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कौन हैं पसमांदा-बोहरा मुस्लिम? इन्हें BJP के साथ क्यों लाना चाहते हैं PM मोदी

लोकसभा चुनाव को लेकर बीजेपी ने अपनी तैयारी शुरू कर दी है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में एक बार फिर से पसमांदा मुस्लिम और बोहरा समुदाय के साथ मेल-मिलाप करने के लिए जोर दिया है. पीएम ने कहा कि कोई हमें वोट दे या ना दें लेकिन सबसे संपर्क बनाएं. ऐसे में सवाल उठता है कि पसमांदा और बोहरा मुस्लिम कौन हैं?

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बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में पीएम नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा
बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में पीएम नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा

भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के अंतिम दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2024 लोकसभा चुनाव का एजेंडा साफ कर दिया है. उन्होंने कहा कि चुनाव में 400 दिन बचे हैं, ऐसे में सामाजिक समरसता के लिए हर गांव में हर एक मतदाता तक पहुंचना होगा. पीएम मोदी ने बीजेपी नेताओं को नसीहत देते हुए कहा कि मुस्लिमों को लेकर गलत बयानबाजी नहीं करें. साथ ही मोदी ने कार्यकर्ताओं से पसमांदा मुसलमानों, बोहरा मुस्लिमों तक पहुंच बनाने के लिए कहा. पीएम ने कहा कि कोई हमें वोट दे या ना दें लेकिन सबसे संपर्क बनाएं. 

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बता दें कि नरेंद्र मोदी ने पहली बार पसमांदा मुसलमानों को पार्टी से जोड़ने पर जोर नहीं दिया बल्कि गुजरात में सीएम पद पर रहते हुए ही उन्होंने मुस्लिम वोटबैंक के बीच अपनी पैठ जमाने की कोशिश शुरू कर दी थी. उन्होंने पूरे मुस्लिम समाज को जोड़ने के बजाय पसमांदा और बोहरा मुस्लिमों पर फोकस किया था. इस रणनीति में बीजेपी को गुजरात में फायदा भी हुआ था और सीएम से पीएम बनकर दिल्ली आए तो भी मोदी ने मुस्लमानों को इसी तबके को साथ लेने पर जोर देते रहे. 

दिल्ली से पहले हैदराबाद में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के दौरान पीएम मोदी ने मुसमलानों के पिछड़े माने जाने वाले पसमांदा मुसलमान को पार्टी से जोड़ने का मंत्र दिया था. वहीं, अब पसमांदा मुस्लिमों के साथ-साथ बोहरा मुसलमानों को भी शामिल किया है और उन्हें पार्टी से जोड़ने पर जोर दिया. ऐसे में हम बताते हैं कि बोहरा और पसमांदा मुस्लिम कौन हैं और क्यों बीजेपी उन्हें अपने करीब लाना चाहती है? 

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पसमांदा-बोहरा मुस्लिम पर क्यों जोर

मुसलमानों में पसमांदा मुस्लिम सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक-शैक्षणिक रूप से काफी पिछड़े हैं जबकि बोहरा मुस्लिम काफी समृद्ध संभ्रांत और पढ़ा-लिखे माने जाते हैं. मोदी ने गुजरात में व्यापारियों की सुविधा के हिसाब से नीतियां बनाईं जो बोहरा समुदाय के उनके साथ आने की बड़ी वजह बनीं थीं जबकि पसमांदा मुस्लिम को जनकल्याण की योजनाओं का लाभ देकर जोड़ने की कवायद की है. 

गुजरात में सीएम रहते हुए भी बोहरा मुस्लिम मोदी के साथ खड़ा था और आज जब मोदी पीएम पद पर हैं तो भी ये तबका उनके करीब है, लेकिन गुजरात से बाहर के राज्यों में बोहरा समाज अभी भी बीजेपी के साथ नहीं जुड़ सका है. 2024 के लोकसभा चुनाव में अपनी सोशल इंजीनियरिंग को मजबूत करने की कड़ी में पीएम मोदी ने बोहरा समुदाय और पसमांदा मुसमलानों के साथ मेल-मुलाकात करने की बात कही है. 

कौन है बोहरा मुस्लिम
'बोहरा' गुजराती शब्द 'वहौराउ' अर्थात 'व्यापार' का अपभ्रंश है. ये मुस्ताली मत का हिस्सा हैं जो 11वीं शताब्दी में उत्तरी मिस्र से धर्म प्रचारकों के माध्यम से भारत में आए थे. बोहरा समुदाय की विरासत फातिमी इमामों से जुड़ी है, जिन्हें पैगंबर हजरत मोहम्मद (570-632) का वंशज माना जाता है. यह समुदाय मुख्य रूप से इमामों के प्रति ही अपना अकीदा (श्रद्धा) रखता है, इमाम तैय्यब अबुल कासिम के बाद 1132 से आध्यात्मिक गुरुओं को सैय्यदना कहा जाता है. 

