राष्ट्रपति चुनाव को लेकर एनडीए के खिलाफ विपक्ष की ओर से साझा उम्मीदवार उतारने के लिए पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने विपक्षी दलों के साथ बैठक की. ममता ने करीब 22 विपक्षी दलों के नेताओं को न्योता भेजा था, लेकिन असदुद्दीन ओवैसी की ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन को आमंत्रित नहीं किया. हालांकि, यह पहली बार नहीं है कि जब ओवैसी को विपक्षी एकता से दूर रखा गया है बल्कि मोदी के खिलाफ गठबंधन की कोशिश हो या फिर राज्य स्तर पर बीजेपी को रोकने की कवायद. विपक्ष एकजुटता की कोशिश में ओवैसी को कभी सियासी तरजीह नहीं दी गई. ऐसे में सवाल उठता है कि विपक्षी दलों के लिए ओवैसी क्यों 'अछूत' बन गए हैं?
एआईएमआईएम के दो लोकसभा सदस्य और 14 विधायक हैं. सांसद तेलंगाना और महाराष्ट्र से एक-एक हैं. ओवैसी की पार्टी के 14 विधायक हैं, जिनमें तेलंगाना में सात, बिहार में पांच और महाराष्ट्र में दो हैं. इसके बावजूद राष्ट्रपति चुनाव को लेकर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की ओर से बुलाई गई बैठक में एआईएमआईएम अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी को बुलाया ही नहीं गया.
वहीं, दूसरी ओर ममता बनर्जी ने विपक्ष के ऐसे दलों के नेताओं को बुलाया था जिनके पास एक भी विधायक नहीं है. फारुक अब्दुल्ला की नेशनल कॉफ्रेंस के पास तीन सांसद है, लेकिन विधायक नहीं है. महबूबा मुफ्ती की पार्टी पीडीपी के पास न तो विधायक है और न ही सांसद. इसके बाद भी ममता बनर्जी ने महबूबा मुफ्ती को महज बुलाया ही नहीं बल्कि अपनी बगल की सीट पर उन्हें बैठाया. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर क्या वजह रही कि ममता ने विपक्षी दलों के बैठक में ओवैसी को नहीं बुलाया?
ममता ने AIMIM को कहा था बीजेपी की B टीम
दरअसल, असदुद्दीन ओवैसी राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पार्टी का विस्तार करने में जुटे हैं. ऐसे में देश के अलग-अलग राज्यों में ओवैसी की पार्टी स्थानीय निकाय चुनाव से लेकर विधानसभा तक में किस्मत आजमा रही है. इसी कड़ी में ओवैसी ने पिछले साल पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी के खिलाफ चुनावी मैदान में उतरे थे. ममता ने उस दौरान ओवैसी की पार्टी को बीजेपी की बी टीम कहा था.
टीएमसी और ममता की ओर से ओवैसी पर कई संगीन आरोप भी लगाए गए थे. यहां तक कहा गया था कि ओवैसी की पार्टी ने बंगाल में ममता के खिलाफ मुस्लिम वोट को बांटने के लिए बीजेपी से रुपए लिए हैं. ऐसे में दोनों के बीच कटुता यहां तक बढ़ गई थी कि ओवैसी को मुर्शिदाबाद में जनसभा करने की इजाजत भी ममता प्रशासन ने नहीं दी थी. इतना ही नहीं ममता ने राष्ट्रपति चुनाव को लेकर तमाम विपक्षी दलों को बैठकमें बुलाया तो ओवैसी को आमंत्रण नहीं दिया.
हालांकि, अभी तक आधिकारिक तौर पर टीएमसी की ओर से असदुद्दीन ओवैसी को विपक्षी बैठक में ना बुलाने की वजह का खुलासा नहीं किया गया है. टीएमसी अभी भी इस मुद्दे पर खुलकर नहीं बोल रही. टीएमसी के एक वरिष्ठ सांसद के मुताबिक, ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम का राष्ट्रपति चुनाव में वोट शेयर बहुत कम है. ऐसे में राष्ट्रपति चुनाव के मद्देनजर ओवैसी को बुलाने का कोई मतलब नहीं बनता था.
