उत्तर प्रदेश में 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए सियासी तानाबाना बुना जाने लगा है. राष्ट्रीय लोकदल की कमान एक बार फिर से जयंत चौधरी को सौंप दी गई है. पश्चिमी यूपी में बीजेपी को मात देने के लिए जयंत नई सोशल इंजीनियरिंग बना रहे हैं, लेकिन इस बार उनकी रणनीति बदली हुई नजर आ रही है. हाल ही में आरएलडी में किए बदलाव से साफ जाहिर होता है कि जयंत चौधरी मुस्लिम नेताओं को पार्टी के फ्रंट रो में जगह देने के बजाय बैकसीट पर बैठा रहे हैं. मुस्लिम नेताओं की जगह पर गुर्जर और दूसरे अन्य समाज के नेताओं को तवज्जो देकर जाति कंबिनेशन बना रहे हैं?
मुस्लिम नेताओं की रालोद से छुट्टी
राष्ट्रीय लोकदल में पिछले दिनों कई राजनीतिक बदलाव किए गए हैं. 2022 विधानसभा चुनाव के फौरन बाद ही जयंत ने रालोद के उत्तर प्रदेश अध्यक्ष पद से डा. मसूद अहमद को हटाकर रामाशीष राय को पार्टी की कमान सौंपी थी. रामाशीष पूर्वांचल के देवरिया से आते हैं और बीजेपी युवा मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुके हैं. इसके बाद रालोद युवा के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से वसीम रजा को हटाकर चंदन चौहान को जिम्मेदारी दी है. चंदन चौहान गुर्जर समुदाय से आते हैं और सपा से आए हैं. रालोद में हुई दोनों तब्दीली में मुस्लिम नेताओं को ही अपने पद से बेदखल होना पड़ा है. 2022 के विधानसभा चुनाव में जयंत चौधरी के साथ साये की तरह हमेशा नजर आने वाले पूर्व सांसद शाहिद सिद्दीकी भी अब नहीं दिख रहे हैं.
रालोद में मुस्लिम लीडरशिप
राष्ट्रीय लोकदल में मुस्लिम लीडरशिप के नाम पर कोई कद्दावर चेहरा नजर नहीं आता है. न ही आरएलडी के राष्ट्रीय संगठन में और न ही प्रदेश ईकाई में. आरएलडी में तीन राष्ट्रीय महासचिव मुस्लिम है, जिनमें एहतेशाम रहीम खान, पूर्व मंत्री डा. मेराजुद्दीन और पूर्व विधायक अमीर आलम हैं. रालोद के प्रदेश संगठन में कुंवर हसन एकलौते चेहरे हैं, जो प्रदेश कार्यकारी अध्यक्ष हैं और पार्टी के फ्रंटल संगठन के प्रभारी हैं. विधायकों में देखें तो दो ही मुस्लिम दिखते हैं, जिनमें थाना भवन से अशरफ अली और सिवालखास से गुलाम मोहम्मद विधायक हैं.
रालोद के सीन से गायब मुस्लिम
पश्चिमी यूपी की राजनीति में मुस्लिम नेताओं का किरदार हमेशा से ही अहम रहा है. मुजफ्फरनगर से लेकर मेरठ, बिजनौर और सहारनपुर तक में हमेशा से ही कद्दावर मुस्लिम सियासत का जोर रहा, लेकिन 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के बाद से मुस्लिम नेताओं की राजनीति में ऐसी जंग लगनी शुरू हुई, जो अभी तक खत्म नहीं हुई. अमीर आलम उसके बाद से साइड लाइन चल रहे हैं जबकि मेराजुद्दीन और एहतेशाम का अपना कोई खास सियासी जनाधार नहीं है, क्योंकि दोनों ही नेता बहुत ज्यादा सक्रिय नहीं रहते हैं. पूर्व सांसद शाहिद सिद्दीकी भी आरएलडी के सीट से गायब हैं और पार्टी के राष्ट्रीय अधिवेशन भी नहीं दिखें.
