scorecardresearch
 

ओबीसी की लिस्ट पर समर्थन फिर जातिगत जनगणना से किनारा क्यों कर रही है BJP?

देश में जाति आधारित जनगणना की मांग को लेकर राजनीति तेज हो गई है. बिहार के सीएम नीतीश कुमार समेत कई नेताओं ने सोमवार को इस मसले पर पीएम मोदी से मुलाकात की और देश में जाति आधारित जनगणना कराने की मांग की. अब सवाल यह उठता है कि केंद्र सरकार जाति आधारित जनगणना के लिए हामी क्यों नहीं भर रही है.

Advertisement
X
जातिगत जनगणना की मांग को लेकर पीएम से नीतीश समेत अन्य नेताओं ने मुलाकात की.(फाइल फोटो)
जातिगत जनगणना की मांग को लेकर पीएम से नीतीश समेत अन्य नेताओं ने मुलाकात की.(फाइल फोटो)
स्टोरी हाइलाइट्स
  • अन्य राज्यों में भी उठ चुकी है इसकी मांग
  • बीजेपी के कई सहयोगी खुद उठा चुके हैं सवाल
  • पहले बीजेपी भी रही है जातिगत जनगणना के समर्थन में

देश में जाति आधारित जनगणना की मांग को लेकर राजनीति तेज हो गई है. बिहार के सीएम नीतीश कुमार समेत कई नेताओं ने सोमवार को इस मसले पर पीएम मोदी से मुलाकात की और देश में जाति आधारित जनगणना कराने की मांग की. अब सवाल यह उठता है कि केंद्र सरकार जाति आधारित जनगणना के लिए हामी क्यों नहीं भर रही है. बीजेपी को जाति आधारित जनगणना से परहेज क्यों है. इसे जानने के लिए थोड़ा पीछे चलते हैं.

Advertisement

आडवाणी की 30 पहले की रथयात्रा

30 साल पहले की वो रथयात्रा जो बीजेपी के लालकृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या तक के लिए निकाली थी. कहने को तो आडवाणी की ये रथयात्रा राममंदिर का माहौल बनाने के लिए निकाली गई थी लेकिन राजनीतिक जानकारों ने इसका छिपा हुआ मकसद सिर्फ ये माना कि वीपी सिंह ने मंडल कमीशन की सिफारिश लागू कर जो बड़ा दांव खेला था, रथयात्रा का मकसद उसके राजनीतिक असर को कम करना था.

आडवाणी की रथयात्रा के 30 साल बाद एक बार फिर सियासत 360 डिग्री घूम गई है. अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण शुरू हो चुका है और इधर जाति राजनीतिक बहस के केंद्र में है. पिछले महीने इस दिशा में अहम कदम उठा जब ओबीसी बिल को संसद के दोनों सदनों की हरी झंडी मिल गई. इस कानून में अन्य पिछड़ा वर्ग की लिस्ट तैयार करने का अधिकार राज्यों को दिया गया.
 
जाति जनगणना से बीजेपी को परहेज क्यों?


ओबीसी की लिस्ट पर बीजेपी को परहेज नहीं लेकिन जाति जनगणना से परहेज क्यों? जबकि ये बीजेपी का पुराना स्टैंड नहीं रहा है. इससे पहले बीजेपी इसके समर्थन में थी. आखिर बीजेपी का रुख अब क्यों बदल गया? तब जो पार्टी जाति जनगणना के समर्थन में इतनी मुखर थी, उसी पार्टी की सरकार ना सिर्फ जाति जनगणना कराने से इनकार कर रही है, बल्कि 2011 में जो सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण हुआ और जातियों की नए सिरे से गिनती की गई, उसके आंकड़े भी जारी नहीं कर रही है, आखिर क्यों? इस सवाल का जवाब पाने के लिए कुछ दूसरे सवालों के जवाब तलाशने होंगे.

- क्या ओबीसी जातियों की हिस्सेदारी के बढ़ने या घटने का असर मौजूदा राजनीतिक समीकरणों पर पड़ सकता है?
-जिस BJP ने ओबीसी जातियों की राजनीति को नई धार देकर सत्ता के कई जिताऊ फॉर्मूले तैयार किए हैं, उसमें छेद लगने की संभावना है?
-जाति जनगणना के बाद 'जिसकी जितनी हिस्सेदारी उसकी उतनी भागीदारी' के नारे के असर को संभाल पाना सरकार को टेढ़ी खीर लग रही है?
-संसद से सड़क तक और सड़क से कोर्ट तक, क्या सरकार के सामने आरक्षण का नया मुद्दा खड़ा हो जाएगा?

Advertisement

पार्टी मंथन के बाद आया फैसला!

