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...जब दो साल के वरुण गांधी को गोद में लेकर मेनका ने आधी रात को छोड़ा था इंदिरा गांधी का घर

राजनीति में दल बदलना कोई नई बात नहीं है लेकिन जब बात देश की सबसे बड़ी सियासी फैमिली की हो तो फिर ध्यान चला ही जाता है. पिछले कुछ दिनों से वरुण गांधी की कांग्रेस में एंट्री की अटकलें लग रही थीं लेकिन राहुल के बयान से 40 साल से दो ध्रुव बने परिवार के मिलन की संभावनाओं पर ब्रेक लगता दिख रहा है. जानते हैं 40 साल पहले क्या हुआ था उस रात?

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28 मार्च 1982 को मेनका ने इंदिरा का घर छोड़ दिया था.
28 मार्च 1982 को मेनका ने इंदिरा का घर छोड़ दिया था.

देश की सबसे बड़ी सियासी फैमिली यानी गांधी फैमिली का पॉलिटिकल प्रसार न सिर्फ कांग्रेस बल्कि बीजेपी में भी है. जहां कांग्रेस पार्टी पर सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी की मजबूत पकड़ है तो वहीं गांधी फैमिली की छोटी बहू मेनका गांधी और उनके बेटे वरुण गांधी बीजेपी के सांसद हैं. पिछले कुछ समय से वरुण गांधी के कांग्रेस में जाने की अटकलें लग रही थीं.

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अब राहुल गांधी का इस पर दो टूक बयान सामने आया है. राहुल गांधी ने मंगलवार को पंजाब में संवाददाता सम्मेलन में कहा- 'मैं उनसे मिल सकता हूं, गले लग सकता हूं लेकिन मेरी विचारधारा, उनकी विचारधारा से नहीं मिलती. मेरी विचारधारा है कि मैं आरएसएस के दफ्तर में कभी नहीं जा सकता.'
 

कैसे एक परिवार दो ध्रुवों-दो पार्टियों में बंट गया?

आखिर एक ही सियासी परिवार के दो ध्रुव कैसे बने? 28 मार्च 1982 की रात आखिर क्या हुआ था जिसने देश की सबसे बड़ी सियासी फैमिली को दो ध्रुवों में बांट दिया? कभी एक ही परिवार के हिस्से रहे राहुल और वरुण गांधी का बचपन एक ही आंगन में बीता था. पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बड़े बेटे राजीव गांधी के पुत्र राहुल गांधी का जन्म 19 जून 1970 को हुआ था जबकि संजय गांधी के बेटे वरुण गांधी का जन्म 13 मार्च 1980 को हुआ था. दोनों परिवार एक साथ एक ही आंगन में रहते थे.

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दरअसल तनाव की कहानी शुरू होती है जनवरी 1980 में जब इंदिरा गांधी फिर प्रधानमंत्री बनीं. परिवार 1, सफदरजंग रोड स्थित प्रधानमंत्री आवास में शिफ्ट हुआ. लेकिन दिसंबर 1980 में संजय गांधी की विमान हादसे में मौत के बाद सबकुछ बदल गया. मेनका की उम्र उस वक्‍त बमुश्किल 25 साल रही होंगी. संजय की विरासत राजीव के हाथों में जा रही थी. इंदिरा और मेनका छोटी-छोटी बातों पर लड़ पड़ते थे. खुशवंत सिंह ने अपनी आत्‍मकथा में लिखा है कि 'अनबन इतनी बढ़ गई कि दोनों का एक छत के नीचे साथ रहना मुश्किल हो गया. 1982 में मेनका ने प्रधानमंत्री आवास छोड़ दिया.'

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उस रात की कहानी

आखिर क्या है इस सियासी परिवार की टूट की कहानी, क्या हुआ था 40 साल पहले की उस रात जब अचानक मेनका गांधी अपने दो साल के बेटे वरुण गांधी को गोद में लेकर इंदिरा गांधी का घर छोड़कर आधी रात को चली गई थीं. वो थी 28 मार्च 1982 की रात...

स्पेनिश लेखक जेवियर मोरो अपनी किताब The Red Sari में लिखते हैं- 'दरअसल विमान हादसे में संजय गांधी के निधन के बाद राजनीति में रुचि न रखने वाले राजीव गांधी को इंदिरा गांधी सियासत में आगे बढ़ा रही थीं जो कि संजय गांधी की पत्नी मेनका गांधी को बर्दाश्त नहीं था. पिछले कुछ महीने से मेनका इंदिरा के सामने कई बार अपनी नाखुशी का इजहार कर चुकी थीं. इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं और वे विदेश दौरे पर गई थीं. इस बीच मेनका ने लखनऊ में अपने समर्थकों के साथ सभा की जिसे लेकर इंदिरा गांधी ने पहले ही मेनका को चेताया था. इंदिरा गांधी ने मेनका के इस कदम को गांधी फैमिली की रेड लाइन पार करने के तौर पर लिया.

