त्रिपुरा विधानसभा चुनाव का प्रचार अभियान थम चुका है और गुरुवार को मतदान है. प्रदेश की 60 विधानसभा सीटों पर कुल 259 उम्मीदवार ताल ठोक रहे हैं. बीजेपी ने सत्ता में दोबारा से वापसी के लिए पूरी ताकत झोंक दी है, लेकिन बदले हुए समीकरण में यह रास्ता आसान नहीं है. राज्य में एक-दूसरे के विरोधी रहे लेफ्ट फ्रंट और कांग्रेस मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं. त्रिपुरा के शाही वंश के उत्तराधिकारी प्रद्योत बिक्रम माणिक्य देबबर्मन की नई पार्टी टिपरा मोथा पहली बार चुनावी मैदान में है. इस तरह बीजेपी के सामने कांग्रेस-लेफ्ट गठबंधन से लेकर टिपरा मोथा और टीएमसी चुनौती खड़ी कर दी है.
किस पार्टी के कितने उम्मीदवार?
त्रिपुरा की कुल 60 विधानसभा सीटों के लिए 259 प्रत्याशी मैदान में हैं. बीजेपी आईपीएफटी के साथ मिलकर चुनावी में उतरी है. बीजेपी ने 55 सीटों पर उम्मीदवार उतारे हैं तो आईपीएफटी 5 सीटों पर चुनाव लड़ रही है. कांग्रेस-लेफ्ट में सीटों पर समझौते के तहत वाम मोर्चा 43 और कांग्रेस 13 सीटों पर चुनाव लड़ रही है, जबकि एक सीट पर निर्दलीय को समर्थन दिया है. प्रद्योत बिक्रम की नई पार्टी टिपरा मोथा ने 42 सीटों पर उम्मीदवार उतारे हैं. ममता बनर्जी की पार्टी टीएमसी 28 सीटों पर ही चुनाव लड़ रही है. इसके अलावा, 58 उम्मीदवार निर्दलीय हैं और कुछ अन्य दलों से भी मैदान में हैं.
5 साल में क्या बदल गए समीकरण?
त्रिपुरा में 25 साल से चले आ रहे लेफ्ट के शासन को बीजेपी ने 2018 के चुनाव में ध्वस्त कर दिया था. बीजेपी-आईपीएफटी मिलकर चुनाव लड़ी थी. बीजेपी को 36 और आईपीएपटी को 8 सीटों पर जीत मिली थी. बीजेपी गठबंधन के खाते में 60 में से 44 सीटें गई थी. वहीं, दूसरी तरफ लेफ्ट पार्टियां 16 सीटों पर सिमट गई और कांग्रेस अपना खाता भी नहीं खोल सकी थी.
बीजेपी ने त्रिपुरा में पहली बार सरकार बनाई तो मुख्यमंत्री का ताज बिप्लब देब के सिर सजा था. हालांकि, चार साल के बाद मई 2022 को बिप्लब देब के हाथों सत्ता की कमान लेकर माणिक साहा को सौंप दी गई. बीजेपी त्रिपुरा के सीएम माणिक साहा की अगुवाई में इस बार चुनावी मैदान में उतरी है, लेकिन राज्य में राजनीतिक समीकरण पूरी तरह बदल चुके हैं. कांग्रेस और लेफ्ट अब एक साथ हैं तो टीएमसी और टिपरा मोथा पार्टी भी पूरे दमखम के साथ चुनावी रण में उतरी हैं.
त्रिपुरा की सियासी तस्वीर
पूर्वोत्तर की सियासत उत्तर और दक्षिण भारत की राजनीति से काफी अलग है. त्रिपुरा में सबसे ज्यादा आदिवासी समुदाय का वोट है और सियासत भी उन्हीं के इर्द-गिर्द सिमटी हुई है. राज्य की सीमा बांग्लादेश से लगती है और यहां लगभग 65 फीसदी बांग्लाभाषी रहते हैं. 32 फीसदी के करीब आदिवासी समुदाय है तो आठ फीसदी मुस्लिम आबादी है. राज्य में सांप्रदायिकता कभी मुद्दा नहीं रहा, लेकिन साल 2021 में बांग्लादेश में दुर्गा पंडालों में जो हिंसा हुई, उसकी आंच त्रिपुरा तक पहुंची थी. ऐसे में त्रिपुरा के हालात बदल गए हैं.
त्रिपुरा में 32 फीसदी आदिवासी समुदाय की आबादी है. राज्य की कुल 60 में से 20 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए रिजर्व है, जबकि बाकी बची 40 सीटें अनारक्षित है. बीजेपी-आईपीएफटी गठबंधन सभी 20 आदिवासी रिजर्व सीटें जीतने में सफल रही थी.
बीजेपी के लिए रास्ता कठिन?
पांच साल बाद बीजेपी माणिक साहा के चेहरे और पीएम नरेंद्र मोदी के नाम के सहारे चुनावी मैदान में है, लेकिन त्रिपुरा में बीजेपी के लिए जीत का रास्ता इतना आसान नजर नहीं आता. इस बार सियासी हालात 2018 से बदल चुके हैं. पिछले चुनाव में बीजेपी को आदिवासियों ने एकमुश्त वोट दिए थे, लेकिन आदिवासी बेल्ट में जिला परिषद के चुनाव में अपना सियासी हश्र देख चुकी है. कांग्रेस-लेफ्ट पांच साल पहले अलग-अलग चुनाव लड़ी थी, लेकिन उन्हें 50 फीसदी वोट मिले थे. दोनों के साथ आने से बीजेपी की चुनौती बढ़ गई है.
