाव में भी सत्ता में वापसी की उम्मीदें खत्म हो गईं. इस बीच, मुलायम सिंह यादव ने भी सुलह की तमाम कोशिशें कीं, लेकिन बात नहीं बन सकी. बाद में अक्टूबर 2022 में मुलायम के निधन के बाद परिवार में एकजुटता दिखी. शिवपाल सैफई में त्रयोदशी तक अखिलेश के साथ रहे. उसके बाद में मैनपुरी के लोकसभा उपचुनाव में शिवपाल ने बहू डिंपल यादव के समर्थन में कैंपेन किया. समर्थन दिया और जनसभाएं करके वोट मांगे. इस उपचुनाव में सपा की जबरदस्त जीत हुई और परिवार की एकजुटता ने सुलह के रास्ते खोल दिए. अखिलेश ने शिवपाल से मुलाकात की. समायोजन का फॉर्मूला निकाला और शिवपाल की पार्टी का सपा में विलय हो गया. अब शिवपाल सपा के राष्ट्रीय महासचिव हैं.

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4. पंजाब में बादल परिवार में भी हो गई थी टूट

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पंजाब के कद्दावर नेता रहे दिवंगत प्रकाश सिंह बादल के परिवार में टूट राजनीतिक सुर्खियों में रही है. शिरोमणि अकाली दल में भी दोफाड़ हुआ था. पार्टी संरक्षक प्रकाश सिंह बादल के भतीजे मनप्रीत सिंह बादल ने बगावत कर दी थी. प्रकाश सिंह से नाराज होकर मनप्रीत अलग हो गए थे और अपनी अलग पार्टी पीपुल्स पार्टी ऑफ पंजाब बना ली थी. दरअसल, प्रकाश से भतीजे मनप्रीत के विद्रोह करने की वजह भी सत्ता की महत्वाकांक्षा ही थी. सीएम पद की दावेदारी का सवाल इतना बड़ा हुआ कि चाचा-भतीजे का रिश्ता छोटा पड़ गया. मनप्रीत के पिता गुरदास सिंह बादल और प्रकाश सिंह बादल सगे भाई थे. 1995 में पहली बार अकाली दल के टिकट पर मनप्रीत को विधायक चुना गया था. उसके बाद वो अकाली दल के टिकट पर 1997, 2002 और 2007 में भी गिद्दड़बाहा सीट से विधायक बने. उस समय की पंजाब की राजनीति में प्रकाश सिंह बादल और युवाओं के बीच मनप्रीत काफी लोकप्रिय थे. मनप्रीत 2007 की बादल सरकार में वित्त मंत्री भी रहे. तब वह सरकार में सीएम के बाद नंबर-2 की हैसियत रखते थे.

बादल परिवार

कहा जाता है कि नंबर-2 की हैसियत पर रखने वाले मनप्रीत जल्द ही नंबर-1 हो जाना चाहते थे. मनप्रीत भी प्रकाश सिंह बादल के बाद खुद को पंजाब के सीएम पद का अगला दावेदार मान रहे थे. इसी बीच, उन्हें भनक लग गई कि चाचा अकाली दल की कमान सुखबीर सिंह बादल के हाथ में सौंपने वाले हैं. कुछ ही समय में दोनों में दूरियां बढ़ हुईं. मनप्रीत का डिप्टी सीएम सुखबीर सिंह बादल से विवाद बढ़ने लगा. इस वजह से उन्होंने अकाली दल छोड़ दिया. साल 2010 में मनप्रीत अकाली सरकार से बिल्कुल अलग हो गए. 

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2016 में पीपीपी का कांग्रेस में विलय

साल 2012 में उन्होंने लेफ्ट के साथ मिलकर पंजाब में अपनी नई पार्टी बना ली. 2012 का विधानसभा चुनाव खुद की पार्टी के सिंबल पर लड़े. मनप्रीत 2014 में कांग्रेस के सिंबल पर बठिंडा से चुनाव लड़े. इस चुनाव की हर तरफ खूब चर्चा हुई थी, क्योंकि यह चुनाव वो अपनी भाभी और पूर्व केंद्रीय मंत्री हरसिमरत कौर के खिलाफ लड़ रहे थे. मनप्रीत को इस चुनाव में हार मिली थी. बाद में 15 जनवरी 2016 को मनप्रीत सिंह बादल के नेतृत्व वाली पंजाब पीपुल्स पार्टी का कांग्रेस में विलय हो गया. 