जातियों के नए आंकड़े जारी ना करने का फैसला सरकार के भीतर से मंथन के बाद आया लगता है. 2016 में जब सामाजिक आर्थिक सर्वे का आंकड़ा तैयार हुआ, तब उसमें जातियों के आंकड़ों में गड़बड़ी के आधार पर उसे जारी नहीं करने का फैसला हुआ लेकिन एक एक्सपर्ट ग्रुप ने इन आंकड़ों को परखा एक्सपर्ट ग्रुप की रिपोर्ट का क्या हुआ, इसकी कोई जानकारी नहीं है.

उधर, साल 2018 में केंद्रीय गृह मंत्री की हैसियत से राजनाथ सिंह ने 2021 की जनगणना में जातियों को गिनने का भरोसा दिया. लेकिन अब जब सरकार जातियों का नया आंकड़ा बताने से पीछे हट गई है, तो इसमें राजनीति की कोई नई समझ का प्रभाव हो सकता है. हालांकि सरकार के सामने सिर्फ नीतीश जैसे सहयोगियों का दबाव ही नहीं है. खुद BJP के भीतर से जाति जनगणना के समर्थन का खुल्लम खुल्ला ऐलान है. जाति जनगणना की राजनीति BJP के लिए एक दोधारी तलवार की तरह है. अपनों की लामबंदी और विपक्ष के तेवर से जाति जनगणना का तूफान खड़ा हो सकता है.

1881 में हुई थी देश की पहली जनगणना

भारत में जातियों का जो रजिस्टर है, वो 90 साल पुराना है. देश में 1881 में पहली जनगणना हुई. 1931 में आखिरी बार जाति आधारित जनगणना हुई. 1931 की जनगणना के हिसाब से 52 फीसदी ओबीसी आबादी है. 2011 में जनगणना के लिए जाति की जानकारी ली गई लेकिन प्रकाशित नहीं की गई. भारत की जनता के लिए जातिगत व्यवस्था अभिषशप्त परंपरा, 1931 के बाद जातिगत गणना नहीं हुई है. 90 साल से देश को पता नहीं है कि किस जाति के कितने लोग हैं. यही वजह है कि जातियों की फिर से गिनती का सवाल उठता रहा है. राजनीतिक दलों के लिए जाति ही प्राणवायु है. जातिगत वोट बैंक का सटीक पता हो तभी सियासी मोर्चेबंदी भी सटीक हो. विकास तो अपनी जगह है. 

नीतीश का दांव

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की अगुवाई में जातिगण जनगणना के लिए बिहार के नेताओं का पीएम से मुलाकात बिहार की सियासत के लिए अहम घटनाक्रम है. नीतीश कुमार ने बिहार की सत्ता संभालने के बाद के वर्षों में अति पिछड़ा के दांव से खुद को मजबूती दी लेकिन 2020 के बिहार चुनाव में नीतीश उतने मजबूत नहीं रहे, जितने वो हुआ करते थे. अब नीतीश ने उस मुद्दे को छू दिया है, जिसमें 1990 की मंडल की राजनीति का अगला अध्याय लिखने की कुव्वत है.

Advertisement

अन्य राज्यों में भी उठ चुकी है इसकी मांग

बेशक जातिगत जनगणना की मांग को लेकर आज पीएम से बिहार के नेताओं की मुलाकात हुई है लेकिन ये मुद्दा सिर्फ बिहार तक सीमित नहीं है. उत्तर प्रदेश, 2022 में जहां विधानसभा चुनाव होने है, वहां जातीय आधार पर राजनीति की नींव खोजने वाले ओम प्रकाश राजभर ने भी पिछले दिनों जातीय जनगणना को फिर से NDA में लौटने की एक शर्त के तौर पर गिनाया था.

पिछले कुछ महीनों की राजनीति पर गौर करें तो कई नेताओं के नाम सामने आएंगे जिन्होंने जातिगत जनगणना का मुद्दा उठाया. बीजेपी की राष्ट्रीय सचिव पंकजा मुंडे ऐसी मांग कर चुकी हैं. केंद्रीय मंत्री रामदास आठवले जाति गणना की मांग कर चुके हैं. महाराष्ट्र की विधानसभा में 8 जनवरी को इस मांग का प्रस्ताव पारित हो चुका है. अपना दल की नेता और केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल भी ये मांग कर चुकी हैं. यहां तक ओबीसी बिल पर बहस के दौरान बीजेपी सांसद संघमित्रामौर्य भी जातिगत जनगणना की मागं कर चुकी हैं. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी हो या बीएसपी, जातियों का सही-सही आंकड़ा सामने लाने की मांग के समर्थन में इनका भी जोर है.

बिहार में चुनाव तो अभी दूर है लेकिन यूपी में चुनाव सिर पर है. राजनीति में अगर जाति जनगणना के मुद्दे ने उबाल लिया तो केंद्र के लिए इससे दूरी बनाए रखना लंबे समय तक संभव नहीं होगा.

(आजतक ब्यूरो)

Advertisement
Advertisement