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भारत में करीब 20 लाख से ज्यादा बोहरा समुदाय के लोग हैं. मुस्लिम समाज मुख्य रूप से दो हिस्सों में शिया-सुन्नी में बंटा हुआ है. बोहरा समुदाय शिया और सुन्नी दोनों में होते हैं. सुन्नी बोहरा हनफी इस्लामिक कानून को मानते हैं तो दाउदी बोहरा मान्यताओं में शिया समाज से मिलती जुलती है. बोहरा समाज सूफियों और मजारों पर खास विश्वास रखता है और इस्माइली शिया समुदाय का उप-समुदाय है. यह अपनी प्राचीन परंपराओं से पूरी तरह जुड़ी कौम है, जिनमें सिर्फ अपने ही समाज में ही शादी करना शामिल है.  

दाऊदी और सुलेमानी बोहरों के धार्मिक सिद्धांतों में कोई खास बुनियादी फर्क नहीं है. दोनों समुदाय सूफियों और मजारों पर खास आस्था रखते हैं. सुलेमानी जिन्हें सुन्नी बोहरा भी कहा जाता हैं, हनफी इस्लामिक क़ानून पर अमल करते हैं, जबकि दाऊदी बोहरा समुदाय इस्माइली शिया समुदाय का उप-समुदाय हैं और दाईम-उल-इस्लाम के कायदों को अमल में लाता है. 

बोहरा समुदाय 1539 में अपना मुख्यालय यमन से भारत में सिद्धपुर ले आया. साल 1588 में दाऊद बिन कुतब शाह और सुलेमान के अनुयायियों के बीच विभाजन हो गया. सुलेमानियों के प्रमुख यमन में रहते हैं तो दाऊदी बोहराओं का मुख्यालय मुंबई में है. बोहरा समुदाय के 53वें धर्मगुरु सैयदना मुफद्दल सैफुद्दीन मुंबई में रहते हैं. साल 2018 में पीएम मोदी दाऊदी बोहरा मुस्लिम समुदाय के 53वें धर्मगुरु सैयदना मुफद्दल सैफुद्दीन के वाअज (प्रवचन) में शामिल हुए थे. 

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मोदी के कैसे करीब आए बोहरा मुस्लिम
बोहरा समाज के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ था जब किसी प्रधानमंत्री ने उनके धार्मिक कार्यक्रम में शिरकत की. इससे बोहरा समुदाय और नरेंद्र मोदी के बीच के रिश्ते को बखूबी समझा जा सकता है. हालांकि, गुजरात में साल 2022 में हुए दंगे के दौरान बोहरा समुदाय के घर और दुकानें भी जलीं थीं, जिससे काफी नुकसान हुआ था. इसके चलते ही बोहरा समाज ने बीजेपी का विरोध किया था, लेकिन बाद में मोदी ने गुजरात में व्यापारियों की सुविधाओं के हिसाब से नीतियां बनाईं तो बोहरा समुदाय को उनके साथ आने मौका मिला.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का बार-बार बोहरा मुस्लिम समुदाय के सैय्यदना से मिलना भी इस समुदाय को मोदी और बीजेपी के करीब लाया. दाऊदी बोहरा समुदाय की पहचान काफी समृद्ध, संभ्रांत, पढ़े-लिखे समुदाय के तौर पर होती है. बोहरा समाज के ज्यादातर लोग व्यापारी हैं. कारोबारी बोहरा समुदाय पीएम मोदी को अपना समर्थन देता रहा है. मोदी ने बोहरा समुदाय के के साथ रिश्ते को बनाए रखा. 

भारत में दाऊदी बोहरा बड़ी संख्या में हैं, जो मुख्यत गुजरात में सूरत, अहमदाबाद, बडोदरा, जामनगर, राजकोट, नवसारी, दाहोद, गोधरा, महाराष्ट्र में मुंबई, पुणे, नागपुर,  राजस्थान में उदयपुर, भीलवाड़ा, मध्य प्रदेश में इंदौर, बुरहानपुर, उज्जैन, शाजापुर के अलावा कोलकाता, चेन्नई, बेंगलुरू और हैदराबाद जैसे महानगरों में अच्छी खासी तादाद में रहते हैं. पीएम मोदी इन्हीं बोहरा समुदाय के लोगों से बीजेपी नेताओं और कार्यकर्ताओं से संपर्क करने के लिए कह रहे हैं, क्योंकि यह कारोबारी तबका है और आसानी से जुड़ सकता है. 

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पसमांदा मुस्लिम कौन है?

मुसलमानों के पिछड़े वर्ग को पसमांदा मुस्लिम कहा जाता है. देश में मुसलमानों की कुल आबादी के 85 फीसदी को पसमांदा कहा जाता है, यानि वो मुस्लिम जो दबे हुए हैं, इसमें दलित और बैकवर्ड मुस्लिम आते हैं. हिंदुओं की तरह भारतीय मुस्लिमों में भी जातीय व्यवस्था है. मुस्लिमों के उच्च वर्ग या सवर्ण को अशरफ कहते हैं, लेकिन इसके अलावा ओबीसी और दलित मुस्लिम हैं, उन्हें पसमांदा कहा जाता है. पसमांदा मूल तौर पर फारसी का शब्द है, जिसका मतलब होता है, वो लोग जो सामाजिक, आर्थिक रूप से पिछड़े हैं. 