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भगवंत मान को राजनीति में लाए मनप्रीत

पीपीपी का कांग्रेस में विलय होने से शिरोमणि अकाली दल को बड़ा झटका लगा था और 2017 का चुनाव कांग्रेस जीत गई थी. फिलहाल, मनप्रीत ने भारत जोड़ो यात्रा से पहले ही कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया था और अब बीजेपी में शामिल हो चुके हैं. यह भी रोचक है कि पंजाब के सीएम भगवंत मान कभी मनप्रीत सिंह बादल के बहुत करीबी दोस्त भी हुआ करते थे. बल्कि मनप्रीत ही वह शख्सियत हैं जो भगवंत मान को राजनीति में लेकर आए थे. उन्होंने भगवंत मान को अपनी पार्टी पीपीपी से टिकट दिया था और पहली बार उन्हें चुनाव भी मनप्रीत ने ही लड़वाया था.

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5. स्टालिन-अलागिरी का विवाद

तमिलनाडु के पूर्व सीएम और  द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम (DMK) प्रमुख रहे एम करुणानिधि के 2018 में निधन के बाद राजनीतिक विरासत को लेकर घमासान देखने को मिला था. करुणानिधि के दो बेटे एमके अलागिरी और एमके स्टालिन में काफी समय तक अंदरखाने और बाहरी तौर पर संघर्ष चला. हालांकि, इस संघर्ष में छोटे बेटे स्टालिन हमेशा भारी पड़े. कहा जाता है कि स्टालिन, अलागिरी की तुलना में ज्यादा पढ़े-लिखे और कूटनीति में माहिर रहे हैं. इतना ही नहीं, करुणानिधि भी कई मौकों पर सार्वजनिक मंचों से अपनी विरासत स्टालिन को सौंपने का संकेत देते रहे. स्टालिन की चेन्नई इलाके में मजबूत पकड़ है, जबकि बड़े बेटे अलागिरी की मदुरै में. दोनों भाइयों के बीच विवाद की शुरुआत तो जनवरी 2014 में ही चरम पर पहुंच गई थी. तब द्रमुख प्रमुख ने अलागिरी को पार्टी से निकाल दिया था. 2016 में उन्होंने अपने छोटे बेटे एमके स्टालिन को सियासी वारिस घोषित कर दिया था. करुणानिधि पांच बार सीएम बने.

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स्टालिन

परिवार के लिए करीबियों को नजरअंदाज करने का आरोप

करुणानिधि ने तीन शादियां की थीं. पहली पत्नी पद्मावती के बेटे मुथू हैं. जबकि दूसरी पत्नी दयालु से बेटे अलागिरी, स्टालिन और तमिलरासु हैं. बेटी सेल्वी हैं. तीसरी पत्नी से बेटी कनिमोझी हैं. करुणानिधि कई मौकों पर परिवारवाद को लेकर विरोधियों के निशाने पर भी रहे. इतना ही नहीं, करुणा पर बेटों को राजनीति में बढ़ावा देने के कारण वाइको जैसे दिग्गज नेताओं को भी किनारे लगाए जाने के आरोप लगाए गए. बेटों की खातिर ही मारन बंधुओं की उपेक्षा का भी आरोप लगा. करुणानिधि के दो और बेटे हैं. इनमें मुथू को फिल्मों में हीरो के तौर पर उतारा गया. हालांकि, ज्यादा सफलता नहीं मिली. चौथे बेटे तमिलारासू लो-प्रोफाइल से हैं. कहा जाता है कि बेटे मुथू को फिल्मों में सफलता नहीं मिलने से एमजी रामचंद्रन और करुणानिधि की राहें अलग-अलग हुईं. बाद में एमजीआर ने AIDMK नाम से नई पार्टी बनाई.

