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हक की लड़ाई पर भारी पड़ा सियासी स्वार्थ, पंजाब से लेकर UP तक कैसे बिखरे किसान संगठन

कृषि कानून पर मोदी सरकार को पीछे हटने पर मजबूर करने वाले किसानों की एकता अब पूरी तरह से बिखर गई है. यूपी में भारतीय किसान यूनियन के दो फाड़ हो गए हैं तो पंजाब में चुनाव लड़कर किसान संगठन पहले ही अपनी विश्वनीयता गवां चुके हैं. हरियाणा में गुरनाम सिंह चढूनी के चलते भारतीय किसान यूनियन कमजोर हुआ है और तीन भागों में बंट गया है.

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किसान नेता राकेश टिकैत
किसान नेता राकेश टिकैत
स्टोरी हाइलाइट्स
  • पंजाब चुनाव में मिली हार से किसान संगठन हुए कमजोर
  • टिकैत के करीबी नेताओं ने अलग बनाया अपना संगठन
  • हरियाणा में गुरनाम चढूनी से होकर बने तीन किसान संगठन

भारतीय किसान यूनियन के दो फाड़ होने के बाद उत्तर प्रदेश में टिकैत बंधुओं को बड़ा झटका लगा है. टिकैत के साथ सालों से काम कर रहे लोगों ने भाकियू अराजनैतिक नाम से अलग संगठन बना लिया है. इससे यूपी में जहां किसान एकता में फूट पड़ गई है. वहीं, पंजाब से लेकर हरियाणा तक इन दिनों किसान संगठन पूरी तरह बिखरे हुए नजर आ रहे हैं जबकि किसान आंदोलन के दौरान इन्हीं तीनों राज्यों के किसानों ने मिलकर कृषि कानून पर मोदी सरकार को झुकने के लिए मजबूर कर दिया था. ऐसे में अब किसान एकता के कमजोरी का किसान आंदोलन पर भी असर पड़ेगा? 

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किसान आंदोलन की कामयाबी के बाद सियासी जमीन की तलाशने में जुटे किसान नेता गुरनाम सिंह चढूनी हरियाणा में ही अपने संगठन की मजबूती गंवा बैठे तो पंजाब चुनाव में हिस्सा लेने से किसान यूनियन पूरी तरह बिखर गई. वहीं, अब टिकैत बंधुओं पर एक राजनीतिक दल के समर्थन करने से बगावत हो गई है. भाकियू अराजनैतिक नाम से नया किसान संगठन यूपी में गठित किया गया है, जिसके चेयरमैन व राष्ट्रीय संरक्षक गठवाला खाप के चौधरी राजेंद्र सिंह मलिक बने हैं तो अध्यक्ष की कमान राजेश सिंह चौहान को मिली है. 

यूपी में किसान एकता को गहरा झटका लगा

कृषि कानून के खिलाफ पंजाब से शुरू हुआ किसान आंदोलन ने धीरे-धीरे हरियाणा और पश्चिमी यूपी को अपने जद में ले लिया था. राकेश टिकैत आंदोलन का चेहरा बन गए थे और 2022 चुनाव के दौरान बीजेपी को वोट से चोट देने का खुलकर ऐलान कर रहे थे, उसे देखकर लग रहा था कि टिकैत का जादू अखिलेश यादव-जयंत चौधरी के गठबंधन को अच्छी बढ़त दिलाएगा. ऐसे में जब 10 मार्च को चुनावी नतीजे आए तो टिकैत का सारा गुणा-गणित फेल हो गया और बीजेपी ने किसान बेल्ट में बेहतर प्रदर्शन किया. 

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वहीं, अब भारतीय किसान यूनियन में लंबे समय तक काम करने वाले सदस्यों ने मिलकर राकेश टिकैत और नरेश टिकैत के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंक दिया और उसी नाम से अलग नया संगठन बना लिया. इस कदम से एक तरफ टिकैत बंधुओं को सियासी नुकसान होगा तो वहीं किसान यूनियन और आंदोलन की धार भी कमजोर पड़ेगी. वैसे भी यूपी में किसानों का प्रभाव पश्चिमी यूपी के कुछ जिलों तक सीमित था और अब दो फाड़ हो जाने से किसान एकता को झटका लगा है. इतना ही नहीं किसानों के नाम पर यूपी में करीब एक दर्जन किसान संगठन है, लेकिन प्रभावी किसान यूनियन रहा है. ऐसे में किसान यूनियन के बंटने से ये मुहिम कमजोर हुआ है,

भाकियू से जो लोग अलग हुए हैं, वो किसानों के बीच जरूरत मजबूत पकड़ रखते हैं, लेकिन योगी और बीजेपी सरकार के नजदीकी भी माने जाते हैं. नई भाकियू में संरक्षक-चेयरमैन बनाये गए शामली के बाबा राजेंद्र सिंह मलिक गठवाला खाप के चौधरी हैं, जिनकी बीजेपी के साथ रिश्ते जगजाहिर हैं. धर्मेंद्र मलिक योगी सरकार के पहले कार्यकाल में कृषि समृद्धि आयोग के सदस्य रहे हैं. राजेश सिंह चौहान के भी योगी सरकार के साथ रिश्ते बेहतर हैं. ऐसे में किसानों के मुद्दों को लेकर यूपी में किस तरह से किसान आंदोलन खड़ा हो पाएगा?  