मुस्लिमों पर बदली रणनीति
2022 के विधानसभा चुनाव में जाट-मुस्लिम कंबिनेशन के दम पर जयंत चौधरी ने एक से अपने 9 विधायक जरूर बना लिए, लेकिन पश्चिमी यूपी में बीजेपी के विजयरथ को नहीं रोक पाए थे. ऐसे में नई सोशल इंजीनियरिंग को बनाने में जुटे हैं, जिसका लिटमस टेस्ट खतौली के उपचुनाव में सफल रहा. जयंत ने खतौली में गुर्जर समुदाय के मदन भैया को टिकट देकर बीजेपी को मात देने में सफल रहे, जिसके बाद ही उन्होंने चंदन चौहान को पार्टी के युवा संगठन की कमान सौंपी है. इसके अलावा उन्होंने अपने विधायकों से दलित बहुल इलाके में अपनी विधायक निधि का तीस फीसदी खर्च करने का निर्देश दिया है. इतना ही नहीं दलित नेता चंद्रशेखर के साथ भी उनकी केमिस्ट्री दिख रही है.
जयंत चौधरी की रणनीति से एक बात साफ है कि वो 2024 के लिए दलित-गुर्जर समुदाय को जोड़ने पर काम कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि जाट और मुस्लिम उनका स्वाभाविक वोट है. ऐसे में जाट-मुस्लिमों के साथ अगर गुर्जर-दलित जुड़ जाता है तो पश्चिमी यूपी में बीजेपी के सामने कड़ी चुनौती पेश कर सकते हैं. सपा के साथ आरएलडी का गठबंधन होने के चलते उन्हें लग रहा है कि मुस्लिमों वोट कहीं नहीं जाएगा. ऐसे में मुस्लिमों को तवज्जे देने के बजाय अगर गुर्जर और दूसरी जातियों को साधते हैं तो अपने खोए हुए राजनीतिक रुतबे को दोबारा से हासिल कर सकते हैं.
कहीं पश्चिमी यूपी में बिगड़ ना जाए गणित!
पश्चिमी यूपी की सियासत जाट, मुस्लिम और दलित समुदाय के जाटव जाति के इर्द-गिर्द सिमटी हुई है. यूपी में भले ही 20 फीसदी मुसलमान हैं, लेकिन पश्चिमी यूपी में 30 फीसदी से 40 फीसदी के करीब हैं. आरएलडी का मुस्लिमों को नजर अंदाज करना राजनीतिक रूप से महंगा भी पड़ सकता हैं, क्योंकि पश्चिमी यूपी का मुस्लिम सिर्फ वोट ही नहीं बल्कि प्रतिनिधित्व के लिए भी जद्दोजहद करता है, लेकिन बीजेपी को हराने वाला जो वोटिंग पैटर्न है, उससे सपा और आरएलडी का हौसला बरकरार है.
बता दें कि 2019 के लोकसभा चुनाव में विपक्ष को 16 सीटें मिली थीं, उसमें सात सीटें पश्चिमी यूपी की थीं, जिनमें से पांच मुस्लिम थे. सहारनपुर, अमरोहा, मुरादाबाद, संभल और रामपुर सीट पर मुस्लिम सांसद चुने गए थे. इसके अलावा मेरठ में बहुत मामूली वोटों से हाजी याकूब हार गए थे. पश्चिमी यूपी के 14 जिलों में मुसलमान वोटों निर्णायक हैं. मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, अलीगढ़, संभल, बिजनौर, मुरादाबाद और बरेली में ये उस 30 प्रतिशत के जादुई आंकड़े से ज्यादा वोट करते हैं. बसपा दलित-मुस्लिम कंबिनेशन पर काम कर रही है. ऐसे में आरएलडी का मुस्लिमों पर बदली रणनीति महंगी न पड़ जाए?