आरक्षण राजनीति की वो पतली सी रस्सी है, जिस पर चलकर वोट तो भरपूर मिलता है, लेकिन रिजर्वेशन के मुद्दे की इस रस्सी पर बहुत संभलकर चलना होता है. अब बीजेपी ने एक ऐसी भूल कर दी है कि इसी मसले पर उसे बहुत डैमेज कंट्रोल करना पड़ रहा है.
अब असल में उत्तर प्रदेश नगर निकाय चुनाव के लिए सरकार की ओर से जारी ओबीसी आरक्षण को इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच ने रद्द कर दिया था. इस एक फैसले ने योगी सरकार की मंशा पर ऐसे सवाल उठाए कि अखिलेश से लेकर मायावती तक को इसमें एक बड़ा मुद्दा दिखने लगा. मुद्दा आरक्षण का, मुद्दा पिछड़े वोटबैंक का.
किस मुद्दे पर घिरी है योगी सरकार?
अब बीजेपी से क्या चूक हुई, ये तो समझा ही जाएगा, लेकिन पहले ये समझना ज्यादा जरूरी है कि किस मुद्दे ने देश की सबसे बड़ी पार्टी को इस मुश्किल में डाल दिया है. ये पूरा विवाद पांच दिसंबर को शुरू हुआ था जब यूपी में निकाय चुनावों यानी नगर निगम, नगर पालिका, नगर पंचायत के चुनाव का ड्राफ्ट नोटिफिकेशन जारी हुआ था. उस समय यूपी सरकार ने तब 27% आरक्षण पिछड़े वर्ग के लिए रखा था. लेकिन सरकार के उस नोटिफिकेशन के तुरंत बाद हाई कोर्ट में कई जनहित याचिका में ये अपील की गई कि यूपी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से तय ट्रिपल टेस्ट फॉर्मूले को अपनाए बगैर ही नोटिफिकेशन जारी हुआ. तब हाईकोर्ट में सरकार ने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि पिछड़ा वर्ग को आरक्षण देने के लिए 22 मार्च 1993 को आयोग बनाया गया था उसी के आधार पर 2017 में भी निकाय चुनाव करवाए गए थे.
दूसरों ने की चूक, यूपी सरकार ने किया फॉलो
लेकिन अदालत ने यूपी सरकार की दलील को खारिज कर दिया और 87 पेज के अपने फैसले में 5 दिसंबर के आरक्षण वाले नोटिफिकेशन को रद्द कर दिया. अदालत ने दो टूक कहा कि सरकार आयोग बनाकर ट्रिपल टेस्ट करते हुए ओबीसी को आरक्षण दे. अब ट्रिपल टेस्ट- यानी निकाय चुनाव में आरक्षण से पहले एक आयोग बनाएइ. आयोग फिर पहले निकायों में पिछड़ों का आकलन करेगा. दूसरे चरण में स्थानीय निकाय की तरफ से ओबीसी की संख्या का परीक्षण होगा. तीसरे चरण में शासन के स्तर पर सत्यापन के बाद ओबीसी आरक्षण तय होगा. इससे पहले एमपी, महाराष्ट्र, बिहार, झारखंड ने भी सुप्रीम कोर्ट के तय नियम को छोड़ा तो निकाय चुनाव में हाईकोर्ट से झटका लगा था. फिर भी यूपी सरकार की तरफ से क्यों बिना आयोग बनाए क्यों ओबीसी आरक्षण तय कर दिया गया ?जिसे हाईकोर्ट ने रद्द कर दिया.
आरक्षण को लेकर बीजेपी का विवादित इतिहास
अब सवाल उठता है कि जिस उत्तर प्रदेश में पिछडे वोट बैंक का दो तिहाई हिस्सा बीजेपी पिछले आठ साल से पा रही है. वहां आखिर अचानक क्यों आरक्षण से खेल की बात होने लगी? जिस यूपी में कमंडल और मंडल यानी हिंदुत्व और ओबीसी दोनों का वोट सीधे ही पाती आ रही है. उसी उत्तर प्रदेश में अब अखिलेश यादव और मायावती दोनों बीजेपी की ओबीसी और आरक्षण विरोधी मानसिकता के सामने आने का आरोप लगाते हैं. दिखाते हैं कि बीजेपी आरक्षण की विरोधी है. अब राजनीति का इतिहास बताता है कि 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव से पहले संघ प्रमुख मोहन भागवत का आरक्षण को लेकर दिया बयान बीजेपी की हार की एक वजह माना गया था. उसके बाद से हमेशा आरक्षण के दूध की एक बार जली बीजेपी हर बार छाछ भी फूंक फूंक कर पीती रही. फिर भी यूपी में चूक हो जाना. विपक्ष को बैठे बिठाए मौका दे देना....इसे क्या कहा जाए....सिर्फ संयोग?