 

 

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6. महाराष्ट्र में उद्धव और राज ठाकरे का विवाद

कार्टूनिस्ट से राजनेता बने बाला साहेब ठाकरे ने 19 जून 1966 में शिवसेना का गठन किया. राजनीति में उतर आए, लेकिन कभी चुनाव नहीं लड़ा. हिंदुत्व के नाम पर पार्टी ने राजनीति की और 1990 के दशक में देशभर में चर्चा में आ गई. बाबरी विध्वंस में विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल के बराबर का श्रेय शिवसेना को भी दिया जाता था. बाद में पार्टी में उत्तराधिकार को लेकर सवाल खड़ा हो गया. विकल्प दो थे- पुत्र और भतीजा. बेटे उद्धव शांत स्वभाव के माने जाते थे और भतीजे राज ठाकरे उग्र तेवर वाले. एक समय पार्टी में राज ठाकरे को बाल ठाकरे का उपयुक्त वारिस माना जाता था. लेकिन, फिर शिवसेना टूट गई. राज ठाकरे की जगह शिवसेना का सिंहासन उद्धव को मिल गया. राज ठाकरे ने मराठी अस्मिता का नारा बुलंद किया और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना नाम से नई पार्टी बनाई. 2012 तक बाल ठाकरे ही शिवसेना के सर्वेसर्वा रहे. उनके निधन के बाद विरासत का विवाद खुलकर सामने आ गया. उद्धव और राज की राजनीतिक पार्टियां और सोच को एक नरम दल तो एक गरम दल के तौर पर देखी जाने लगी. हालांकि, शिवसेना बाल ठाकरे के प्रशंसकों की पहली पसंद बनी रही.

ठाकरे

शिवसेना में ज्यादा थी राज ठाकरे की स्वीकार्यता

शिवसेना की छवि फायरब्रांड हिंदुत्व और मराठी मानुष की राजनीति करने वाली पार्टी के रूप में रही है. राज ठाकरे की राजनीतिक शैली, पार्टी की सियासत के अनुकूल थी. राज ठाकरे में शिवसैनिक बाला साहब की सियासी शैली की झलक देखते थे और उन्हें ही सियासी विरासत का वारिस मानने लगे थे लेकिन ऐसा हुआ नहीं. बाला साहब ने पार्टी की कमान उद्धव ठाकरे को सौंप दी. उद्धव ठाकरे को शिवसेना की कमान मिली तो कुछ नेताओं को राज ठाकरे उनकी सियासी राह का कांटा नजर आने लगे. उद्धव काल की शिवसेना में राज ठाकरे को दरकिनार किया जाने लगा. राजनीति के जानकार इसके पीछे पार्टी में राज ठाकरे की लोकप्रियता को वजह बताते हैं. हालांकि, इससे पहले भी शिवसेना में बगावत हुई है. अब तक ऐसे तीन मौके आए हैं. उद्धव को शिवसेना अध्यक्ष के रूप में प्रोजेक्ट किए जाने के बाद शिवसेना में तीसरी बगावत 2022 में एकनाथ शिंदे ने की थी. सबसे पहली बगावत साल 1991 में हुई थी. तब मनोहर जोशी को विधानसभा में विपक्ष का नेता बनाए जाने से नाराज ओबीसी चेहरा छगन भुजबल ने बगावत की थी. साल 2005 में नारायण राणे ने भी बगावत कर दी थी.

7. हरियाणा में देवीलाल चौटाला की विरासत पर परिवार में जंग

हरियाणा में चौटाला परिवार के चाचा-भतीजे की लड़ाई किसी से छिपी नहीं है. चौधरी देवीलाल की विरासत की जंग में पूरा कुनबा बिखर गया. कहते हैं कि एक जमाने में हरियाणा में देवीलाल की राजनीति में तूती बोलती थी. करीब 4 दशकों तक इनके परिवार ने हरियाणा की राजनीति को तय किया है. आज भी राज्य में मजबूत पकड़ बना रखी है. इनकी तीसरी और चौथी पीढ़ी राजनीतिक मैदान में है. ओम प्रकाश चौटाला के दोनों बेटों अजय सिंह चौटाला और अभय सिंह चौटाला की सियासी राहें जुदा हो गई हैं. 