जेवियर मोरो लिखते हैं- 'इंदिरा गांधी 28 मार्च 1982 की सुबह लंदन से वापस आईं. जब मेनका उनका अभिवादन करने गईं, तो इंदिरा ने उनकी बात काटकर कहा- इस बारे में बाद में बात करेंगे. मेनका अपने कमरे में बैठी रहीं. काफी देर बाद एक नौकर ने उनका दरवाजा खटखटाया, मेनका ने कहा- अंदर आओ. वह खाना लेकर कमरे में आया और बोला- श्रीमती गांधी नहीं चाहतीं कि बाकी परिवार के साथ आप लंच पर बैठें. एक घंटे बाद वह फिर आया और बोला- प्रधानमंत्री अब आपसे मिलना चाहती हैं.’

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'गलियारे से गुजरते समय मेनका के पांव कांप रहे थे. पिछले कुछ महीनों से जारी तनाव चरम पर आ गया था. सत्य का सामना करने का वक्त आ चुका था. वह कमरे में गईं तो कोई नहीं था. कुछ देर बाद अचानक इंदिरा सामने आईं, गुस्से से तमतमाते हुए. उनके साथ धीरेंद्र ब्रह्मचारी और आर. के. धवन थे. शायद वे बातचीत के दौरान उन्हें गवाह रखना चाहती थीं. उन्होंने दो टूक कहा- इस घर से तुम तुरंत बाहर निकल जाओ.. मेनका ने पूछा- मैंने ऐसा क्या किया है. आपने ही उसे ओके किया था.'

जेवियर मोरो की किताब में इस पूरे घटनाक्रम का जिक्र है. दरअसल ये बातचीत उस किताब को लेकर थी, जो मेनका संजय गांधी को लेकर लिख रहीं थीं और इंदिरा ने जिसके टाइटल, कंटेंट और फोटो को बदलने को कहा था. लेकिन मेनका ने अपने मुताबिक ही रखा था.

जेवियर मोरो उस दिन के घटनाक्रम पर आगे लिखते हैं- 'इंदिरा ने कहा- तुमसे कहा था कि लखनऊ में मत बोलना. पर तुमने अपनी मनमर्जी की. यहां से निकल जाओ, इसी क्षण यह घर छोड़ दो. जाओ अपनी मां के घर वापस. मेनका पहले बोलीं कि मैं ये घर नहीं छोड़ना चाहती. फिर इंदिरा का सख्त रुख देख मेनका ने कहा- मुझे सामान सेट करने के लिए कुछ समय चाहिए? इंदिरा आगबबूला थीं, उन्होंने साफ कहा- तुम्हारे पास काफी समय था, तुम जाओ यहां से. तुम्हारा सामान वगैरह भेज दिया जाएगा. यहां से तुम कोई भी सामान बाहर नहीं ले जाओगी.'

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'मेनका ने खुद को कमरे में बंद कर लिया और अपनी बहन अंबिका को फोन किया. जो कुछ भी घटा था उसकी जानकारी दी और कहा कि जल्दी से यहां आ जाओ. अंबिका ने पारिवारिक मित्र और पत्रकार खुशवंत सिंह को ये सब कुछ बताया और अनुरोध किया कि प्रेसवालों को तुरंत प्रधानमंत्री के निवास पर भिजवाएं. रात के 9 बजे फोटोग्राफर्स, रिपोटर्स, विदेशी पत्रकारों का एक बड़ा समूह 1, सफदरजंग रोड स्थित प्रधानमंत्री आवास के बाहर जमा हो गया. बाहर पुलिस की टुकड़ियां तैनात हो गईं.'

'अंबिका मेनका के रूम में पहुंचीं. वे अपना सामान सूटकेस में ठूंसे जा रही थीं. तभी इंदिरा कमरे में आईं और कहा- बाहर निकल जाओ फौरन, मैंने कहा था न कि साथ में कुछ भी मत ले जाना. मेनका की बहन अंबिका ने विरोध किया और कहा कि ये घर संजय की पत्नी मेनका का भी है. इंदिरा दो टूक बोलीं कि ये भारत के प्रधानमंत्री का आवास है और तुरंत बाहर जाने की बात कहकर अपने कमरे में चली गईं. धीरेंद्र ब्रह्मचारी और आर. के. धवन एक कमरे से दूसरे कमरे में संदेशवाहक का काम कर रहे थे. ये सब करीब दो घंटे तक चलता रहा. प्रेस की निगाहें पीएम आवास पर थीं.'