बीजेपी 2018 में लेफ्ट की सरकार के हटाने के लिए वोट मांग रही थी जबकि इस बार अपने पांच साल के कामकाज को लेकर जनता के बीच में है. बीजेपी सरकार हर महीने बुज़ुर्गों को 2000 रुपये पेंशन योजना, पांच किलो हर महीने मुफ्त अनाज और केंद्रीय योजनाओं के जरिए अपनी वापसी की उम्मीद लगाए हुए है. पीएम मोदी से लेकर अमित शाह और जेपी नड्डा तक डबल इंजन की सरकार के जरिए जीत की उम्मीद लगाए हुए हैं. अपना वोट बैंक अटूट रखने के लिए पार्टी ने कांग्रेस से आकर चुनाव जीतने वाले तमाम नेताओं को टिकट दिए हैं, ताकि उनके समर्थकों के वोट उनकी झोली में आ सकें.
लेफ्ट-कांग्रेस गठबंधन सफल होगा?
त्रिपुरा की सियासत में अपने राजनीतिक वजूद को बचाए रखने के लिए कांग्रेस और लेफ्ट अपनी आपसी दुश्मनी भुलाकर एक साथ आए हैं. साल 2018 में लेफ्ट ने 16 सीटें जीती थी और वोट शेयर 43.35 फीसदी था तो कांग्रेस को 1.7 फीसदी वोट मिला था. लेफ्ट और बीजेपी के बीच वोट शेयर का अंतर एक फ़ीसदी से भी कम था. ऐसे में लेफ्ट ने कांग्रेस के साथ हाथ मिलाकर बीजेपी को चुनौती देने की कोशिश की है, लेकिन लेफ्ट के कार्यकाल में कांग्रेस के जिन कार्यकर्ताओं पर कथित अत्याचार हुए, उनके घरों को जलाया गया, वे वाम मोर्चा उम्मीदवारों को वोट कैसे देंगे? लेफ्ट फ्रंट ने पूरी ताकत झोंक रखी है ताकि जनता का भरोसा जीत सके, लेकिन उसके लिए सबसे बड़ी चुनौती प्रद्योत और ममता बनर्जी हैं. ममता और प्रद्योत के चुनावी मैदान में उतरने से सत्ता विरोधी वोट बिखरने की भी संभावना है.
प्रद्योत क्या किंगमेकर बनेंगे?
त्रिपुरा की सियासत में तीसरी ताकत के रूप में टिपरा मोथा पहली बार अपने प्रमुख प्रद्योत देबबर्मा के नेतृत्व में चुनाव मैदान में उतरी है. राजपरिवार के उत्तराधिकारी प्रद्योत बिक्रम माणिक्य देबबर्मन ने 42 सीटों पर उम्मीदवार उतारे हैं. आदिवासियों की पार्टी होने के बावजूद टिपरा मोथा ने आदिवासियों के लिए सुरक्षित 20 सीटों के अलावा 22 गैर-आदिवासी सीटों पर भी उम्मीदवार खड़े किए हैं. इन 22 सीटों पर आदिवासी वोटरों की खासी तादाद है. प्रद्योत जनजातीय आबादी के लिए एक अलग राज्य 'ग्रेटर त्रिपरा लैंड' बनाने की बात कर रहे हैं. आदिवासी लोग त्रिपुरा के चुनाव में बड़ा मुद्दा है. बीते चुनाव में बीजेपी को इसका फायदा भी हुआ था, लेकिन इस बार प्रद्योत आदिवासी समुदाय को लुभाने में जुटे हैं.
जनजाति समुदाय के लोग शाही परिवार का सम्मान करते हैं. आदिवासी बेल्ट के जिला परिषद चुनाव में मेथा को जिस तरह से फायदा मिला, उससे माना जा रहा है कि विधानसभा चुनाव में भी पार्टी को लाभ हो सकता है. पार्टी ने गैर-आदिवासी सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए हैं, उनमें से कुछ सीटों पर वह वाम-कांग्रेस गठजोड़ के लिए समस्या पैदा कर सकती है. ऐसे में देखना है कि प्रद्योत क्या त्रिपुरा के किंगमेकर बनते हैं?
टीएमसी क्या करिश्मा दिखा पाएगी?
पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस भी त्रिपुरा चुनाव में मैदान में किस्मत आजमा रही है. टीएमसी 28 सीटों पर चुनाव लड़ रही है. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से लेकर अभिषेक बनर्जी तक जनसभाएं कर चुके हैं. ममता के मंत्री लगातार त्रिपुरा का दौरा कर माहौल बनाने का काम कर रहे हैं. इतना ही नहीं, कांग्रेस और लेफ्ट के कई नेताओं को टीएमसपी ने टिकट देकर चुनाव में उतारा है. ऐसे में सवाल उठता है कि इन फैसलों से चुनाव में क्या फायदा होगा?