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'देवीलाल ने आजादी की लड़ाई में लिया था हिस्सा'

ताऊ देवीलाल की राजनीतिक विरासत की लड़ाई सड़क पर है. देवीलाल की राजनीतिक विरासत को एक समय उनके बेटे ओमप्रकाश चौटाला ने आगे बढ़ाया और हरियाणा के मुख्यमंत्री बने. ओमप्रकाश पहली बार 1989 से 91 तक सीएम रहे. 1991 में देवीलाल लोकसभा चुनाव हारे और उनकी राजनीतिक यात्रा समाप्त हो गई. 1999 में ओमप्रकाश चौटाला ने भाजपा की मदद से हरियाणा में सरकार बनाई. 2005 तक वे हरियाणा के सीएम बने. 2001 में देवीलाल का देहांत हो गया. वर्ष 2013 में चौटाला परिवार में फूट की शुरुआत हुई. बात तब की है, जब हरियाणा में उनकी सरकार में जूनियर बेसिक ट्रेनिंग टीचर्स भर्ती घोटाला हुआ और उन्होंने 10 साल जेल की सजा भी काटी. ओमप्रकाश और पोते अजय जेबीटी घोटाले में जेल गए. उसके बाद इंडियन नेशनल लोकदल (इनेलो - INLD) की कमान अभय चौटाला के हाथ में आ गई. 2014 के चुनाव में अजय चौटाला के बड़े बेटे दुष्यंत चौटाला राजनीति में आए. 2014 में दुष्यंत हिसार लोकसभा सीट से कुलदीप बिश्नोई को हराकर सबसे युवा सांसद बने.

चौटाला

दो खेमों में बंट गई पार्टी

दुष्यंत के सांसद बनने के बाद ही राज्य में हुए विधानसभा चुनाव में पार्टी हार गई. कारण था दुष्यंत के सांसद बनने के बाद पार्टी का दो खेमों में बंट जाना. पार्टी का एक गुट अभय चौटाला के साथ हो गया और दूसरा दुष्यंत के साथ. 2018 में पार्टी की फूट पूरी तरह से सामने आ गई. ओमप्रकाश चौटाला ने अजय के दोनों बेटों दुष्यंत और दिग्विजय को पार्टी से बाहर निकाल दिया. इनेलो की कमान अभय के पास पूरी तरह से आ गई. दिसंबर 2018 में दुष्यंत चौटाला ने जननायक जनता पार्टी की नींव रखी. जेजेपी को आगाज करते ही हार का सामना करना पड़ा. 2019 जनवरी में हुए जींद उपचुनाव में जेजेपी उम्मीदवार दिग्विजय चौटाला भाजपा से हार गए.

8. सिंधिया राजघराने की तकरार भी चर्चा में रही

ग्वालियर पर राज करने वाली राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने 1957 में कांग्रेस से अपनी राजनीति की शुरुआत की. वो गुना लोकसभा सीट से सांसद चुनी गईं. सिर्फ 10 साल में ही उनका मोहभंग हो गया और 1967 में वो जनसंघ में चली गईं. विजयाराजे की बदौलत ग्वालियर क्षेत्र में जनसंघ मजबूत हुआ. 1971 में इंदिरा गांधी की लहर के बावजूद जनसंघ यहां की तीन सीटें जीतने में कामयाब रहा. खुद विजयाराजे भिंड से, अटल बिहारी वाजपेयी ग्वालियर से और विजयाराजे सिंधिया के बेटे और ज्योतिरादित्य सिंधिया के पिता माधवराव सिंधिया गुना से सांसद बने. माधवराव अपने मां विजयाराजे और पिता जिवाजी राव के इकलौते बेटे थे. वो चार बहनों के बीच अपने माता-पिता की तीसरी संतान थे. माधवराव सिर्फ 26 साल की उम्र में सांसद चुने गए, लेकिन वो बहुत दिन तक जनसंघ में नहीं रुके. 1977 में आपातकाल के बाद उनके रास्ते जनसंघ और अपनी मां विजयाराजे सिंधिया से अलग हो गए. कहा जाता है कि मां-बेटे के बीच विवाद की शुरुआत इमरजेंसी के दौर में हुई. इमरजेंसी के दौरान जब विजयाराजे जेल में बंद थीं, तब माधवराव नेपाल चले गए थे. यही बात राजमाता को बुरी लगी और बड़ा धक्का पहुंचा था. उसके बाद लगातार संबंध बिगड़ते चले गए. राजमाता ने मां-बेटे के रिश्ते में दरार के लिए बहू माधवी राजे को जिम्मेदार ठहराया था. निजी संबंधों में दरार के बावजूद दोनों ने इसे सार्वजनिक नहीं होने दिया. यानी सामान्य शिष्टाचार का हमेशा ध्यान रखा गया. 1980 में माधवराव सिंधिया ने कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा और जीतकर केंद्रीय मंत्री भी बने. उनका विमान हादसे में 2001 में निधन हो गया.

