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लालू, मुलायम, शरद... यादव नेताओं की तिकड़ी, जो कभी दिखे गुरुभाई तो कभी विरोधी

सत्तर के दशक में शरद यादव, मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव उभरे. इन तीनों नेताओं ने अलग-अलग राज्यों से अपनी सियासी पारी का आगाज किया और फिर एक साथ खड़े होकर एक-दूसरे के लिए सियासी सहारा बने. भले ही ये तीनों नेता एक-दूसरे को भाई मानते रहे हों, लेकिन एक दूसरे की सियासी राह में रोड़ा भी बने.

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मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद और शरद यादव (फाइल फोटो- Getty Images)
मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद और शरद यादव (फाइल फोटो- Getty Images)

देश में समाजवादी सियासत के पुरोधा शरद यादव अब हमारे बीच नहीं हैं. 75 साल की उम्र में उनका गुरुग्राम के फोर्टिस हॉस्पिटल में गुरुवार रात निधन हो गया. सत्तर के दशक में जयप्रकाश नारायण ने जब देशव्यापी आंदोलन छेड़ा, तो इससे शरद यादव, लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव उभरे. लोहिया और समाजवादी विचारों से प्रभावित तीनों यादव नेताओं का देश की सियासत में दशकों तक बोलबाला रहा. 

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दिलचस्प बात ये है कि लालू यादव, शरद यादव को बड़े भाई कहते थे तो वहीं शरद यादव से मुलायम सिंह यादव उम्र में काफी बड़े थे. जेपी की प्रयोगशाला से निकले तीनों गुरुभाइयों के रिश्ते गजब के रहे हैं. सियासी गलियारे में ये तीनों बड़े यादव नेता कभी एक-दूसरे के दोस्त दिखे, तो कभी इनमें टकराव दिखा. कभी कोई एक-दूसरे का सहारा बनता दिखा तो कभी एक-दूसरे की राह रोकता दिखा. आखिर क्या है इस तिकड़ी की सियासी दोस्ती और नूरा-कुश्ती की कहानी?

सत्तर के दशक में शरद यादव, मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव उभरे. तीनों ही नेताओं के राजनीतिक योगदान और उनके कद का अंदाजा भले आज की पीढ़ी को न हो, लेकिन गैर-कांग्रेसी सरकारों में ये पावरफुल नेता माने जाते थे. इन तीनों ही नेताओं ने अलग-अलग राज्यों से अपनी सियासी पारी का आगाज किया था और फिर एक साथ खड़े होकर एक-दूसरे के लिए सियासी सहारा बने, लेकिन वक्त आने पर एक-दूसरे के टांग खींचने से भी पीछे नहीं हटे. इसी चक्कर में मुलायम सिंह यादव देश के प्रधानमंत्री नहीं बन सके. 

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शरद यादव ने मध्य प्रदेश के एक मध्यवर्गीय परिवार से निकलकर अपना राजनीतिक करियर शुरू किया था और जनता दल परिवार की सियासत के चाणक्य कहलाए. वहीं, बिहार में जन्मे लालू यादव का बचपन गरीबी-मुफलिसी में गुजरा और एक समय बाद उन्होंने सूबे की सियासत की बुलंदी को छुआ. वहीं, उत्तर प्रदेश के एक किसान परिवार में जन्मे मुलायम सिंह यादव भी समाजवादी राजनीति के पुरोधा रहे. इस तरह तीनों ही नेता समाजवादी विचारधारा से बंधे रहे, जिसके चलते इन्हें गुरुभाई कहा जाता था, क्योंकि ये तीनों नेता जयप्रकाश नारायण के शिष्य थे. 

शरद यादव, मुलायम सिंह यादव और लालू यादव सियासत में एक ही दौर में आए और एक ही तरह की राजनीति करते रहे, लेकिन तीनों ही नेताओं ने शुरू से अपनी-अपनी कर्मभूमि अपने गृह राज्य को बनाया. शरद यादव ने मध्य प्रदेश, लालू यादव ने बिहार और मुलायम सिंह यादव ने उत्तर प्रदेश. मुलायम सिंह और लालू यादव ने अपने-अपने राज्य में अपनी सियासी जड़ें जमाए रखीं, लेकिन शरद यादव एमपी से निकलकर पहले यूपी और फिर बिहार की सियासत में खुद को स्थापित करने की कवायद करते नजर आए. 

