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राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति उम्मीदवार चुनने में क्यों पीछे रही कांग्रेस? सोनिया गांधी की सूझबूझ है या सरेंडर

विपक्ष को एकजुट करने की बात हो या गुट को लीड करने की, कांग्रेस हमेशा अगुवा रही है. इस बार उसका व्यवहार बदला नजर आया. राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति चुनाव के लिए दावेदारों के नाम पर चर्चा करने के लिए जो बैठकें हुईं, उनमें विपक्षी दलों के सभी बड़े चेहरे मौजूद थे सिर्फ सोनिया गांधी और राहुल गांधी को छोड़कर. इनकी गैर मौजूदगी अब सियासी गलियारों में चर्चा का विषय बन गई है.

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सोनिया गांधी और राहुल विपक्षी दलों की बैठकों में नहीं हुए थे शामिल (फाइल फोटो)
सोनिया गांधी और राहुल विपक्षी दलों की बैठकों में नहीं हुए थे शामिल (फाइल फोटो)
स्टोरी हाइलाइट्स
  • राष्ट्रपति पद के लिए यशवंत सिन्हा विपक्ष के उम्मीदवार
  • उपराष्ट्रपति पद के लिए मार्गरेट अल्वा हैं प्रत्याशी

राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनाव के लिए प्रत्याशियों के नाम पर फैसला लेने के मामले में इस बार कांग्रेस सामने आने के बजाए गैर-एनडीए विपक्षी दलों के पीछे खड़ी नजर आई. सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने खुद सक्रिय होने के बजाए पार्टी नेता मल्लिकार्जुन खड़गे और जयराम रमेश के जिम्मेदारी सौंप रखी थी.

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ऐसे में जब शरद पवार, ममता बनर्जी और सीताराम येचुरी ने राष्ट्रपति पद के लिए यशवंत सिन्हा और उपराष्ट्रपति पद के लिए मार्गरेट अल्वा को उम्मीदवार बनाया तो कांग्रेस ने उस पर अपनी सहमति जता दी. इन सब के बीच यह सवाल उठ रहा है कि कांग्रेस का यह कदम सूझबूझ भरा था या फिर गैर-एनडीए विपक्षी दलों के सामने उसने सरेंडर कर दिया है.

मार्गरेट हों या यशवंत, दोनों ही रहे हैं कांग्रेस विरोधी

मार्गरेट अल्वा भले ही कांग्रेस की नेता हों, लेकिन शुरू से ही गांधी परिवार की आलोचक रही हैं. जुलाई 2016 में प्रकाशित उनके संस्मरण 'साहस और प्रतिबद्धता' ने एक तरह की सियासी हलचल पैदा कर दी थी.

उन्होंने कांग्रेस नेतृत्व पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से सवाल खड़े कर दिए थे. अल्वा ने अगस्ता वेस्टलैंड घोटाले के आरोपी क्रिश्चियन मिशेल के पिता वोल्फगैंग मिशेल से कांग्रेस कनेक्शन जोड़ दिया था. 

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विपक्षी खेमे से राष्ट्रपति के उम्मीदवार यशवंत सिन्हा का सियासी सफर ही कांग्रेस के विरोध से शुरू हुआ. जनता दल और बीजेपी जैसे कांग्रेस विरोधी दलों में लंबे समय तक रहे. यशवंत सिन्हा का इंदिरा, राजीव, सोनिया और राहुल गांधी का विरोध करने का एक लंबा और ठोस ट्रैक रिकॉर्ड है.

इसके बावजूद कांग्रेस ने दोनों ही कैंडिडेट का समर्थन करने का फैसला किया. कांग्रेस आज इस स्थिति में आ गई है कि उसे अपने धुरविरोधियों का भी समर्थन करना पड़ रहा है.  

अभी विरोध करने की स्थिति में नहीं है कांग्रेस

मौजूदा समय में कांग्रेस के सामने कई तरह के सियासी संकट खड़े हैं. एक तरफ कांग्रेस सियासी ग्राफ सिकुड़ता जा रहा है तो दूसरी तरफ सहयोगी दल भी उससे किनारा कर रहे हैं. ऐसे में कांग्रेस को विपक्षी एकता को बनाए रखने के लिए हाथ बढ़ाने की जरूरत थी.

इसके लिए राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव में कांग्रेस और गांधी परिवार को खुद विपक्षी खेमे को लीड करना चाहिए था लेकिन उसने सब कुछ शरद पवार, ममता बनर्जी और सीताराम येचुरी पर छोड़ दिया था. 

कांग्रेस ने विपक्षी दल के नेताओं के फैसले के साथ मजबूती से खड़ी नजर आई. कांग्रेस ने अपने धुरविरोधी रहे नेताओं को भी समर्थन करने से गुरेज नहीं किया ताकि यह संदेश न जाए कि सहयोगी दलों के फैसले से कांग्रेस खुश नहीं है.