NCP के लिए 'शिंदे' साबित हुए अजित पवार, क्या शिवसेना जैसे होंगे दो टुकड़े?

विजया राजे सिंधिया और माधवराव सिंधिया के बीच घरेलू विवाद राष्ट्रीय राजनीति में चर्चा का विषय बना रहा. मां विजया राजे और बेटे माधवराव के बीच घरेलू लड़ाई के राजनीतिक निहितार्थ भी निकाले गए. चूंकि दोनों प्रतिद्वंद्वी पार्टियों (बीजेपी-कांग्रेस) के प्रमुख नेता बनकर उभरे. राजमाता और राजकुमार के बीच कई विवादास्पद मसले अनसुलझे ही बने रहे. 

माधवराव सिंधिया

अब पूरा सिंधिया कुनबा बीजेपी में शामिल

दरअसल, राजमाता विजयाराजे सिंधिया चाहती थीं कि उनका पूरा खानदान बीजेपी में रहे. लेकिन, पांच संतानों में माधवराव के अलावा पोते ज्योतिरादित्य ही कांग्रेस में रहे. बाद में 2020 में ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस का साथ छोड़ा और बीजेपी में शामिल हो गए. विजयाराजे की दो बेटियों वसुंधरा राजे सिंधिया और यशोधरा राजे सिंधिया ने भी राजनीति में एंट्री की. 1984 में वसुंधरा राजे बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में शामिल हुईं. वो कई बार राजस्थान की सीएम भी बन चुकी हैं. दूसरी बेटी यशोधरा 1977 में अमेरिका चली गईं. 1994 में वे जब भारत लौटीं तो उन्होंने मां की इच्छा के मुताबिक बीजेपी ज्वॉइन की. 1998 में बीजेपी के ही टिकट पर चुनाव लड़ा. यशोधरा शिवराज सरकार में मंत्री भी हैं.