शरद यादव अस्सी के बाद एमपी से यूपी आए 


मध्य प्रदेश के होशंगाबाद में एक जुलाई 1947 में जन्मे शरद यादव ने जबलपुर से इंजीनियरिंग की पढ़ाई की और इस दौरान ही सियासत में कदम रख दिया. जेपी आंदोलन का देश की राजनीति में कितना असर होने वाला है, इसी झलक शरद यादव ने 1974 का चुनाव जीतकर दिखा दी थी. शरद यादव 1974 में मध्य प्रदेश के जबलपुर लोकसभा सीट से सांसद बने और 1977 में एक बार फिर उसी सीट से जीत दर्ज की थी, लेकिन 1980 के लोकसभा चुनाव में उनकी जगह राजमोहन गांधी को प्रत्याशी बनाया गया था. इसके बाद शरद यादव 1981 में मध्य प्रदेश छोड़कर उत्तर प्रदेश आ गए और तब तक शरद यादव की ट्यूनिंग पूर्व पीएम चौधरी चरण सिंह के साथ काफी मजबूत हो गई थी. 

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1986 में राज्यसभा के रास्ते संसद में पहुंचे
 

संजय गांधी की मौत के बाद 1981 में अमेठी लोकसभा सीट पर उपचुनाव हुए. कांग्रेस से राजीव गांधी चुनाव मैदान में थे तो उनके खिलाफ चौधरी चरण सिंह ने शरद यादव को उतारा था. अमेठी उपचुनाव में शरद यादव को चुनाव मैदान में उतारने के पीछे नाना भाई देशमुख की सलाह थी. अमेठी में राजीव गांधी से भले ही शरद यादव जीत नहीं पाए, लेकिन यादव समाज की सियासी ताकत को देखते हुए उन्होंने यूपी को ही अपनी कर्मभूमि बना लिया. 1984 में चौधरी चरण सिंह ने शरद यादव को बदायूं से लड़ाया. लेकिन वहां भी वे हारे, हालांकि शरद यादव 1986 में राज्यसभा के रास्ते संसद में पहुंचे. 

ऐसे बढ़ा था शरद यादव का कद
 

चौधरी चरण सिंह के नजदीकी होने के चलते शरद यादव अस्सी के दशक में चौधरी देवीलाल के भी बेहद करीब हो गए थे. इस तरह से शरद यादव का राजनीतिक जीवन में दूसरा अहम मोड़ 1989 में आया, जब वो जनता दल के टिकट पर बदायूं सीट से लोकसभा में पहुंचे और वीपी सिंह की सरकार में कपड़ा मंत्री बने. शरद उस समय तक जनता दल की केंद्रीय सियासत में बड़े कद के नेता बन चुके थे तो मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव अपने-अपने राज्यों में सियासी जड़े जमाने में लगे थे. 

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लालू-मुलायम-शरद की तिकड़ी

दिसंबर 1989 में वीपी सिंह की अगुवाई में जनता दल की केंद्र में सरकार बन गई थी. वीपी सिंह की सरकार में भले ही शरद यादव को भारी भरकम मंत्रालय नहीं मिला था, लेकिन उनकी सियासी ताकत बढ़ चुकी थी. यूपी में 1989 के चुनाव के बाद वीपी सिंह मुख्यमंत्री की कुर्सी पर चौधरी अजित सिंह को बैठाना चाहते थे, लेकिन शरद यादव और चंद्रशेखर मुलायम सिंह यादव के साथ खड़े हो गए. इस तरह से मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने. 


शरद यादव ने दोनों गुरुभाई को किया था स्थापित 


वहीं, 1990 तक शरद यादव की छवि मंडल मसीहा नेता के तौर पर बनी. इससे पहले उन्होंने बिहार में लालू प्रसाद यादव को नेता प्रतिपक्ष बनाने में मदद की थी. 1990 में जब बिहार में जनता दल के मुख्यमंत्री पद की दावेदारी आई तो शरद यादव ने वीपी सिंह के उम्मीदवार रामसुंदर दास को पीछे करके लालू प्रसाद यादव को बिहार का मुख्यमंत्री बनवाया. हालांकि, शरद के साथ चंद्रशेखर ने लालू के लिए सियासी पिच तैयार की थी. चाहे मुलायम सिंह को पहली बार उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाने की बात हो या बिहार में लालू यादव को मुख्यमंत्री बनाना रहा हो, शरद यादव ने अपने दोनों गुरुभाई को स्थापित किया.

