2024 का लोकसभा चुनाव एक साल दूर है, 2019 की तरह फिर विपक्षी एकता की बात की जा रही है. 'मोदी को हराना है' उदेश्य के साथ फिर सब साथ आने की कोशिश कर रहे हैं. थर्ड फ्रंट की सुगबुगाहट भी राजनीतिक गलियारों में समय-समय पर सुनाई दे जाती है. लेकिन इस बीच विपक्षी एकता के बड़े चेहरे, भारतीय राजनीति के अंगद माने जाने वाले शरद पवार अलग वजहों से सुर्खियों में चल रहे हैं. बीते दिनों उनके कुछ बयानों की गुगली ने विपक्ष को ही क्लीन बोल्ड कर दिया है. इसके ऊपर एनसीपी प्रमुख के भतीजे अजित पवार ने ऐसे बयान दिए हैं जिससे विपक्षी खेमे मे ही खलबली मचना लाजिमी है. सवाल उठने लगे हैं कि कहीं शरद पवार 2024 से पहले कोई बड़ा खेल तो नहीं करने वाले?
अडानी पर पवार का बयान, कांग्रेस से ज्यादा राहुल को चोट
अब 2024 से पहले क्या खेल हो सकता है, वो तो समझेंगे ही, पहले फ्लैशबैक में जाना जरूरी है. इस साल 24 जनवरी को हिंडनबर्ग नाम की अमेरिकी फर्म ने उद्योगपति गौतम अडानी की अगुवाई वाले समूह की कंपनियों को लेकर एक रिपोर्ट जारी की. शेयरों में बड़ी गड़बड़ी का दावा कर दिया गया. उस एक रिपोर्ट के तीन दिन बाद से ही अडानी के शेयरों में भारी गिरावट देखने को मिली और उद्योगपति की संपत्ति को करारी चोट पड़ी. अब इस एक रिपोर्ट ने संसद कार्यवाही तक को चलने नहीं दिया और विपक्ष ने जेपीसी जांच की मांग की.
19 विपक्षी दलों ने साथ में मोदी सरकार के खिलाफ मोर्चा खोला, राहुल गांधी ने सामने से अटैक को संभाला. अब उस एक मुद्दे को लेकर लग रहा था विपक्ष पूरी तरह एकजुट है, सभी एक मुद्दे पर सरकार पर हमलावर हैं. लेकिन कुछ दिन पहले एनसीपी प्रमुख शरद पवार के एक बयान ने उस विपक्षी एकता की कवायद को तगड़ी चोट दी. उन्होंने विपक्ष की उस मांग को ही खारिज कर दिया जहां जेपीसी जांच की बात कही गई. उनकी तरफ से तो हिंडनबर्ग कंपनी और उसकी रिपोर्ट पर भी कई सवाल उठा दिए गए.
एक मीडिया चैनल से बात करते हुए शरद पवार ने कहा कि उस शख्स ने पहले भी ऐसे बयान दिए थे और तब भी सदन में कुछ दिन हंगामा हुआ था. लेकिन इस बार जरूरत से ज्यादा तवज्जो इस मुद्दे को दे दी गई है. वैसे भी जो रिपोर्ट आई, उसमें दिए बयान किसने दिए, उसका क्या बैकग्राउंड है. जब वो लोग ऐसे मुद्दे उठाते हैं जिनसे देश में बवाल खड़ा हो, इसका असर तो हमारी अर्थव्यवस्था पर ही पड़ता है. लगता है कि ये सबकुछ किसी को टारगेट करने के लिए किया गया था. इसके अलावा जेपीसी जांच को लेकर पवार कह गए कि उसके जरिए इस मामले की निष्पक्ष जांच संभव नहीं. अब शरद पवार का ये स्टैंड कांग्रेस से ज्यादा राहुल गांधी की सोच के खिलाफ है. अडानी मामले वाले इस पूरे विवाद को जोर-शोर से राहुल गांधी ही उठा रहे हैं. सदन में उनका भाषण ही चर्चा का विषय बना, कांग्रेस ने भी उसी को आधार बनाकर सरकार को घेरने की कोशिश की. ऐसे में पवार का यूं अलग स्टैंड लेना राहुल के लिए झटका है.