9. बिहार में तेजप्रताप और तेजस्वी के बीच विवाद

बिहार में सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनता दल (RJD) में भी पार्टी प्रमुख लालू प्रसाद यादव कुनबे में भी विवाद और मतभेद उभरकर सामने आए थे. साल 2021 में लालू के दोनों बेटों तेज प्रताप और तेजस्वी के बीच जगदानंद सिंह को बिहार का प्रदेश अध्यक्ष बनाए जाने पर घमासान हो गया था. दोनों भाइयों ने एक-दूसरे के खिलाफ बयानबाजी कर माहौल को और गरमा दिया था. दरअसल, जगदानंद सिंह ने RJD के छात्रसभा के प्रदेश अध्यक्ष आकाश यादव को हटा दिया था. जबकि आकाश को तेज प्रताप ने नियुक्त किया था. वहीं, तेजस्वी ने आकाश की जगह गगन यादव को छात्रसभा का नया प्रदेश अध्यक्ष बना दिया था. इसी बात को लेकर दोनों भाइयों में विवाद बढ़ा और घर में मतभेद बढ़ गया. बता दें कि जगदानंद सिंह को लालू का करीबी माना जाता है. वे तेजस्वी के भी उतने ही खास माने जाते हैं. जबकि तेज प्रताप की जगदानंद सिंह से नहीं बनती है. कहा जाता है कि लालू परिवार पर जब भी मुश्किलें आईं, तब जगदानंद सिंह साथ खड़े दिखे. लालू जब जेल में थे, तब तेजस्वी को एक्टिव पॉलिटिक्स में लाना किसी चुनौती से कम नहीं था और ये काम जगदानंद सिंह ने बखूबी निभाया. जगदानंद सिंह को लेकर विवाद में तेजस्वी ने तेजप्रताप को अनुशासनहीनता पर कार्रवाई तक की चेतावनी दे दी थी. बाद में लालू ने दोनों बेटों को दिल्ली बुलाया और सुलह करवाई थी. 2022 में पटना में आरजेडी कार्यकर्ता रामराज की पिटाई का मामला भी गरमाया था. कहा जाता है कि तेजस्वी के दखल देने पर तेज प्रताप नाराज हो गए थे. उन्होंने घोषणा की थी कि वो अपने पिता से मिलने पर अपना इस्तीफा सौंप देंगे.  

तेजस्वी यादव

'पिताजी को दिल्ली में बंधक बनाकर रखा है'

इससे पहले तेज प्रताप ने कहा था, पिताजी अस्वस्थ चल रहे हैं. हम कोई प्रेशर नहीं देना चाहते हैं. कई तरह की बीमारियों से जूझ रहे हैं. कुछ लोग आरजेडी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने का सपना देख रहे हैं. आरजेडी में चार-पांच लोग ऐसे हैं जो राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने का सपना देख रहे हैं. पिताजी को जेल से बाहर आए सालभर का वक्त हो चुका है्र मगर अभी तक उनको वहीं (दिल्ली) पर रोक कर रखा गया है. मेरे पिता (लालू) को पटना नहीं आने दे रहे हैं और उनको दिल्ली में बंधक बनाकर रखा गया है.


10. सोनिया-मेनका गांधी विवाद

भारतीय राजनीति में गांधी परिवार की तीसरी पीढ़ी सियासी मैदान में है. राहुल गांधी और वरुण गांधी आमने-सामने हैं. दोनों अलग-अलग पार्टियों और अलग-अलग विचारधारा के तौर पर पहचान बना चुके हैं. वरुण गांधी जब सिर्फ तीन महीने के थे, जब उनके पिता संजय गांधी का विमान हादसे में निधन हो गया था. संजय के निधन के बाद मेनका गांधी ने अपनी सास और पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का घर छोड़ा था. उस समय वरुण गांधी की उम्र महज दो साल की थी. वरुण जब चार साल के हुए तो उनकी दादी इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गई. वरुण का लालन-पालन उनकी मां मेनका गांधी ने किया. वहीं, राहुल गांधी पूर्व पीएम राजीव गांधी और सोनिया गांधी की पहली संतान हैं. राहुल अपने पिता और अपनी दादी के बेहद करीब थे. 14 साल की उम्र में राहुल ने दादी इंदिरा गांधी को खोया तो 21 के उम्र में अपने पिता राजीव गांधी को खो दिया था. 21 मई 1991 को एक चुनावी सभा में राजीव गांधी की हत्या हो गई थी.

कैसे एक परिवार दो ध्रुवों-दो पार्टियों में बंट गया? 

आखिर एक ही सियासी परिवार के दो ध्रुव कैसे बने? 28 मार्च 1982 की रात देश की सबसे बड़ी सियासी फैमिली दो ध्रुवों में बंट गई थी? जनवरी 1980 में इंदिरा गांधी फिर प्रधानमंत्री बनीं. दिसंबर 1980 में संजय गांधी की विमान हादसे में मौत के बाद सबकुछ बदल गया. मेनका की उम्र उस वक्‍त बमुश्किल 25 साल रही होगी. संजय की विरासत राजीव के हाथों में जा रही थी. इंदिरा और मेनका छोटी-छोटी बातों पर लड़ पड़ते थे. खुशवंत सिंह ने अपनी आत्‍मकथा में लिखा है कि 'अनबन इतनी बढ़ गई कि दोनों का एक छत के नीचे साथ रहना मुश्किल हो गया. 1982 में मेनका ने प्रधानमंत्री आवास छोड़ दिया.'