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नब्बे के दशक में बिगड़ी तिकड़ी


सत्तर के दशक से नब्बे के दशक तक आते-आते तीनों नेताओं की बीच सियासी टकराव भी शुरू हो गए, क्योंकि इन नेताओं की राजनीतिक ख्वाहिश भी आकार लेने लगी थी. जनता पार्टी से लेकर लोकदल और जनता दल मुलायम सिंह यादव, शरद यादव और लालू यादव के साथ खड़े रहे, लेकिन जनता दल के टूटने के साथ तीनों यादव नेताओं की सियासी राह भी अलग हो गई. मुलायम सिंह ने 1991 में जनता दल से अलग होकर समाजवादी पार्टी का गठन किया तो शरद यादव ने यूपी से बिहार में अपनी राजनीति को शिफ्ट कर लिया, क्योंकि मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बनकर यादव समुदाय के नेता बन गए थे. 

शरद यादव ने ऐसे बढ़ाई बिहार की सियासत में दखल


मंडल कमीशन लागू होने के बाद शरद यादव ने बिहार को अपनी सियासी कर्मभूमि बनाना शुरू कर दिया था. पटना के गांधी मैदान में मंडल कमीशन के समर्थन में एक रैली की थी और उन्होंने जज्बाती भाषण दिया था. इसके बाद शरद यादव 1991 का लोकसभा चुनाव मधेपुरा सीट से लड़े और सांसद बने. शरद यादव की बिहार की सियासत में दखल बढ़ने लगा तो लालू को सियासी बेचैनी भी पैदा होने लगी. 

जब आमने-सामने आए लालू और शरद यादव

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शरद यादव ने जिस लालू प्रसाद यादव को बिहार का मुख्यमंत्री बनवाया और उनकी मदद से बिहार के मधेपुरा को अपना कर्मक्षेत्र बनाया, उन्हीं लालू प्रसाद यादव से तल्खियां बढ़ीं और इस मुकाम तक पहुंची कि दोनों एक दूसरे के सामने खड़े हो गए. 1997 तक शरद यादव और लालू यादव जनता दल में ही हुआ करते थे. 1997 में शरद यादव जनता दल के कार्यकारी अध्यक्ष थे, लेकिन जुलाई 1997 में जनता दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद के चुनाव में लालू यादव और शरद यादव आमने-सामने आ गए थे.

2015 तक जारी रही लालू से सियासी दुश्मनी


दरअसल, जनता दल के इस चुनाव के लिए लालू यादव ने अपने सहयोगी रघुवंश प्रसाद सिंह को निर्वाचन अधिकारी बनाया था. शरद यादव इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट चले गए और रघुवंश प्रसाद सिंह को हटाकर मधु दंडवते को निर्वाचन अधिकारी बनवाया. लालू यादव इस बात को जानते थे कि वह अगर शरद यादव के खिलाफ लड़ेंगे तो हार जाएंगे. ऐसे में उन्होंने जनता दल से अलग होकर अलग राष्ट्रीय जनता दल की स्थापना की. इस तरह लालू यादव और शरद यादव के बीच शुरू हुई यह सियासी दुश्मनी, 2015 तक जारी रही.  

लालू ने अपनी किताब में लिखी ये बात
लालू प्रसाद यादव पर लिखी किताब 'राजनीतिक यात्रा गोपालगंज टू रायसीना' में नलिन वर्मा ने लालू के हवाले से लिखा है 'जुलाई, 1997 में पार्टी के अध्यक्ष पद का चुनाव होना था. मैं नहीं समझ पाया कि आखिर शरद जी ने किन वजहों से आखिरी समय में अध्यक्ष पद की दौड़ में कूदने का फैसला लिया. मैं अपने नेतृत्व में पार्टी को जीत दिला रहा था, बिहार में दूसरी बार सरकार बन गई थी, केंद्र में सरकार थी, उन्हें मेरा साथ देना था कि लेकिन उनकी महत्वाकांक्षा पार्टी अध्यक्ष पद पर मुझे हटाकर काबिज होने की हो गई. यहां मेरा धैर्य खत्म हो गया और मैंने सोच लिया कि अब काफ़ी हो गया है.'