मुस्लिम समुदाय में पसमांदा मुस्लिमों की संख्या करीब 85 प्रतिशत बताई जाती है जबकि 15 प्रतिशत में सैयद, शेख, पठान जैसे उच्च जाति के मुसलमान हैं. अगड़े मुसलमान सामाजिक और आर्थिक तौर पर ये मजबूत हैं और सभी सियासी दलों में इन्हीं का वर्चस्व रहा है जबकि पसमांदा समाज सियासी तौर पर हाशिए पर ही रहा है. पीएम मोदी इन्हीं मुसलमानों को पार्टी से जोड़ने के लिए जोर दे रहे हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि पूरे मुसलमानों के बजाय इन्हें जोड़ना आसान है. पसमांदा मुस्लिमों को सरकार की जनकल्याणा योजनाओं का लाभ देकर आसानी से पार्टी के करीब लाया जा सकता है. 
 
मुसलमानों के ओबीसी तबके को पसमांदा मुस्लिम कहा जाता है. इसमें कुंजड़े (राईन), जुलाहे (अंसारी), धुनिया (मंसूरी), कसाई चिकवा, कस्साब (कुरैशी), फकीर (अलवी), नाई (सलमानी), मेहतर (हलालखोर), ग्वाला (घोसी), धोबी, गद्दी, लोहार-बढ़ई (सैफी), मनिहार (सिद्दीकी), दर्जी (इदरीसी), वन-गुज्जर,गुर्जर, बंजारा, मेवाती, गद्दी, मलिक गाढ़े, जाट, अलवी, जैसी जातियां हैं. इस तरह से पसमांदा मुस्लिम तमाम जातियों में बंटा हुआ है. पीएम मोदी इन्हीं पसमांदा मुस्लिमों को बीजेपी से जोड़ने पर जोर दे रहे हैं. 

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बीजेपी कैसे पसमांदा मुस्लिम को जोड़ रही

बीजेपी नेता और राष्ट्रवादी मुस्लिम पसमांदा महाज के अध्यक्ष आतिफ रशीद कहते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मुसलमानों के उस तबके को समाजिक तौर पर उठाने की बात कर रहे हैं, जो सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक रूप से पिछड़े हैं. बीजेपी सरकार के द्वारा चलाई जा रही जनकल्याणकारी योजनाओं का लाभ पसमांदा मुस्लिमों को दिया जा रहा है. पसमांदा समाज के साथ पहली बार किसी सरकार या पार्टी ने इस तरह से संवाद करने के लिए कहा, जैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं से कहा है. पीएम मोदी की इस पहल को पसमांदा मुस्लिम अपनी राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक भागीदारी बढ़ाने के लिहाज से देखे, क्योंकि तीनों ही क्षेत्र में यह पिछड़े हैं. 

वहीं, ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज के प्रमुख अली अनवर अंसारी बीजेपी के आतिफ रशीद के इस दावे को सिरे से खारिज कहते हैं. वह कहते हैं कि बीजेपी मुसलमानों को बांटकर उसके एक हिस्से को अपने साथ लाना चाहती है. पसमांदा मुसलमान हिंदू और मुस्लिम सांप्रदायिकता से काफी पहले से लड़ता आ रहा है. 1940 के ज़माने से लेकर जिन्ना के दो राष्ट्र के सिद्धांत और सावरकर के हिंदू राष्ट्र की विभाजनकारी राजनीति तक से वह लड़ता आ रहा है. वह बीजेपी के इस छलावे में नहीं आने वाला. बीजेपी एक तरफ तो हिंदू समुदाय की तमाम जातियों को हिंदुत्व की छतरी के नीचे एक साथ लाना चाहती है जबकि मुस्लमानों को जातियों के नाम पर विभाजित करना चाहती है.

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बता दें कि बीजेपी मुस्लिमों को जोड़ने के लिए कई तरह के सियासी प्रयोग कर चुकी है, लेकिन अभी तक उसे सफलता नहीं मिली है. मुस्लिम समुदाय का वोट बैंक मोटे तौर पर बीजेपी से दूर ही रहा. इसके बावजूद बीजेपी ने उन्हें पार्टी से जोड़ने की उम्मीद नहीं छोड़ी. ऐसे में बीजेपी ने जिस तरह से हिंदू वोटों में दलित और पिछड़ों को जोड़कर अपनी सोशल इंजीनियरिंग को मजबूत किया है, उसी तर्ज पर मुस्लिम के ओबीसी समुदाय को भी जोड़ने की दिशा में कदम बढ़ाया है.

 

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