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पंजाब में पहले से ही बिखरे किसान संगठन

पंजाब की अर्थव्यवस्था कृषि पर टिकी है और किसान सूबे की सियासत पर प्रभाव रखते हैं. कृषि कानून के खिलाफ विरोध के सुर पंजाब से उठे और फिर धीरे-धीरे देश भर में फैल गया. पंजाब के किसानों ने दिल्ली में डेरा जमाकर केंद्र की मोदी सरकार को झुकने के लिए मजबूर कर दिया और आखिरकर सरकार को कानून वापस लेना पड़ा. ऐसे में किसानों के हौसले बुलंद थे और पंजाब में चुनाव लड़ने के फैसले किया तो किसान मोर्चा सियासी तौर पर बिखर गया. इस बिखराव ने किसान हक की आगे की लड़ाई को कमजोर कर दिया है.

किसानों के 22 संगठनों के संयुक्त समाज मोर्चा के चुनावी मैदान में उतरने से किसानों के सबसे बड़े संगठन संयुक्त किसान मोर्चा ने उससे किनारा कर लिया था. पंजाब के सबसे बड़े संगठन भारतीय किसान यूनियन (एकता उगराहां) के द्वारा गठित राजनीतिक दल 'संयुक्त समाज मोर्चा', का नेतृत्व बलबीर सिंह राजेवाल और किसान नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी ने किया, वे 'संयुक्त संघर्ष पार्टी' का बैनर लेकर चुनाव में कूदे थे. पंजाब चुनाव में किसान नेताओं का जीतना तो दूर की बात रही वे एक भी सीट पर अपनी जमानत नहीं बचा सके. 

किसान मोर्चा का खराब प्रदर्शन किसानों के लिए बड़ा झटका है. किसान नेताओं ने चुनाव लड़ने में जल्दबाजी की और आम आदमी पार्टी की जीत ने पंजाब में किसान आंदोलन की धार को पूरी तरह से खत्म कर दिया. पंजाब में जमीन की उपजाऊ शक्ति खत्म होती जा रही है. पानी नीचे जा रहा है. कल को क्या होगा, इसका अंदाजा है किसी को नहीं है.  किसान आंदोलन के दौरान देशभर में इन संगठनों की एक छवि बनी थी, लेकिन पंजाब चुनाव में किसान संगठन वोट कटवा साबित हुए हैं. इसके बाद किसान आंदोलन जिस तरह कई धड़ों में बंटे हुए है, उससे किसानों के मुद्दों पर नेतृत्व का संकट नजर आ रहा है. 

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हरियाणा में गुरनाम सिंह चढूनी को लगा झटका

पंजाब में सियासी जमीन की तलाश में भाकियू के प्रदेशाध्यक्ष गुरनाम सिंह चढूनी हरियाणा में ही अपने संगठन की मजबूती गवां बैठे. पंजाब चुनाव में हिस्सा लेने के बाद उनकी यूनियन बिखर गई है. नाराज पदाधिकारियों ने न केवल उनका संगठन छोड़ा, बल्कि उनके सामने ही अंबाला, करनाल और उनके गृह जिले कुरुक्षेत्र में नया संगठन खड़ा कर दिया है. अंबाला में नई यूनियन तैयार हो गई है, जिसका नाम भारतीय किसान यूनियन (भगत सिंह) रखा गया. इसकी कमान तेजवीर सिंह और अमरजीत के हाथों में है. करनाल के लोगों ने भारतीय किसान यूनियन (सर छोटे राम) के नाम से बनाया है,  

बता दें कि किसान आंदोलन से पहले चढूनी के संगठन का प्रभाव कुरुक्षेत्र, यमुनानगर और कैथल तक सीमित था. पिछले साल तीन कृषि कानूनों के खिलाफ गुरनाम सिंह चढूनी एक बड़े किसान नेता के रूप में उभरे थे. कृषि कानूनों के खिलाफ हुए आंदोलन में चढूनी के आक्रामक रवैये के चलते प्रदेश और पंजाब के किसानों ने उनको हाथों हाथ लिया. आंदोलन में मिले अपार जनसमर्थन को देखते हुए चढूनी ने पंजाब चुनाव में ताल ठोकी, लेकिन कोई असर नहीं छोड़ पाए और हरियाणा में भी अपनी साख गवां बैठे. किसानों की एकता जाति, धर्म और पार्टियों में बंट गई है. इस तरह यूपी से लेकर हरियाणा और पंजाब तक किसान आंदोलन और उनकी एकता को सियासी बट्टा लग गया है. 
 

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किसान आंदोलन अब दोबारा नहीं खड़ा हो पाएगा

किसान संगठन से जुड़े आदित्य चौधरी ने बताया कि किसान नेताओं की राजनीतिक महत्वकांक्षा ने किसान एकता को कमजोर किया है. कृषि कानून के खिलाफ जिस तरह से देश भर के किसान एकजुट हुए थे और इले लोगों का समर्थन मिला था, उस तरह का आंदोलन का अब दोबारा से खड़ा होना मुश्किल है, क्योंकि किसानों ने जिन पर भरोसा किया, वे किसानों के मुद्दों को छोड़कर अपने-अपने राजनीतिक हित साधने लगे थे. यूपी से लेकर पंजाब और हरियाणा तक बड़े किसान नेता किसी न किसी दल के करीब थे और चुनाव के बाद इन किसान नेताओं से लोगों का भरोसा टूटा है. सरकार और प्रशासन के लोग किसानों की समस्या सुनना तो दूर की बात है, उनसे बात भी नहीं कर रहे हैं. 

 

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