पिछड़ों का वोटिंग पैटर्न, बीजेपी की सेंधमारी
अब इसे संयोग माना जाए या फिर चूक, लेकिन बीजेपी के इस एक फैसले के सियासी मायने कई हैं. इसे ऐसे समझ सकते हैं कि बीजेपी को पहले सवर्ण और शहरी वोटर ज्यादा मत देते रहे. ओबीसी वोट पर पहले क्षेत्रीय दलों का वर्चस्व रहा. वजह ये कि अलग अलग राज्यों में पिछड़े वर्ग की अलग अलग जातियों से ही कई क्षेत्रीय पार्टियां बनीं और नेता तैयार हुए. 2014 के बाद से वोट के इस गणित में बदलाव आया. चुनाव यूपी का हो या केंद्र का, पिछड़ा वोट बहुतायत में बीजेपी के पास एकमुश्त आने लगा. पिछड़े वोट पर बीजेपी विरोधियों की राजनीति ठांय ठांय फिस्स हो गई. लेकिन अब हाई कोर्ट के एक फैसले ने उस जाति को लेकर विपक्षी दलों के मन में उम्मीद जगा दी है जो पिछले कई सालों से बीजेपी को वोट कर रही है.
अखिलेश को इतनी उम्मीद क्यों, क्या मिलेगा पिछड़ा वोट?
यूपी में निकाय चुनाव में ओबीसी आरक्षण पर सरकार को झटका लगते ही अखिलेश यादव के दो ट्वीट समझने की जरूरत है. अखिलेश यादव ने लिखा-बीजेपी की हार में आरक्षण की जीत है. इससे पहले अखिलेश लिख चुके थे कि आरक्षण बचाने के लिए पिछड़े दलित उनकी पार्टी का साथ दें. यानी तुरंत ओबीसी वोट पर सीधी नजर. वजह ये कि अखिलेश यादव भले ओबीसी में सबसे ज्यादा वोट की ताकत रखने वाले यादव समाज से आते हों लेकिन उनकी पार्टी को उसके अलावा दूसरी पिछड़ी जातियों का बड़ा वोट नहीं मिल पाता. आंकड़े भी इसी ओर इशारा करते हैं. 2019 का चुनाव अगर देखें तो यूपी में बीजेपी को ओबीसी में 80 फीसदी कोइरी-कुर्मी मतदाताओं और 72 फीसदी अन्य ओबीसी मतदाताओं ने वोट दिया था. ओबीसी में ही आने वाले 91 प्रतिशत जाट वोट बीजेपी के खाते में गया था.
सत्ता का रास्ता यानी कि पिछड़ों का साथ
देश में 1990 के मंडल आंदोलन के बाद से पिछड़ों का वोट ही सत्ता का सुप्रीम कौन ये तय करने लगा. तब देश में पिछड़ों के वोट पर बड़ी पकड़ क्षेत्रीय दलों के नेताओं की रहती थी. 1996 के लोकसभा चुनाव में जहां कांग्रेस को 25 फीसदी ओबीसी वोट मिला. बीजेपी को 19 फीसदी ओबीसी वोट हाथ आया. वहीं क्षेत्रीय दलों को सबसे ज्यादा 49 फीसदी ओबीसी कोटे के वोट हासिल हुआ. 2009 तक ओबीसी वोट की स्थिति बंटवारे में देश में ऐसी ही रही. जब कांग्रेस को 24 फीसदी ओबीसी वोट, बीजेपी को 22 प्रतिशत ओबीसी वोट
और क्षेत्रीय दलों को 42 फीसदी पिछड़ा वर्ग वोट देता रहा. लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में ओबीसी वोट का गणित पूरी तरह बदल गया. जब कांग्रेस के खाते से ओबीसी वोट 15 फीसदी आया. बीजेपी के खाते में पिछ़ड़े वर्ग के मतदाता रॉकेट की तरह छलांग लगाकर 44 फीसदी हो गए. और समाजवादी पार्टी, आरजेडी समेत ओबीसी वोट के मुख्य प्राप्तकर्ता क्षेत्रीय दलों के खाते में देश में सिर्फ 27 फीसदी वोटर ओबीसी वोटबैंक से आए.
आरक्षण का एडवेंचर ना बन जाए मिसएडवेंचर
लेकिन यूपी में आरक्षण के मुद्दे पर विपक्ष अपनी सियासत को फिर धार देने की कोशिश में लग गया है. विपक्ष बहुत कोशिश भी कर रहा है कि बीजेपी को आरक्षण विरोधी के तौर पर दिखाया जाए. लेकिन शायद दाल ना गले. जितनी तेजी से सरकार आरक्षण के बिना चुनाव में ना जाने का एलान करके आयोग बनाने की बात कह चुकी है. वहां तय है कि चुनाव भले कुछ दिन बाद अब हों लेकिन रिजर्वेशन पर कोई एडवेंचर नहीं होगा, जो चुनाव में मिसएडवेंचर बन जाए.
आजतक ब्यूरो