टीएमसी भले ही AIMIM के कम वोट की वैल्यू को तर्क दे रही हो, उस लिहाज से फारुख अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती की पार्टी को बुलाने का कोई औचित्य नहीं रह जाता है. महबूबा मुफ्ती के पास तो कई वोट ही नहीं है. साथ ही ममता बनर्जी ने अपनी धुर विरोधी वामपंथी दलों को भी बुलाया था, जो बंगाल में उनकी मुख्य विरोधी है. ऐसे में ओवैसी को नहीं बुलाने का मकसद AIMIM का वैल्यू वोट तो कतई नहीं है. ऐसे में ओवैसी को विपक्षी दलों की बैठक में न बुलाए जाने की वजह सियासी तौर पर कुछ और ही मानी जा रही है.
बता दें कि असदुद्दीन ओवैसी 2014 के बाद से अपना सियासी आधार देश भर में बढ़ाने में जुटे हैं, जिसके लिए अलग-अलग राज्यों में चुनावी किस्मत भी आजमा रहे हैं. ओवैसी के चुनावी मैदान में उतरने से कई तथाकथित सेकुलर दलों का सियासी समीकरण बिगड़ जाता है. इसकी वजह ये है कि ओवीसी की नजर उसी मुस्लिम वोट बैंक पर जिनके सहारे टीएमसी, सपा, कांग्रेस, आरजेडी जैसे दल अपनी सियासी बिसात को मजबूत बनाते हैं. ऐसे में ये तमाम सेकुलर दल सियासी तौर पर ओवैसी की फलने फूलने नहीं देना चाहते हैं.
जिन दलों से छत्तीस का आंकड़ा वो बैठक में पहुंचे
ममता बनर्जी ने बुधवार को विपक्षी बैठक में ऐसे कई दलों को बुलाया था, जिनका ओवैसी के साथ छत्तीस का आंकड़ा है. सपा प्रमुख अखिलेश यादव से लेकर आरजेडी, कांग्रेस, एनसीपी, जेएमएम नेताओं को ममता ने बुलाया था. ऐसे में ये दल ओवैसी को बुलाने के पक्ष में रजामंद नहीं थे. ममता बनर्जी की असदुद्दीन ओवैसी के साथ सियासी दुश्मनी बंगाल चुनाव से जगजाहिर हो चुकी है. ऐसे में ममता बनर्जी से लेकर अखिलेश यादव तक ओवैसी को बीजेपी की बी-टीम बता रहे हैं तो कैसे उन्हें एनडीए के खिलाफ साझा उम्मीदवार उतारने के लिए निमंत्रण देते.
असदुद्दीन ओवैसी बिहार और यूपी तक में बीजेपी को रोकने के लिए गठबंधन की गुहार लगाते रहे, लेकिन न तो बिहार में आरजेडी ने हाथ मिलाया और न ही यूपी में सपा-बसपा ने. इतना ही नहीं पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी से गठबंधन के लिए ओवैसी ने न्योता भेजा था, लेकिन ममता बनर्जी ने हाथ मिलाने से इनकार कर दिया था. बंगाल और यूपी में ओवैसी के अकेले चुनाव लड़ने का जादू भले ही चला हो, लेकिन बिहार में आरजेडी के खिलाफ चुनाव मैदान में उतरकर AIMIM पांच सीटें जीतने में कामयाब रही थी. इसके चलते आरजेडी बिहार की सत्ता में नहीं आ सकी थी तो यूपी में अखिलेश यादव ने ओवैसी के दूरी बनाए रखा था.
दूसरे सियासी दल क्यों नहीं देते भाव?
देश की राजनीति बहुसंख्यक समाज केंद्रित राजनीति हो गई है और इस फॉर्मूला के जरिए बीजेपी लगातार चुनाव जीत रही है. असदुद्दीन ओवैसी की सियासत मुस्लिम केंद्रित है. ऐसे में मुस्लिम वोटों पर सियासत करने वाले कोई भी दल ओवैसी को आगे नहीं बढ़ने देना चाहते, क्योंकि उससे उनकी राजनीति पर असर पड़ने का डर है. हैदराबाद से बाहर ओवैसी ने जहां भी सियासी जगह बनाई है, वहां खुद की राजनीति के दम पर नहीं बल्कि किसी न किसी दल के सहारे जीत दर्ज की है. महाराष्ट्र में प्रकाश अंबेडकर के साथ गठबंधन कर जीत दर्ज की और बिहार में उपेंद्र कुशवाहा के सहारे. ऐसे ही गुजरात में भारतीय ट्राइबल पार्टी के साथ हाथ मिलाकर पार्षद की सीटें जीते हैं. ऐसे में कोई भी राजनीति दल उन्हें भाव नहीं देना चाहते हैं.