चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर और कांग्रेस के बीच जुगलबंदी फिर से शुरू हो गई है, लेकिन ये इस साल के अंत में होने वाले गुजरात विधानसभा चुनावों के बारे में नहीं है. पहले खबरें आई थीं कि जब तक उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, मणिपुर और गोवा के चुनावी नतीजे नहीं आ जाते कांग्रेस में प्रशांत किशोर की एंट्री पर आलाकमान ने पॉज बटन दबा दिया है.
लेकिन इन विधानसभा चुनावों के नतीजों ने कानाफूसी, सुगबुगाहट और डिरेल की कोशिश के बावजूद दोनों पक्षों को एक बार फिर बातचीत की मेज पर ला दिया है.
पता चला है कि प्रशांत किशोर 2024 से पहले किसी भी राज्य के विधानसभा चुनाव (गुजरात, कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश) के मैनेजमेंट में कोई दिलचस्पी नहीं रख रहे हैं. पीके अब कांग्रेस में एक राजनेता के रूप में पूर्णकालिक भूमिका की तलाश में हैं. इसके बाद वे 2024 के लोकसभा चुनावों के कांग्रेस को तैयार करना चाहते हैं. दरअसल प्रशांत किशोर के राजनीतिक संपर्क पार्टी लाइन से परे जाते हैं. ममता बनर्जी, शरद पवार, एम के स्टालिन, उद्धव ठाकरे, अखिलेश यादव, के. चंद्रशेखर राव, हेमंत सोरेन, जगन मोहन रेड्डी से उनकी नजदीकियां जगजाहिर हैं.
...तब तक मोदी को बाहर करने की कोशिश कामयाब नहीं होगी
भारत में चुनावों की नब्ज पकड़ने में माहिर पीके का दृढ़ मत है कि जब तक; राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, उत्तराखंड, हिमाचल, महाराष्ट्र, असम, हरियाणा, झारखंड आदि राज्यों में जहां बीजेपी का कांग्रेस से सीधा मुकाबला है, इन राज्यों में कांग्रेस बीजेपी को हराना शुरू नहीं करती है तब तक नरेंद्र मोदी को सरकार से बाहर करने के लिए किया गया विपक्ष का संयुक्त प्रयास फलीभूत नहीं हो सकता है. कांग्रेस को 200 से अधिक लोकसभा सीटों को प्राथमिकता देने की जरूरत है जहां पार्टी का सीधा मुकाबला भाजपा से है.
...फिर विपक्ष की उम्मीदें आशाजनक हो जाएंगी
2014 से कांग्रेस इन राज्यों में 90 फीसदी सीटें हारती जा रही है. पीके की प्लानिंग के अनुसार इस नुकसान को 50 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है, या कहें कि कांग्रेस हर दो सीट में एक जीतना शुरू कर देती है, तो विपक्ष की कहानी में दम नजर आने लगेगा, उनकी उम्मीदें आशाजनक हो जाएंगी.
ताकतवर व्यक्ति को सामने नहीं रख पाता गांधी कुनबा
सियासत का तकाजा ये है कि वर्ष 2016 से ही गांधी और पीके कथित तौर पर एक दूसरे के नजदीकी संपर्क में हैं, साथ ही एक दूसरे में दोनों की रूचि भी कम नहीं हुई है. प्रशांत किशोर को देश की ग्रांड ओल्ड पार्टी में शामिल करने से जुड़ी दो बड़ी दिक्कतें हैं. सबसे पहले तो ये है कि गांधी कुनबे को ताकतवर व्यक्ति को अपने पाले में लेकर सामने रखने की आदत नहीं है. बंगाल और अन्य जगहों पर प्रशांत किशोर की चुनावी सफलता ने उन्हें एक रुतबा दिया है, एक ऊंचाई दी है. वे तोल-मोल करने की स्थिति में हैं. और यही बात कांग्रेस के संगठन में मौजूद कुछ गैर गांधी नेताओं को जंच नहीं रही है.
पीके की एंट्री में दूसरा बड़ा बिंदु कांग्रेस में सुधारों की गति के बारे में है. जानकार सूत्र बताते हैं कि जहां गांधी कुनबा पार्टी में चरणबद्ध सुधार चाहता है, वहीं किशोर कथित तौर पर पार्टी की कार्य संस्कृति में व्यापक 'परिवर्तन' चाहते हैं. इसके लिए दोनों पक्षों के अपने-अपने तर्क हैं. हाल के चुनावी पराजय के मद्देनजर गांधी परिवार कथित तौर पर पदानुक्रम (Hierarchy), चुनाव प्रबंधन, फंड संग्रह, प्रशिक्षण, सोशल मीडिया नीति, वैचारिक निष्ठा, जवाबदेही, पारदर्शिता, गठबंधन वार्ता (Alliance negotiations) आदि में तुरंत बदलाव को लेकर अनिच्छुक दिखता है और इसे लेकर अपनी हिचकिचाहट भी जाहिर करता है. जबकि प्रशांत किशोर मानते हैं कि कठिन परिस्थितियां ही वो सर्वोत्तम मौका होती हैं जब संगठन में आमूल-चूल परिवर्तन किया जाना चाहिए.
G-23 पीके को लेकर पॉजिटिव है
गांधी परिवार में कथित तौर पर प्रशांत किशोर के बारे में सकारात्मक भावनाएं हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि उनके शामिल होने से G-23 असंतुष्टों के साथ चल रहे युद्ध का अंत हो जाएगा. कांग्रेस में नेतृत्व परिवर्तन की मुहिम चलाने वाले G-23 के अधिकांश नेता प्रशांत किशोर और बदलाव के लिए उनके जोर का सम्मान करते हैं. इधर प्रशांत किशोर ने जानबूझकर भी खुद को पार्टी के भीतर के झगड़े से दूर रखा है.
सोनिया से बातचीत हुई मगर...
सितंबर-अक्टूबर 2021 में सोनिया गांधी के साथ अपनी पिछली बातचीत में प्रशांत किशोर ने कथित तौर पर कांग्रेस संगठन में जबरदस्त बदलाव के विषय पर चर्चा की थी. इसके अलावा दोनों नेताओं के बीच टिकट बंटवारे के तरीके, चुनावी गठबंधन, फंड जमा करने के मुद्दे पर बात हुई थी. लेकिन तब तक विधानसभा चुनाव आ गए. इसके अलावा पार्टी को कभी कामयाब रहे मगर अब पिट चुके वर्किंग स्टाइल Let things cool down (चीजों को ठंडा होने दो) पर भी जरूरत से ज्यादा भरोसा था जिसके कारण बातचीत को रोक दिया गया था.
फिलहाल कांग्रेस-पीके की वार्ता का भाग्य अधर में लटक हुआ है. जानकार और उच्च पदस्थ सूत्रों का कहना है कि इस वार्ता में प्रगति की पूरी संभावना है, अगर कांग्रेस, जिसे अक्सर यथास्थितिवादी और परिवर्तन से एलर्जिक माना जाता है, स्वयं को नया रूप और आकार देने की अनुमति देगी.