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वहीं, दूसरा कारण यह माना जा रहा है कि कांग्रेस अभी विरोध करने की ही स्थिति में नहीं है. यही वजह है कि गांधी परिवार के साथ-साथ खड़गे और जयराम भी पवार-ममता-येचुरी के फैसले का विरोध करने की साहस नहीं जुटा सके. 

अल्वा की सास भी थीं उपराष्ट्रपति पद की दावेदार लेकिन...

दिलचस्प बात यह है कि मार्गरेट अल्वा की सास वायलेट एक स्वतंत्रता सेनानी और 1969 में राज्यसभा की डिप्टी चेयरपर्सन, उपराष्ट्रपति चुनाव की उम्मीदवार थीं. राष्ट्रपति जाकिर हुसैन की जब मृत्यु हो गई थी और मौजूदा उपाध्यक्ष वीवी गिरी को उपराष्ट्रपति चुनाव की आवश्यकता के कारण पदोन्नत किया गया था.

इंदिरा गांधी ने कथित तौर पर पूर्व केंद्रीय मंत्री और राज्यपाल जीएस पाठक को मैदान में उतारने के वायलेट के दावे को खारिज कर दिया था. बमुश्किल चार महीने बाद वायलेट ने नवंबर 1969 में राज्यसभा के उपसभापति पद से इस्तीफा दे दिया और पांच दिन बाद ही उनका निधन हो गया था. 

अल्वा ने कांग्रेस पर लगाया था टिकट बेचने का आरोप

1978 में जब कांग्रेस का विभाजन हुआ तब अल्वा ने देवराज और शरद पवार के साथ हाथ मिलाने के लिए इंदिरा गांधी के गुट को छोड़ दिया था. हालांकि, बाद में वह कांग्रेस लौट आईं और उन्हें राजीव गांधी सरकार में मंत्री की जिम्मेदारी दी गई.

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2008 में जब यूपीए सत्ता में थी तो उन्होंने पार्टी की कर्नाटक इकाई पर 'विधानसभा के टिकट बेचने' का आरोप लगाया था. एक ऐसा आरोप जो नेतृत्व को पसंद नहीं आया. मार्गरेट अल्वा गांधी परिवार का खुलकर विरोध करती थीं. 

सोनिया पर अल्वा ने कई बार लगाए गंभीर आरोप

- राज्यसभा उम्मीदवारी का मामला: 1992 में राज्यसभा के लिए अल्वा की उम्मीदवारी ने तत्कालीन प्रधान मंत्री पीवी नरसिम्हा राव और राजीव गांधी के बीच रिश्ते बिगड़ गए थे. नरसिम्हा राव ने जनवरी 1992 में मार्गरेट अल्वा के चलते सोनिया के निजी सचिव विंसेंट जॉर्ज के लिए राज्यसभा के नामांकन से इनकार कर दिया था.

सोनिया गांधी की ओर से न तो जॉर्ज के पक्ष में और न ही विरोध में कोई शब्द था. जब नरसिम्हा राव रूस के लिए जा रहे थे, तो उन्होंने सोनिया को यह पूछने के लिए बुलाया कि क्या वह चाहती हैं कि जॉर्ज उच्च सदन में भेजा जाए. 

सोनिया ने स्पष्ट कर दिया कि यदि पार्टी जॉर्ज को टिकट देना चाहती है, तो निर्णय योग्यता और राजनीतिक विचारों को ध्यान में रखते हुए होना चाहिए. राव यह बात समझ गए. जब विदेश से उम्मीदवारों की सूची फैक्स की गई तो जॉर्ज को टिकट से वंचित कर दिया गया और सूची में अल्वा का नाम था.

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इसका सीधा संदेश सोनिया गांधी के खिलाफ गया था. मार्गरेट अल्वा ने सोनिया गांधी पर मनमाने ढ़ंग से पार्टी चलाने का आरोप लगाया और दावा किया कि मनमोहन सिंह अपने मंत्रिमंडल में उन्हें शामिल करना चाहते हैं, लेकिन सोनिया ने वीटो लगा दिया था. 

- 10 जनपथ आवास का मामला: अल्वा ने अपने संस्मरण में बोफोर्स मामले का भी जिक्र किया था. नरसिम्हा राव सरकार ने बोफोर्स मामले में शिकायतों को खारिज करने के दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ अपील की थी तो सोनिया ने कहा था कि प्रधानमंत्री क्या करना चाहते हैं? मुझे जेल भेज दो?

इसके बाद अल्वा ने सोनिया को यह कहते हुए उद्धृत किया, 'कांग्रेस सरकार (राव शासन) ने मेरे लिए क्या किया है? यह घर (10 जनपथ) मुझे चंद्रशेखर सरकार ने आवंटित किया था. इससे साफ होता है कि मार्गरेट अल्वा और सोनिया गांधी के बीच किस तरह के रिश्ते रहे हैं. इसके बावजूद कांग्रेस ने उपराष्ट्रपति के चुनाव में उन्हें समर्थन करने का फैसला किया है.

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