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जेवियर मोरो अपनी किताब Red Sari में लिखते हैं- 'सामान गाड़ी में रखा जाने लगा. फिर बात दो साल के वरुण गांधी पर आकर टिक गई. इंदिरा किसी भी सूरत में अपने दो साल के पोते और संजय की आखिरी निशानी वरुण को जाने देने को तैयार नहीं थीं और मेनका वरुण के बिना जाने को तैयार नहीं थीं. तुरंत इंदिरा के प्रिंसिपल सेक्रेटरी पी. सी. एलेक्जेंडर को बुलाया गया. उन्होंने इंदिरा को समझाने की कोशिश की कि बेटे पर मां का कानूनी हक साबित होगा. आधी रात में ही कानूनी एक्सपर्ट वकील भी बुलाए गए. उन्होंने भी इंदिरा को समझाने की कोशिश की कि कोर्ट में जाने पर मेनका के पक्ष में वरुण की कस्टडी चली जाएगी. आखिरकार इंदिरा तैयार हुईं.'

जेवियर मोरो लिखते हैं- 'आधे सोए और आधे विभ्रमित दो साल के फिरोज वरुण को बांहों में थामकर मेनका जब बाहर आईं तो रात के 11 बज चुके थे. अपनी बहन के साथ वे कार में सवार हुईं. फोटोग्राफरों के फ्लैश इस सियासी और पारिवारिक घटनाक्रम के एक-एक पहलू को कैद करते चमक रहे थे. अगली सुबह इस रात की कहानी देशभर की अखबारों की सुर्खियां थीं.'

मेनका गांधी का सियासी करियर

परिवार दो ध्रुवों में बंट गया और सियासी फ्यूचर भी. मेनका गांधी ने अगले साल अकबर अहमद डंपी और संजय गांधी के अन्य पुराने साथियों के साथ मिलकर राष्‍ट्रीय संजय मंच नाम से पार्टी बना ली. फिर 1984 का लोकसभा चुनाव मेनका गांधी ने राजीव गांधी के खिलाफ अमेठी से निर्दलीय लड़ा लेकिन उन्हें हार का सामना करना पड़ा. इसके बाद 1988 में मेनका गांधी जनता दल में शामिल हो गईं. 1989 में पीलीभीत से जनता दल के टिकट पर चुनाव लड़ा और सांसद बनीं. 1991 का चुनाव मेनका पीलीभीत से जनता दल के टिकट पर हार गईं. इसके बाद 1996 में वो दूसरी बार पीलीभीत से चुनाव लड़ीं और जीत दर्ज की. 1998 में मेनका निर्दलीय चुनाव लड़ीं और फिर जीत दर्ज की.

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बीजेपी के साथ मेनका का सियासी सफर

बीजेपी के साथ मेनका गांधी का सफर 2004 में शुरू हुआ. मेनका बीजेपी के टिकट पर पीलीभीत से चुनाव जीत गईं. फिर 2009 में आंवला सीट से बीजेपी के टिकट पर सांसद बनीं. पीलीभीत से वरुण गांधी बीजेपी के टिकट पर उतरे और सांसद बने. 2013 में वरुण गांधी बीजेपी के सबसे युवा महासचिव बने. 2014 में फिर पीलीभीत से मेनका बीजेपी के टिकट पर जीतीं और वरुण सुल्तानपुर से जीतकर संसद पहुंचे.

वरुण गांधी का सियासी करियर

फायर ब्रांड नेता के तौर पर बीजेपी में कुछ समय तक वरुण गांधी तेजी से उभरे. 2017 यूपी विधानसभा चुनावों से पहले सीएम पद के लिए भी वरुण गांधी ने जोर-आजमाइश की. 2019 के लोकसभा चुनाव में मेनका की जगह पीलीभीत से वरुण गांधी को टिकट मिला और वरुण फिर सांसद बने. मेनका गांधी सुल्तानपुर से सांसद चुनी गईं. लेकिन पिछले कुछ समय से वरुण गांधी की बीजेपी से नाराजगी जगजाहिर है. ऐसे में अटकलें लग रही थीं कि कांग्रेस में उनकी एंट्री हो सकती है लेकिन अब राहुल गांधी के दो टूक बयान के बाद अब इन अटकलों पर विराम लग सकता है.

 

 

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