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क्या हुआ था उस रात, जब इंदिरा के आवास से निकलीं मेनका 

28 मार्च 1982 की रात... अचानक मेनका गांधी अपने दो साल के बेटे वरुण गांधी को गोद में लेकर इंदिरा गांधी का घर छोड़कर आधी रात को चली गई थीं. स्पेनिश लेखक जेवियर मोरो ने अपनी किताब The Red Sari में इसका जिक्र किया है. उन्होंने लिखा- 'दरअसल विमान हादसे में संजय गांधी के निधन के बाद राजनीति में रुचि ना रखने वाले राजीव गांधी को इंदिरा गांधी सियासत में आगे बढ़ा रही थीं जो कि संजय गांधी की पत्नी मेनका गांधी को बर्दाश्त नहीं था. पिछले कुछ महीने से मेनका इंदिरा के सामने कई बार अपनी नाखुशी का इजहार कर चुकी थीं. इस बीच, मेनका ने लखनऊ में अपने समर्थकों के साथ पब्लिक मीटिंग की. इंदिरा जब लंदन से लौटीं तो इसे लेकर नाराजगी जताई. 

सोनिया गांधी

'जब इंदिरा ने कहा- घर से निकल जाओ'

जेवियर मोरो की किताब के मुताबिक, इंदिरा ने मेनका से दो टूक कहा- इस घर से तुम तुरंत बाहर निकल जाओ. तुमसे कहा था कि लखनऊ में मत बोलना. पर तुमने अपनी मनमर्जी की. यहां से निकल जाओ, इसी क्षण यह घर छोड़ दो. जाओ अपनी मां के घर वापस. मेनका ने पूछा- मैंने ऐसा क्या किया है. फिर मेनका बोलीं कि मैं ये घर नहीं छोड़ना चाहती. इंदिरा का सख्त रुख देख मेनका ने कहा- मुझे सामान सेट करने के लिए कुछ समय चाहिए? इंदिरा आगबबूला थीं, उन्होंने साफ कहा- तुम्हारे पास काफी समय था, तुम जाओ यहां से. तुम्हारा सामान वगैरह भेज दिया जाएगा. यहां से तुम कोई भी सामान बाहर नहीं ले जाओगी.' दरअसल, ये बातचीत उस किताब को लेकर थी, जो मेनका संजय गांधी को लेकर लिख रहीं थीं और इंदिरा ने जिसके टाइटल, कंटेंट और फोटो को बदलने को कहा था. लेकिन मेनका ने अपने मुताबिक ही रखा था.

'राजीव के खिलाफ चुनावी मैदान में उतरी थीं मेनका'

जेवियर मोरो लिखते हैं- 'दो साल के फिरोज वरुण को बांहों में थामकर मेनका जब बाहर आईं तो रात के 11 बज चुके थे. गांधी परिवार दो ध्रुवों में बंट गया और सियासी फ्यूचर भी. मेनका गांधी ने अगले साल अकबर अहमद डंपी और संजय गांधी के अन्य पुराने साथियों के साथ मिलकर राष्‍ट्रीय संजय मंच नाम से पार्टी बना ली. फिर 1984 का लोकसभा चुनाव मेनका गांधी ने राजीव गांधी के खिलाफ अमेठी से निर्दलीय लड़ा लेकिन उन्हें हार का सामना करना पड़ा. इसके बाद 1988 में मेनका गांधी जनता दल में शामिल हो गईं. 1989 में पीलीभीत से जनता दल के टिकट पर चुनाव लड़ा और सांसद बनीं. 1991 का चुनाव मेनका पीलीभीत से जनता दल के टिकट पर हार गईं. इसके बाद 1996 में वो दूसरी बार पीलीभीत से चुनाव लड़ीं और जीत दर्ज की. 1998 में मेनका निर्दलीय चुनाव लड़ीं और फिर जीत दर्ज की.

 

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