सावरकर-राफेल पर भी बीजेपी को लेकर नरम पवार
राहुल गांधी की सियासत पर पवार का वीर सावरकर को दिया बयान भी एक करारा प्रहार है. जोर देकर कहा जा चुका है कि वे सावरकर के बलिदान की अहमियत को समझते हैं. एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि आज सावरकर कोई राष्ट्रीय मुद्दा नहीं है, यह पुरानी बात है. हमने सावरकर के बारे में कुछ बातें कही थीं लेकिन वह व्यक्तिगत नहीं थी. यह हिंदू महासभा के खिलाफ था. लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी है. हम देश की आजादी के लिए सावरकर जी द्वारा दिए गए बलिदान को नजरअंदाज नहीं कर सकते. ये बयान ही बताने के लिए काफी है कि जिन मुद्दों के दम पर कांग्रेस, बीजेपी को घेरने की कोशिश करती है, शरद पवार अपने बयानों से उनकी हवा निकाल देते हैं.
इससे पहले जब राफेल का मुद्दा लेकर राहुल गांधी आगे बढ़े थे, उन्होंने 2019 के चुनाव को भी इसी के इर्द-गिर्द करने की कोशिश की थी, पवार ने तब भी विपक्ष पार्टियों से अलग स्टैंड लेकर चौंका दिया था. उन्होंने एक तरह से पीएम मोदी को तब क्लीन चिट दे विपक्ष को बड़ा संदेश दिया था.
इस राज्य में बीजेपी का समर्थन कर रही NCP
पवार ने कहा था कि मुझे लगता है कि लोगों को मोदी सरकार की नीयत पर कोई शक नहीं है. उन्होंने कहा कि राफेल विमान के तकनीकी पहलुओं पर चर्चा करने की विपक्ष की मांग ठीक नहीं है. अब बीजेपी के साथ शरद पवार का ये रिश्ता क्या कहलता है, राजनीतिक पंडितों के लिए भी इसका जवाब ढूंढना मुश्किल हो जाता है. मुश्किल इसलिए भी क्योंकि शरद पवार ऐसे समय में बीजेपी को सपोर्ट कर जाते हैं जब पूरा विपक्ष अलग ही राग अलाप रहा होता है. इस साल जब मार्च में पूर्वोत्तर के तीन राज्यों में चुनाव हुए, बीजेपी को जबरदस्त फायदा हुआ. नगालैंड में तो एनडीपीपी और बीजेपी के गठबंधन को पूर्ण बहुमत तक हासिल हुआ.
इसके बावजूद भी लीक से हटकर एनसीपी ने एनडीपीपी को अपना समर्थन दे दिया, तर्क दिया गया कि पूर्वोत्तर के विकास के लिए सीएम नेफ्यू रियो जरूरी हैं. थोड़ा और पीछे चलें तो 2014 में महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव हुए थे, नतीजों के बाद एनसीपी ने बाहर से बीजेपी को समर्थन का ऐलान कर दिया था. उस चुनाव में बीजेपी तो बहुमत से 22 सीटें कम मिली थीं. तब एनपीपी से सामने से बीजेपी को समर्थन का ऑफर दिया था.
खेल करने में माहिर पवार, 45 साल पहले चला था दांव
अब इस प्रकार की राजनीति शरद पवार ही कर सकते हैं. सत्ताधारी पार्टी के करीब रहकर विपक्ष के नेताओं के साथ भी तालमेल बैठाने में वे माहिर हैं. 50 साल से ज्यादा लंबी उनकी राजनीति में उन्होंने कई दफा ऐसा करके भी दिखाया है. जरूरत पड़ने पर उन्होंने बीजेपी को समर्थन देने से कभी गुरेज नहीं किया. ये बात 1978 की है जब शरद पवार 38 साल की उम्र में महाराष्ट्र के सबसे युवा मुख्यमंत्री बन गए थे. उन्होंने कांग्रेस के ही वसंतदादा पाटिल को सीएम कुर्सी से हटवा दिया था और फिर जनता पार्टी के साथ मिलकर सरकार बनाई. असल में आपातकाल के बाद हुए चुनाव में इंदिरा गांधी को जबरदस्त नुकसान हुआ था और उन्हें हाथ से सत्ता भी गंवानी पड़ गई थी.
उस हार का असर महाराष्ट्र में भी पड़ा जहां कांग्रेस को कई सीटों का नुकसान हुआ. इसके बाद जब विधानसभा चुनाव हुए तो कांग्रेस दो धड़ों में बंट गई- कांग्रेस एस और कांग्रेस आई. तब शरद पवार कांग्रेस एस के साथ चले गए थे. चुनाव के नतीजे आए तो पता चला जनता पार्टी 99 सीटें जीतकर सबसे बड़ा दल बन गई. वहीं अलग-अलग चुनाव लड़ीं कांग्रेस एस और कांग्रेस आई को 69 और 65 सीटें मिलीं. उस त्रिशंकू स्थिति में फैसला हुआ कि कांग्रेस की ये दोनों धड़ें साथ आएंगी और फिर सरकार बनाएंगी. तब वसंतदादा पाटिल को सीएम और नाशिकराव को डिप्टी सीएम बना दिया गया.