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लालू से रिश्ते में पड़ी सियासी गांठ


दरअसल, जनता दल के कार्यकारी अध्यक्ष रहते हुए शरद यादव ने पार्टी की कार्यकारिणी में अपने समर्थकों की संख्या इतनी कर ली थी कि लालू प्रसाद यादव को अंदाज़ा हो गया था कि अगर वे चुनाव लड़ेंगे तो उनकी हार होगी. जनता दल को लालू यादव ने जरूर तोड़कर अपनी पार्टी बना ली, लेकिन रिश्ते में सियासी गांठ पड़ चुकी थी. 1998 में मधेपुरा सीट पर लालू प्रसाद यादव और शरद यादव का मुकाबला हुआ. इस चुनाव में लालू ने उन्हें हराकर, खुद को यादवों के नेता के तौर पर स्थापित किया, लेकिन शरद यादव ने हिम्मत नहीं हारी और अगले ही साल उन्होंने हिसाब बराबर कर दिया. 

शरद यादव ने नीतीश कुमार से सुधारे थे संबंध 


1998 के लोकसभा चुनाव में मधेपुरा सीट पर लालू प्रसाद यादव के लिए अहम था, क्योंकि शरद यादव एनडीए उम्मीदवार के तौर पर उन्हें चुनौती दे रहे थे. लालू ने शरद की चुनौती को गंभीरता से नहीं लिया, जबकि शरद यादव लगातार दावा कर रहे थे कि इस चुनाव में वे साबित कर देंगे कि बिहार में वे यादवों के सबसे बड़े नेता हैं. लालू प्रसाद यादव को शरद यादव ने हराकर यह तो साबित कर दिया कि बिहार में उनकी पकड़ खत्म नहीं हुई. इस दौरान शरद यादव ने नीतीश कुमार से अपने संबंध सुधारे और लालू प्रसाद यादव के सामने उनको बढ़ाने का फैसला लिया. 

जब नीतीश कुमार ने शरद यादव को पार्टी से निकाला 


शरद यादव और नीतीश कुमार 2003 में एक साथ आए गए. शरद-नीतीश की जोड़ी ने दो साल बाद हुए बिहार विधानसभा चुनाव में लालू यादव की पार्टी बिहार की सत्ता से बेदखल कर दिया. 2003 से 2016 तक शरद यादव जेडीयू के अध्यक्ष और एनडीए के संयोजक भी रहे. हालांकि, 2017 नीतीश कुमार ने पार्टी विरोधी गतिविधियों के आरोप में शरद यादव को पार्टी से बाहर निकाल दिया और उन्हें राज्यसभा की सदस्यता भी गंवानी पड़ी. शरद यादव ने अपनी पार्टी बनाई, लेकिन कोई असर नहीं दिखा सके. 

मुलायम की राह में लालू-शरद बने रोड़ा


मुलायम सिंह यादव, शरद यादव और लालू यादव भले ही एक दूसरे को भाई मानते रहे हों, लेकिन एक दूसरे के लिए सियासी राह में रोड़ा भी बने हैं. 1996 में अटल बिहारी वाजपेयी की 13 दिन की सरकार गिरने के बाद जब जनमोर्चा की सरकार का गठन हो रहा था तो प्रधानमंत्री पद के लिए लालू प्रसाद यादव का नाम सामने आया था, लेकिन उनके खिलाफ मुकादमा होने से चलते रेस से बाहर हो गए. वीपी सिंह के मना करने और ज्योति बसु के नाम पर सहमति न बनने के बाद मुलायम सिंह के नाम को लेकर चर्चा तेज हो गई थी, लेकिन लालू यादव और शरद यादव ने अड़ंगा डाल दिया था. इसके चलते मुलायम सिंह यादव पीएन नहीं बन सके. इसके बाद 1998 में भी मुलायम सिंह की राह में लालू यादव रोड़ा बने थे. 

मुलायम ने थर्ड फ्रंट की हवा निकाली


शरद-मुलायम-लालू यादव की जोड़ी किंगमेकर की भूमिका में रही है. 2014 चुनाव के बाद तीसरे मोर्चे के लिए कवायद हुई तो मुलायम सिंह के घर पर जनता दल पृष्ठभूमि वाले नेताओं की बैठक हुई थी. मुलायम सिंह यादव के अगुवाई में जनता दल परिवार एक साथ एक होने की रणनीति बनी थी, जिसके लिए लालू प्रसाद यादव, शरद यादव, नीतीश कुमार, चौधरी अजित सिंह, ओम प्रकाश चौटाला, एचडी देवगौड़ा सहित तमाम नेता सहमत थे. लेकिन, मुलायम सिंह यादव ने आखिरी समय में तीसरे मोर्चे से खुद को अलग कर लिया था.

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