लेकिन क्योंकि कांग्रेस में दरार आ चुकी थी, ऐसे में उस सरकार का चलना भी मुश्किल हो रहा था. आलम ये हुआ कि चार महीने बाद ही महाराष्ट्र में वसंतदादा की सरकार अल्पमत में आ गई. तब शरद पवार 40 विधायकों को लेकर अलग हो गए और जनता पार्टी के साथ प्रोग्रेसिव डेमोक्रैटिक फ्रंट बनाकर सरकार बना ली. तब 38 साल की उम्र में पवार सीएम बन गए, लेकिन सिर्फ दो साल के लिए. दो साल बाद इंदिरा की सत्ता में वापसी हुई और शरद पवार वापस कांग्रेस में आ गए. ये किस्सा ये बताने के लिए है कि पवार नफा-नुकसान देखकर समय-समय पर बड़े खेल करते रहते हैं.
चाचा के साथ भतीजे अजित ने भी विपक्ष को दिखाया आईना
वैसे खेल तो अजित पवार भी कर रहे हैं. अगर एनसीपी प्रमुख विपक्षी की धड़कने बढ़ा रहे हैं तो अजित भी EVM पर पूरा भरोसा जता विपक्ष को ही आईना दिखाने का काम कर रहे हैं. कुछ दिन पहले ही उन्होंने कहा था कि मुझे ईवीएम पर पूरा भरोसा है. कोई एक व्यक्ति ईवीएम में हेरफेर नहीं कर सकता है, यह एक बड़ी प्रणाली है. हारने वाली पार्टी ईवीएम को दोष देती है, लेकिन यह लोगों का जनादेश है. एक कदम आगे बढ़कर उन्होंने पीएम की तारीफ करते हुए ये भी कह दिया कि जिस पार्टी के केवल दो सांसद थे, उसने पीएम मोदी के नेतृत्व में साल 2014 में जनादेश से सरकार बनाई और देश के दूर-दराज वाले इलाकों में पहुंच गई तो क्या ये मोदी का करिश्मा नहीं है.
अब अजित पवार की तरफ से ये बयान आना इसलिए मायने रखता है क्योंकि 2019 में महाराष्ट्र चुनाव के बाद उनकी बीजेपी के साथ जो जुगलबंदी दिखी थी, जिस तरह से वे सिर्फ 72 घंटे के डिप्टी सीएम बन गए थे, उनका फिर पलटी मारना नकारा नहीं जा सकता. वैसे भी मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने एक कार्यक्रम में विपक्ष को और ज्यादा असहज करने का काम तो कर ही दिया है. वे कह चुके हैं कि 'पवार पर ध्यान दें.
कांग्रेस के लिए शरद पवार जरूरी, विपक्षी एकता में भूमिका
अब 2024 के लिहाज से सवाल ये उठता है कि शरद पवार क्या कदम उठाने वाले हैं. अभी इस समय वे अपने पत्ते नहीं खोल रहे हैं, सिर्फ सियासी बयानबाजी की वजह से अटकलों को हवा मिल रही है. वैसे विपक्षी एकता में शरद पवार एक बड़े सूत्रधार के रूप में काम आ सकते हैं. उनके जैसे दिग्गज नेता कम हैं जिनके सभी पार्टियों के साथ मधुर रिश्ते रहे, और जो सभी को साथ भी ला सकें. कांग्रेस के लिए तो शरद पवार का साथ होना इसलिए भी जरूरी हो जाता है क्योंकि वे एक बयान में कह चुके हैं कि देश कांग्रेस मुक्त नहीं हो सकता और देश के हित में कांग्रेस का बढ़ना भी जरूरी है. यानी कि अगर कांग्रेस की अगुवाई वाली विपक्षी एकता होनी है, उसमें पवार दूसरे दलों को साथ लाने का काम कर सकते हैं. लेकिन ये होगा तब जब शरद पवार की विचारधारा कांग्रेस के उन मुद्दों से मेल खाएगी जिसके जरिए सरकार को 2024 में घेरने की तैयारी है.